'पंछी' कविता संग्रह सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए एक नई विचारधारा है।
-Dr. Dilip Girhe
वास्तव में कोई भी रचना का अनुवाद करना बहुत ही कठिन कार्य है। चाहे वह रचना गद्य विधा की हो या पद्य विधा की। गद्य की तुलना में पद्य विधा में विशेषतः कविता पर अनुवाद करना बहुत-सी मुश्किलें पैदा करता है। क्योंकि कविता विधा में बिंब-विधान, रस-योजना, मधुरता, लयात्मकता और सांस्कृतिक विविधता के विविध तत्त्व शामिल होते हैं। इसीलिए कविता का अनुवाद करते समय अनुवादक के मन सहानुभूति होनी चाहिए। इस पर ड्राइडन कहते हैं कि 'कविता अनुवाद एक सहानुभूत्यात्मक क्रिया है'। 'पंछी' यह मेरी पहली मराठी से हिंदी में अनूदित सृजनात्मक रचना है। इस रचना में कई सारी कमियाँ रह सकती हैं, जो कमियाँ पाठक वर्ग की पठन प्रतिक्रिया से ही भविष्य में दूर की जा सकती हैं।
'पंछी' हिंदी अनूदित काव्य संकलन में कुल 37 कविताएँ हैं। ये कविताएँ दलितों, आदिवासियों और किसानों के जीवन संघर्ष को पेश करती हैं। 'बिरसा' जैसी कविता आदिवासियों पर हो रहे शोषणकारी हमलों को रोकने का मार्ग दिखाती है। जैसे-
"तूने छेड़ा है
जंगलों में रहने वाले
आदिम मनुष्यों के लिए महासंग्राम
इस कारण
उठ कर खड़े हुए
भूखे जीवों की
हड्डियों के कंकाल'
'सजग' कविता शोषित व्यवस्था पर अपना निशाना साधती है। क्योंकि शोषित व्यवस्था ने प्राचीन काल से लेकर आजतक दलितों आदिवासियों का शोषण किया है। भारतीय संविधान में सभी वर्गों को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के आधार पर अपना जीवन जीने का अधिकार दिया है। फिर भी शोषित व्यवस्था ने छल करना नहीं छोड़ा है। ऐसे ही विषय पर 'जाल' कविता अपना तीखापन अभिव्यक्त करती है। जिस धरती की कोख से किसानों मजदूरों द्वारा अपनी मेहनत की पसीनों से फसल उगाई जाती है, उनका शोषण कब तक होता रहेगा? कब तक उन पर मछलियों जैसे जाल डाले जाते रहेंगे। 'सजग' कविता की संवेदना को हम यहाँ पर देख सकते हैं-
"स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर
हमला करके
हमारी तन की लंगोट
छीनने वालो
अब हम सजग हो गए हैं
अपने गाँव में लोकतंत्र का
उजाला लाने के लिए!"
'वंदन' कविता बिरसा मुंडा, तंट्या भील, राणी दुर्गावती, भागोजी भींगरा, भीमू कुमारा, बाबुराव शेडमाके, वीर नारायण सिंह, पंची गोंडीन, शंकरशहा, रघुनाथशहा, बुलंदशहा, बल्लालशहा, सिदो कान्हू जैसे आदिवासी क्रांतिकारियों के महत्वपूर्ण आंदोलनों का जिक्र करके इन क्रांतिकारियों को नमन/वंदन करती हैं। 'आग' कविता बताना चाहती है कि वर्तमान में जिस तरह से आदिवासियों का विस्थापन करके उनके जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। इसके कारण सिर्फ आदिवासियों को ही दुःख-दर्द नहीं हो रहा है बल्कि जंगल के कई जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों को भी अपनी जान गवानी पड़ रही हैं। 'पंछी' कविता गुलामी के पिजड़े में कैद लोगों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है-
"पंछी तुझे यहाँ कैद कर लिया है
यहाँ के शोषकों ने
सोने के पिंजड़े में
यह सोने का पिंजडा
तेरा कैद खाना है
इस कैद खाने से
तू पंख फड़फड़ा कर
उड़ जा!"
इसी प्रकार से 'आग' कविता में जंगल के पंछियों का दुःख-दर्द को बताया गया है-
"जंगल की आग में
पेड के पंछियों का घोंसला
जलकर राख हो गया
घोंसले के अंडे और बच्चे
कोयला बनकर राख हो गए-
अपने बच्चों के लिए चारा लेकर
आई हुई पंछियों की माँ
यह दृश्य देखकर बहुत रोई !
उसने अपने बच्चों की
राख जमा की
उसकी आँखों के आँसू
एक ही सवाल पूछ रहे थे कि
यह आग किसने लगाई!
यह आग किसने लगाई!"
कवि बाबाराव मडावी 'माँ' कविता के माध्यम से अपनी माँ का पारिवारिक जीवन संघर्ष को दिखाते हैं। वे इस कविता के जरिए कहना चाहते हैं कि माँ सुबह से लेकर दिन भर बीड़ी तेंदुपत्ता लाना, अपने बच्चों की देखभाल करना, अपनी बेटियों की शादी की तैयारियाँ करना जैसे कई काम देर रात तक करती रहती है। कवि अपनी माँ का संघर्षमय जीवन को देखते-देखते अपनी प्रतिक्रिया 'माँ' कविता में देते हैं-
"पंचीन ने माँ की तरफ देखा तब
उसकी आँखों में आँसू आए।
वह कहने लगी कि
माँ तुम कब तक काम करती रहोगी
माँ तुम कब तक काम करती रहोगी!"
'परिवार' कविता तीन पत्थर के चूल्हे पर जीवन जी रहे आदिवासियों के जीवन को प्रस्तुत करती। 'गुरुजी' कविता लेखक के बचपन की यादों को रेखांकित करती है। 'कुपोषण-1' कविता कुपोषण के कारण मर रहे आदिवासी बच्चों की दुखदीन घटनाओं को दिखाती है। आज भारत के कई हिस्सों में कुपोषण के कारण आदिवासी बच्चे मर रहे हैं। ऐसे कई परिवारों की जीवन दशा को 'कुपोषण-1' कविता पेश करती है-
"बच्चे की शरीर की हड्डियाँ
सूखी हुई लकड़ी की तरह
मुँह पंछियों की चोंच की तरह हुआ
माँ मुँह में पानी डालती
बच्चा बूंद-बूंद से पानी पीता
घर में अनाज और
चावल का दाना नहीं था
इस स्थिति में माँ की आँखों से
आँसू बहने लगे।"
'संघर्ष', 'कुपोषण-2', 'आवाज', 'शिकार', 'गठरी' जैसी कविताएँ माँ का अपने बच्चों के प्रति प्रेम, आदिवासी महिलाओं को अपने बच्चों की भूख को मिटाने के लिए भाकरी के टुकड़े के लिए किस प्रकार से संघर्ष करना पड़ रहा है, कुपोषण से मरे हुए आदिवासी बच्चों को दफनाते समय माँ-बाप की दुःखद प्रतिक्रियाएँ और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हो रहा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को दिखाती हैं। 'दावानल' कविता आदिवासियों के विस्थापन के बाद उनकी संघर्षात्मक स्थिति का वर्णन करती है। 'मैंने देखा' कविता वर्तमान में हो रही चोरी-डकेती, अपने ही मिट्टी के साथ बेईमानी, खुलेआम रास्ते पर हो रहा बलात्कार जैसी घटनाओं का विरोध करती है। 'ये मकान' और 'बस्ती' जैसी कविताएँ आज के गाँव की जीवन जीने की शैली की विविधता को दिखाती हैं-
"श्मशान भूमि के नजदीक
रहने वाले
भूख और गरीबी से
जलने वाले
दुष्ट व्यवस्था के साथ दोस्ती
करने वाले
ये मकान'
'सिंहनी गर्जना' कविता आज की महिलाओं को पितृसत्तात्मक व्यवस्था से अपने पैरों की बेड़ियाँ तोड़कर सिंहनी जैसा जीवन जीने के लिए संदेश देती है। 'बाबासाहेब' कविता बताना चाहती है कि यदि भारत देश में स्वतंत्रता, समता और बंधुता को स्थापित करना है, तो भारतीय संविधान को सही तरीके से लागू करना होगा। तभी भारत एक मजबूत लोकत्रांत्रिक देश बन सकता है। 'सावित्री' और 'रमाई' जैसी कविताएँ फुले-अम्बेडकर के जीवन संघर्षों का वर्णन करती है। जैसे कि-
"सावित्री
तू ज्योतिबा की परछाई बनी
गरीबों की माऊली बनी तूने
स्त्रियों को पढ़ाया
जलकर नष्ट हो गया-
सती जाने वाली को रोका
विधवाओं को आधार दिया"
इस प्रकार से पंछी काव्य संग्रह की कविताएं आदिम व्यवस्था की जीवन संघर्ष की कहानी को व्यक्त करती हैं।