रविवार, 22 दिसंबर 2024

आदिवासी विस्थापन पर लेख (Aadiwasi visthapan)


 आदिवासी विस्थापन

-Dr.Dilip Girhe 

        जब विस्थापन के विभिन्न बिंदुओं पर बात होगी तो मुख्य रूप से विस्थापन क्या है, देखना भी जरूरी है। विस्थापन को ‘अनाधिकारी या बहिष्कृत’ भी कहा जाता है। एस. के. महापात्र ने विस्थापन की अवधारणा पर अपनी बात इस प्रकार रखी। वे कहते हैं “वे लोग जिन्हें अपना घर, वासभूमि, खेती की जमीनें या आय की अन्य परिसंपत्तियाँ खोनी पड़ी है।”[1] इस देश में आदिवासियों का लगातार विस्थापन हुआ है जिससे उनको अपना घर, अपनी झोपड़ी, अपनी वासभूमि यानी की जल-जंगल और ज़मीन को छोड़ना पड़ा। 21 वीं सदी में आदिवासी अपने विकास का रास्ता ढूँढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ सरकार की उदासीन नीतियों के कारण उनकी स्थिति में कुछ भी परिवर्तन नहीं हो रहा है।

प्रत्येक राष्ट्र की विकास की नीतियाँ यही कहती हैं कि उस देश के नागरिकों को विकास का समान अधिकार मिले, परंतु हमारे देश की क्या स्थिति है? जाहिर है कि इसी नीति से बहुत सारे लोगों का विकास आदिवासी लोगों की कीमत पर हुआ है। इसी नीति को अपनाकर सभी आदिवासी समुदायों को उनके लिए बन रही विविध योजनाओं के माध्यम से प्रगति करनी थी लेकिन सूत्र कुछ उलटे ही हो गए। अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच, वरिष्ठ-कनिष्ठ का भेदभाव समाप्त होने के बजाय बढ़ता ही गया। राष्ट्र विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीनें अधिग्रहित करके उनका जीवन उजाड़ा गया। प्रभाकर तिर्की झारखंड राज्य में आदिवासियों का विकास के बदले विनाश पर अपना सुझाव देते हुए कहते हैं कि “झारखंड क्षेत्र पिछली कई सदियों से विनाश की त्रासदी झेलता रहा है। इसके कई ऐतिहासिक कारण हैं। यद्यपि शासक वर्गों ने झारखंड के विकास के पक्ष में बड़ी-बड़ी दलीलें देकर आम जनता को भ्रमित करने का प्रयास किया है। परंतु विकास और विनाश की प्रक्रियाओं तथा उसके तुलनात्मक विश्लेषण से विनाश की कहानी ही प्रमाणित होती है।”[2] सन् 1998 में जब भूमि-अधिग्रहण संशोधन विधेयक पारित हुआ, तब से पुनर्वास बिल फारेस्ट बिल और बायो डायवर्सिटी जैसे बिलों ने विस्थापन की प्रक्रिया तेज़ी लाई। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मनमाने ढंग से जमीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। यह दौर विज्ञान का या भूमंडलीकरण का प्रारंभिक दौर था। संविधान में ऐसे कई कानून बनाए गए, जिनके तहत आदिवासियों की ज़मीन कोई भी मनमाने तरीके से नहीं खरीद सकता। लेकिन सत्ताधारियों ने इन कानूनों में भी अपने फायदे के लिए बदलाव करना शुरू कर दिया, जिसके कारण आदिवासियों को विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है।

भूमि-अधिग्रहण एवं पुनर्वास दोनों बिल एक ही मंत्रालय पारित हुए हैं किंतु दोनों भी एक दूसरे के विपरीत हैं। एक लोगों के हित में हैं तो दूसरा उनके विरोध में इस कानून में भी विस्थापित आदिवासियों को पुनर्वास की बाध्यता नहीं है। तो जाहिर है कि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाने के लिए आदिवासियों की जमीनें हड़बड़ी में लेगी ही क्योंकि आदिवासी इलाकों में ही उनके फायदे के लिए संसाधन का बड़ा हिस्सा मिलता हैं। जहाँ आदिवासी बहुतांश रूप में अपना जीवनयापन करते हैं। सरकार के इस नीति के कारण शेकड़ो आदिवासी विस्थापित हुए हैं। “1951 और 1995 की अवधि में झारखंड में 500 हजार एकड़ भूमि पर 15 लाख लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें 41.27 प्रतिशत आदिवासी हैं। ये बात ध्यान देने योग्य है कि रक्षा परियोजनाओं में विस्थापित हुए आदिवासियों की संख्या 89.7 प्रतिशत है और मार्के की बात यह है कि इन परियोजनाओं में विस्थापितों को नौकरी देने का कोई प्रावधान नहीं है। इसी तरह जल संसाधन परियोजानाओं के विस्थापितों में आदिवासियों की संख्या 75.2 प्रतिशत है और इनमें भी जमीन के बदले नौकरी देने का प्रावधान नगण्य है।”[3] उद्योग व खनिज संसाधन के कारण छत्तीसगढ़ राज्य में विस्थापन के आकड़ो को देखा जाए तो “छत्तीसगढ़ राज्य में आदिवासियों का विस्थापन तीव्रता से किया जा रहा है। यहाँ औद्योगीकरण के नाम पर टाटा, एस्सार, टेक्साल पावर जनरेशन, आर्सलर मित्तल, बीएचमी बिल्टन, डि बियर्स रियो टिंटो, गोदावरी इस्पात एंड एनर्जी लिमिटेड और जाइसवाल नेको इंडस्ट्रीज लिमिटेड आदि वैश्वीकृत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आदिवासी क्षेत्रों में बसाया जा रहा है। जिसके लिए राज्य सरकार ने रायपुर के पास सिमगा में 4000 एकड़, रायपुर में 2000 एकड़, बोराई दुर्ग में 5000 एकड़, रायगढ़ में 48000 एकड़, बस्तर की नगरनार में 800 एकड़ तथा लोंहगीगुड़ा क्षेत्र में 6000 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण कर खेतिहर किसानों व आदिवासियों का बर्बरतम विस्थापन किया जा रहा है।”[4]

    दूसरी ओर सरकारी संस्थाओं का निजीकरण करके आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की भारी मात्रा में छंटनी शुरू हो गई है। इस संदर्भ में झारखंड के कोयला खदानों का उदाहरण देखा जा सकता है।“कोयला खदानों के लिए हजारों एकड़ जमीन पहले निजी मालिकों ने ली, फिर सरकार ने अधिग्रहण कर ली कोयला के लिए तो सरकार ने एक नया कानून भी बनाया। कोल बियरिंग एरिया एक्ट 1957, जिसके तहत वह अधिगृहीत भूमि को जबरदस्ती भी कब्जे में ले सकती है। इस कानून के चलते आदिवासी किसानों पर कहर बरपाया गया। उसके बाद खदानों का राष्ट्रीयकरण हुआ, तो पुरानी खदानों के साथ-साथ नई खाली पड़ी जमीन भी कोयला कम्पनी ने बिना नोटिस दिए, कब्जा करनी शुरू कर दी[5] आज इसी खदानों में आदिवासी बँधुआ मजदूर होकर काम कर रहा है कई बार कोयला चुराने का आरोप लगाकर उन्हें जेलों में बंद करके उन पर अन्याय-अत्याचार किया जाता है। आज झारखंड जैसे कई राज्य हैं, जिसमें आदिवासियों को उनकी ही जमीनों पर मजदूरी का काम करना पड़ रहा है।

[1] हसनैन, नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृ. 207

[2] तिर्की, प्रभाकर. (2015). झारखंड आदिवासी विकास का सच. नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन. पृ. 41

[3] गुप्ता, रमणिका (सं.).(2008). आदिवासी: विकास से विस्थापन. नई दिल्ली : राधाकृष्णन प्रकाशन. पृ. 8

[4] मलिक, डॉ.फरहद व मुखर्जी, डॉ. बी. एम. (सं.). (2016). आदिवासी अशांति कारण, चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ. नई दिल्ली : के. के. पब्लिकेशन्स. पृष्ठ संख्या. 94 

[5] गुप्ता, रमणिका (सं.).(2008). आदिवासी: विकास से विस्थापन. नई दिल्ली : राधाकृष्णन प्रकाशन. पृ. 8