19 वीं शताब्दी के अंतिम दशकोत्तर आदिवासी साहित्य में विद्रोह के स्वर’
-दिलीप गिऱ्हे
भारतीय जमीन पर हजारों सालों से
जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले आदिवासी समाज की स्थिति कैसी हैं यह सवाल आज ‘आदिवासी साहित्य’ में ‘आदिवासी
विमर्श’ के रूप में सामने आ रहा है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर
ने संविधान में आदिवासी की पहचान ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में की है। उनकी अपनी विशिष्ट भाषा हैं,
संस्कृति है ,धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्ये भी है। उनकी
वेषभूषा और कार्यो को ध्यान में रखकर उन्हें अलग-अलग नामों से अभिहित किया गया है
वह नाम है ‘वनवासी’, ‘वन्य जमाति’, ‘आरण्यक’, ‘लंगोट्ये’, ‘धरती पुत्र’, ‘गिरिजन’, ‘वनपुत्र’ आदि नामों से
परिचित है। डॉ. धुर्ये ने उन्हें ‘aborigines’ (मूल निवाशी
)कहा है । डॉ. भाऊ मंडवलकर और डॉ. गोविंद गारे उन्हें ‘आदिम’ कहते है । श्रीमती कुसुम नारगोलकर और शाम नारगोलकर उन्हें ‘जंगल का राजा’ नाम से संबोधित कराते हैं। इन सभी
नामों से आदिवासियों की पहचान क्या है ,यह समझ में आ सकती
हैं ।
आदिवासी शब्द को समझने के लिए डब्ल्यू. जे. पेरी ने लिखा हैं
कि –“समान बोली बोलनेवाले एक ही भू-प्रदेश में रहनेवाले समूह को आदिवासी कहते हैं।”1 इस कथन से यह कह सकते है कि हर एक प्रदेश में आदिवासियों की एक समान बोली होती
है वह बोली उस क्षेत्र में ही सिमीत रहती हैं । आदिवासी समाज के लोकगीत ,लोककथा ,लोकनृत्य, के माध्यम
से अपनी सांस्कृतिक परम्परा की पहचान कराते हैं। इस समाज का लिपिबद्ध साहित्य
बहुत ही कम है। गिलीन और गिलीन के अनुसार –“एक विशिष्ट भू–प्रदेश में रहनेवाले ,समान बोली बोलनेवाले और समान सांस्कृतिक जीवन जीनेवाले ,जिन्हें अक्षरों की पहचान नहीं है ऐसे स्थापित समूहों के समुच्चय को
आदिवासी कहा जाता हैं।”2
19 वीं सदीं के अंतिम दशक के
दौरान ही आदिवासी साहित्य ज्यादा उभरकर
आता है । इसके पहले ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों का धर्म परिवर्तन किया जा
रहा था ,उन्हें ईसाई बनाया जा रहा था। माना जाता है कि हिंदुओं के देवता भगवान
शिव भी मूल रूप से एक आदिवासी देवता थे लेकिन आर्यों ने उन्हें देवता के रूप में
स्वीकार किया। आदिवासियों का जिक्र रामायण में भी मिलता है, जिसमें राजा गोदु और उनकी प्रजा चित्रकूट में श्रीराम की सहायता करते थे।
आज आधुनिक युग में बिरसा मुंडा एक प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी होकर चले गए । डॉ.
हरी राम मीणा उनकी कविता ‘खत्म होती हुई एक नस्ल’ में वे लिखते हैं कि –
“हमने
युगों –युगों से
खतरनाक
सूअरों से लोहा लिया
उन्हें
खूब छकाया
मगर
खरोंचों के अलावा
कोई
हादसा नहीं हुआ ”3
इसलिए कहा जाता है कि आदिवासी
प्राचीन काल से जंगलों में वास्तव्य करता आ रहा है। वह जंगलों में खतरनाक पशुओं
से सामना करता आ रहा है सूअरों जैसे पशुओं ने उन्हें बहुत सताया है लेकिन वह सूअर
भी आज उनके मित्र बन गए है। वह प्रकृति के हर हादसे का सामना कर रहे हैं प्रकृति
के हर हिस्से को वह देवता मानते है।
स्वतन्त्रता संग्राम में आदिवासी
जनजातियों ने खुलकर हिस्सा लिया लेकिन दु;ख के साथ
कहना पडता है कि इनके क्रांतिकारी इतिहास को नज़र अंदाज किया गया है। जनजातियों के
स्वतन्त्रता सेनानियों में बाबूराव शेडमाके, बिरसा मुंडा ,सिद्ध –कान्हु संथाल ,टंट्या भिल्ल,उमेड वासना, शंकर शहा आदि का नाम स्वर्णाक्ष्ररों
से लिखा जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गोंड राज्य के निर्माता गोंड राजा
एवं उनके सुपुत्र बल्लाल शहा जनजाति समुदाय के ही थे । अपनी मातृभूमि के रक्षा के
लिए मुग़लों से लड़ते रहे महिलाओं में मुग़लों से लड़ने वाली राणी दुर्गावती जनजाति ही
थी।
भारतीय आदिवासियों का अस्तित्व आज
खतरे में दिखाई दे रहा है। उनका सामाजिक ,आर्थिक ,धार्मिक व राजनीतिक शोषण हो रहा है। उनके विविध प्रश्न हैं ? लेकिन उनकी तरफ कोई भी ध्यान नहीं दे रहा है। सरकार भी उन्हें अपना
दुश्मन मान रही हैं और गोलीओं से भून रही है। उनके खिलाफ कवि डॉ. इंद्रबहादुर
सिंह उनकी कविता ‘आईना टूटा है मन का’
इसमे लिखते हैं कि –
“ये
पढ़े –लिखे लोग गाते बजाते है
जो
मिलता खा लेते है
लेकिन
पुलिस प्रशासन द्वारा
हर
स्तर पर
यह
धारणा बनायी जाती है
कि
ये लुटेरे है हत्यारे हैं
इसी
से पुलिस को साहस मिलता है
शौर्य
दिखाने का
आतंक
जमाने का ”4
आज पढ़े –लिखे लोग ही आदिवासियों
पर अन्याय–अत्याचार कर रहे है। उन्हें पुलिस प्रशासन भी चोर -लुटेरे कहकर जेल में क़ैद कर रही है और हमारी सरकार केवल देख रहीं है। असलियत यह है कि जो असली नक्सलवादी है वह पुलिस प्रशासन से बहुत दूर है और आदिवासी
लोग भोले –भाले होने के कारण उनके शोषण का शिकार होते है। उन्हें नक्सलवादी कहकर
एनकाउंटर किया जा रहा है। अस्सल में भारतीय संविधान ने मानव जाति को अपने–अपने
अधिकार दिये महादेव टोप्पो उनकी कविता में लिखते हैं कि –
“संविधान
की भाषा में हम
अनुसूचित
जाति या
अनुसूचित
जनजाति है
मनु
की भाषा में शूद्र
कम्युनिस्टों
की भाषा में शोषित
भाजपाइयों
की भाषा में
पिछड़े
हिन्दू
मैं
पूछता हूँ तुम सबसे
आखिर
इस देश में इस प्रजातन्त्र में
हम
क्या है हम क्या हैं। ”5
मानवाधिकार वे अधिकार हैं, जो हर व्यक्ति को जन्म से लेकर मृत्यु तक प्राप्त होने चाहिए मानवाधिकार
का अर्थ है जिंदगी,आज़ादी,बराबरी ,प्रतिष्टा और सम्मान का अधिकार। इसलिए मानव को जीवन जीने के लिए के यह अधिकार
बहुत ही जरूरी है। यह अधिकार संविधान ने सभी की बराबर दिए है।
आज वर्तमान समय में यह अधिकार
नष्ट होते हुए दिखाई दे रहे है।
भूमंडलीकरण के दौर में आज नया –नया परिवर्तन होता हुआ दिखाई दे रहा है। सूचना की
क्रांति ने नए –नए बदल लाये है। पूरे देश में आज नक्सलवाद यह मुख्य समस्या बनी है। भारत को हम भले ही एक समृद्ध विकासशील देश की श्रेणी में शामिल कर ले लेकिन यहाँ
आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से वंचित है दूर है कटे हुए है। इसका फायदा
उठाकर नक्सली उन्हें अपने जाल में फसाकर हिंसक कृति करने के लिए उन्हें मजबूर करते
है और देश की सरकार आज उन्हें ही नक्सलवादी घोषित कर रही है। आज आदिवासियों की
समस्या के बिना समझे ही योजनाएँ बनाई जा रही है वह योजनाएँ आदिवासियों तक आती ही
नहीं लेकिन योजना बनाने वाले जरूर फायदेमंद रहते हैं। इस विचार पर डॉ. विनय कुमार
पाठक कहते हैं कि “नक्सलवाद का सपना भगत सिंह का सपना ही है। नक्सलवाद अपराध
नहीं ,क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन है। नक्सलवाद सामाजिक जनवाद है और
अराजकतावाद के खिलाफ एक क्रांतिकारी जनवाद है।”6 इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि
नक्सलवादी प्रवृतियाँ क्यों पैदा होती है, इसके लिए कौन
जबाबदार है? इस प्रश्न का उत्तर यह सिद्ध होता है कि हमारी
सरकार का आज जो भ्रष्टाचार चल रहा है यही इसका मुख्य कारण है इसी भ्रष्टाचार को
देखते हुए आज का युवा वर्ग नक्सलवाद के रूप में सामने आ रहा हैं। इसे कौन जबाबदार
हैं ?
आदिवासी समाज इस समय दो पार्टियो
के बीच पिसता जा रहा है। एक तरफ नक्सलवाद तो दूसरी तरफ सरकारी महकमा। यह दोनों
पार्टियाँ मिलकर इनके जीवन पर दुष्कर्म के संकटे ला रही हैं। इन्द्र बहादुर सिंह
एक विद्रोही कवि होने के नाते वह पूरे देश में आदिवासी इलाके में बराबर घुमें है।
उत्तरांचल, मध्यप्रदेश,
छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के क्षेत्र में वह घुमे । इसलिए इन्होने उनके
जीवन को बहुत ही करीबी से देखा ,समझा ,जाना
और परखा। उनकी कविता ‘सिकंदर’ में वह
लिखते हैं कि –
“दहशत
के साये में
जीता
हूँ में रात –दिन
वे
मुझे रोंदना चाहते हैं
पर
में टूटता नहीं हूँ। ”7
आज दहशतवाद तो बाहरी समस्या मानी जाती है लेकिन
नक्सलवाद तो देश के कोने –कोने में आंतरिक
समस्या के रूप में सामने आ रहा हैं। यह प्रवृति आज देश को खोखला बना रही है। अगर
इस देश से आतंगवाद और नक्सलवाद को मीटाना है तो सबसे पहले हमारे सरकार को सुधारना
होगा तभी यह परिवर्तन हो सकता हैं। आदिवादी समाज की गरीबी उन्मूलन की बात कई
दिनों से हो रही है इसके बावजूद भी जनजातीय समाज ज्यों की त्यों बना रहा है। बेरोजगारी की समस्या कम होने की बजाय वह बढ़ती जा रही है। एक तरफ हमारी सरकार
‘अच्छे दिन आने वाले है’ की बाते कर रही
है। लेकिन यह अच्छे दिन गरीब मजदूर और किसानों के नहीं है यह दिन तो बिझनेस वाले
लोगों के है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति की बाद
आदिवासियों की व्यथा को देखा जाए तो वास्तविक रूप से उनकी व्यथा को कोई भी समझ
नहीं रहा है। विजय कुमार मड़ावी अपनी कलम के माध्यम से उनकी व्यथा को वह कागज पर
लिखते है वे कहते है की आदिवासियों के विकास के लिए विविध योजनाएँ शुरू की गई थी
लेकिन –
“न
जाने किसने चुरा ली सुविधाओं की मिठाई
जंगल
में रहा जंगल का राज
उनके
नाम पर लेकिन उड़ाए दूसरों ने मझे। ”8
विकास की योजनाओं को लेकर बात –चित
की जाए तो यह सारी योजनाएँ केवल कागजों पर ही रही है। आदिवासियों का दु;ख सिर्फ उन्हीं का रह गया है। भारत में आदिवासी समुदाय विभिन्न हिस्सों
बसा हुआ है इन जनजातियों के क्या प्रश्न है इसके बारे में दामोदर इलपाते कहते हैं
कि –“आदिवासियों तुम जागो !आलस्य मत करो !अपना हक्क को साबित करने के लिए एक साथ
अखंडता बनाई रखों !सामाजिक ,सांस्कृतिक पृष्टभूमि के रहने के
बावजूद आज कमजोर पड़ गए है । सिर्फ शिक्षा के माध्यम से अज्ञान दूर नहीं किया जा
सकता। उनमे वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी भरना होगा।”9 आदिवासी साहित्य में मराठी के
सुप्रसिद्ध आदिवासी कवि वाहरु सोनवने ने गोधड़ यह
काव्य संग्रह तब साहित्य में काफी हलचल मची थी। आदिवासियों के मन को
सावधान करता हुआ यह ‘गोधड़’ काव्य लिखा
संग्रह है। उनमे चेतना तथा परिवर्तन लाना है इस बात पर वाहरु सोनवणे कहतें हैं कि
–“गोधड़ काव्य संग्रह के जानकार गलत अर्थ लगाते हैं। यह गोधड़ आदिवासियों की वेदना–व्यथा
की गोधड़ नहीं है बल्कि सड़ी और कटी हुई समाज व्यवस्था की गोधड़ है । उसे बदलने का
समय भी आ गया है। ”10 आज देश को आजाद हुए लगभग 67 साल हो गए है फिर भी आजादी की
सूरज की किरणें आदिवासियों और दलितों के छपरों तक अभी तक नहीं पहुची हैं। आज भी
उन्हें जिन के लिए संघर्ष करना पड़ता है। समाज के सेठ बनिया अपने फायदे के लिए
उनका इस्तेमाल कर रहे है इस वक्तव्य पर वामन शेडमाके कहतें हैं कि –
“हे
वनपुत्रों ,यहाँ जीवन
सजाना
पड़ता है
आँख
को मृत्यु की दिशा
दिखाकर
। ”11
इसलिए वनपुत्रों आज तुम्हें विद्रोह और
क्रांति का मार्ग अपनाकर अपने हक्क या अधिकार माँगने नहीं पड़ते बल्कि छीनने पड़ते
है। इस क्रांति का फूल उगाने वाले कवियों और कार्यकर्ताओं का निर्माण होना आज की
जरूरत बन गई है। आदिवासियों को उनके वनवास से अगर मुक्ति पानी है तो क्रांतिकारी
कदम उठाने पड़ेंगे। मराठी के विद्रोही कवि भुजंग मेश्राम ने ‘उलगुलान’ यह विद्रोही काव्य संग्रह लिखा वह उसमे
लिखते है कि –“उलगुलान का अर्थ है सभी क्षेत्रों ने एक समय ही जन –उभार पैदा करना। बिरसा मुंडा के आंदोलन के कार्यक्रम का यह नारा था । बिरसा मुंडा ने सभी स्तरों
पर इसका इस्तेमाल किया। ‘उलगुलान’
मेरी कविता का शीर्षक है क्योकि मेरी कविता सभी स्तरों पर पहुँचती हैं। संवाद
करती है जिनमे डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर और म. फुले के विचारों से प्रेरणा लेकर लिखने
लगा हूँ यह वर्ष क्रमश: इनका जन्म शताब्दी वर्ष और स्मृति शताब्दी वर्ष है कवि
दोनों महापुरुषों को विनम्र अभिवादन करते ह।”12
इस तरह से आज का आदिवासी साहित्य एक तरह से विमर्श का विषय बन गया है आज के युवा कवि साहित्य के माध्यम से आज समाज को जागृत करने का काम कर रहे है। 1990 के बाद जो भी समाज में नए–नए बदल नए–नए परिवर्तन आए है वह भूमंडलीकर के कारण हुए है।
1१ पाठक डॉ. विनय कुमार .(2006).अम्बेडकरवादी सौंदर्य –शास्त्र और दलित आदिवासी –जनजातीय विमर्श. नई दिल्ली.नीरज बूक सेंटर . पृ. 606
2२ वही.
पृ . 606
3३ सं.
गुप्ता रमणिका. (2008). आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी . नयी दिल्ली . वाणी प्रकाशन.
पृ.28
4४ पाठक डॉ. विनय कुमार .(2006).अम्बेडकरवादी सौंदर्य –शास्त्र और दलित आदिवासी –जनजातीय विमर्श. नई दिल्ली.नीरज बूक सेंटर . पृ. 6२५
5५ सं.
गुप्ता रमणिका. (2008). आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी . नयी दिल्ली . वाणी प्रकाशन.
पृ. 49
6६ पाठक
डॉ. विनय कुमार .(2006).अम्बेडकरवादी सौंदर्य –शास्त्र और दलित आदिवासी –जनजातीय
विमर्श. नई दिल्ली.नीरज बूक सेंटर . पृ. 638
7७ वही
. पृ. 643
8८ सं.
गुप्ता रमणिका.(2008). आदिवासी साहित्य यात्रा . नयी दिल्ली. राधाकृष्ण प्रकाशन .
पृ . 56
9९ वही . पृ.57
1१० वही
. पृ. 57
1११ वही
. पृ. 63
1१२ वही
. पृ. 62
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