अनुज लुगुन की कविता में लकड़हारे का प्रेम एवं चिंता
-Dr.Dilip Girhe
लकड़हारे की पीठ
जलती हुई लकड़ियों का
गट्ठर है मेरी पीठ पर
और तुम
मुझे बाँहों में भरना चाहती हो
मैं कहता हूँ—
तुम भी झुलस जाओगी
मेरी देह के साथ।
-अनुज लुगुन
काव्य संवेदना:
झारखंड की अस्मिता को अपनी कविता में फूल एवं पत्थर जैसे संघर्षभरे प्रतीकों के साथ अपनी कविता को प्रस्तुत करने वाले युवा कवि अनुज लुगुन है। कवि ने समाज के प्रत्येक पक्ष के संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। उन्होंने उन सभी पक्षों के दर्द और पीड़ा को देखा समझा है। इसी कारण वे उनका दुख-सुख को जीवंत परिस्थितियों के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसे ही समाज का एक हिसा लकड़हारा है। इसके दर्द और पीड़ा को कवि अनुज ने भावपूर्ण एवं मार्मिक पद्धति से व्यक्त किया है। वह लकड़हारा अपनी प्रिय को अपने हिस्से का दर्द होने से रोकने का संदेश दे रहा है। वह कह रहा है कि जलती हुई लकड़ियों की गठरी मेरी पीठ पर है। और तुम हो कि मेरे पीछे पड़ी हो मेरे बाहों में आना चाहती हो। तुम्हारा यह खूबसूरत देह मेरी जलती हुई लकड़ी के साथ जल जाएगा। इसीलिए तुम मेरे दर्द एवं पीड़ा से दूर रह जाओ। यह सोच उस लकड़हारे की है जो जलती हुई लकड़ी पीठ पर लेकर जा रहा है। इस प्रकार से कवि अपनी अंतिम पंक्ति कहते हैं कि "मैं कहता हूँ-तुम भी झुलस जाओगी मेरी देह के साथ" में अपने प्रिय को अपने दर्द का हिस्सा बनने से रोकने की कोशिश कर रहा है। यह एक बहुत ही भावपूर्ण और मार्मिक पंक्ति है, जो कवि के प्रेम और चिंता को दर्शाती है।