रविवार, 24 मार्च 2024

आदिवासी मिथक (Aadiwasi mithak ke bare mein jankari)

आदिवासी मिथक 

                                        -Dr.Dilip Girhe 

 


         कँवल भारती मिथक को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि “मिथक पौराणिक कहानियों को कहते हैं।”[1] मिथक पौराणिक कहानियों से जुड़े होने के कारण ऋग्वेद से लेकर रामायण एवं महाभारत जैसे कई ग्रंथों में मिथकीयता के विविध तत्त्व दिखाई देते हैं। जैसे रामायण, महाभारत और मार्कण्डेय पुराण में क्रमशः रावण, एकलव्य और महिषासुर जैसे आदिवासी मिथकों की कहानियाँ दिखाई देती हैं। मिथकों को मानव जाति समूह का स्वप्न एवं सामूहिक अनुभव भी कहा जाता है। मिथक पौराणिक घटनाओं की आस्था है तो स्वप्न एक प्रतिकाल इच्छा की अभिव्यक्ति है। डी. डी. कोसंबी मिथक को लेकर अपनी बात कहते हैं कि “दुनिया में जितने भी धार्मिक विश्वास प्रचलित हैं उन सबमें उनके आदिम तत्त्व बचे रह गए हैं।”[2] आदिम तत्त्व में प्रचलित धार्मिक विश्वास ही मिथक निर्माण में सहायक हैं। इन तत्त्वों में ही सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विरासत दिखाई देती है।

आदिवासी मिथकों में झारखंड के जनजातीय समूहों ने विविध सृष्टि विषयक मिथक बताए हैं। ये मिथक 19 वीं सदी में चार्ल्स डार्विन के जैवीय विकासवादी सिद्धांत से जुड़े हुए हैं। लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि इन सभी मिथकीय सृष्टि की जड़ें प्रागैतिहासिक काल से जुड़ी हुई हैं। मिथक आदिवासी विकास की प्रक्रिया को हमेशा तलाशते रहते हैं। अत: मिथकों से उस समाज या समुदाय की मानसिकता का पता चलता है। झारखंड के आदिवासियों में संताल, मुंडा, हो एवं उराँव समूहों ने सृष्टि विषयक विविध मिथक बताए हैं। इन्हीं मिथकों के आधार पर उस समुदाय की वैचारिकी का भी अध्ययन किया जा सकता है। आदिवासी लोककथाओं में भी विविध मिथक पाए जाते हैं। लोक कथा का आदि स्त्रोत भारतीय साहित्य की पौराणिक लोक कथाओं में पाया जाता है। आदिवासी लोक कथाओं के माध्यम से उनके जन्म, रहन-सहन, पहनावा, नृत्य, संगीत, अस्मिता, संस्कृति और उनकी सामाजिक व्यवस्था का अवलोकन कर सकते हैं। इन मिथकों में आदिवासियत के विश्व तत्त्व एवं प्रकृति दर्शन के बीज दिखाई देते हैं। इन्हें दर्शनशास्त्र के दृष्टिकोण से भी विश्लेषित किया जा सकता है। मिथक के बारे में पद्मजा जैन कहती हैं कि “किस प्रकार उस सर्वोच्च ईश्वर, हरम या सिंगबोंगा ने पृथ्वी वनस्पति जगत, मानव और पशुओं की सृष्टि की तथा किस तरह प्रकृति में निवास करने वाली आत्माओं, मानव और जड़ प्रकृति में एक जैवीय सामंजस्य है।”[3] 

सृष्टि निर्माण के बारे मे ‘हो’ तथा ‘मुंडा’ जनजातीय समूह ‘सिंगबोंगा’ या ‘हरम’ कहकर संबोधित करते हैं। संताल और उराँव में ‘ठाकुर’ या ‘धर्मेश’ कहते हैं। ‘हो’ जनजाति सृष्टि मिथक के बारे में कहती हैं कि “पृथ्वी की सृष्टि पहले हुई फिर ईश्वर ने इसे घास, वृक्ष, चट्टानों और जल से आच्छादित किया। इसके पश्चात् पालतू एवं जंगली पशुओं की सृष्टि हुई। अंत में सिंगबोंगा ने एक छोटे लड़के और एक छोटी लड़की की सृष्टि की। उन दोनों के वयस्क हो जाने पर भी संतानोत्पत्ति की कोई आशा न देखकर सिंगबोंगा ने उन्हें इलि (हँड़िया) बनाने की कला सिखाई जिसे पीकर वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हुए और संतानोत्पत्ति के लिए प्रेरित हुए।”[4] दूसरी ओर मुंडा समुदाय का सृष्टि मिथक यह कहता है कि “जब पृथ्वी पर चारों ओर जल था, हरम ने सबसे पहले जल में रहने वाले प्राणियों की सृष्टि की। फिर उन्होंने क्रम से पहले केकड़े, फिर कछुए और अंत में केंचुए को जल के नीचे से थोड़ी मिट्टी लाने को भेजा। इन तीनों में केवल केंचुआ ही थोड़ी मिट्टी लाने में सफल हुआ। हरम ने उसे बढ़ाकर सूखी धरती बनाई। उसके ऊपर सभी प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, पौधे, वृक्ष और पशुओं की सृष्टि की। तत्पश्चात मिट्टी से मानव की एक प्रतिकृति बनाई। लेकिन इसके पहले कि हरम उसमें ‘जी’ (जीवन) का संचार कर पाते, घोड़े ने उस मिट्टी की मूर्ति को टुकड़ों में खंडित कर दिया। तब हरम ने पुनः दूसरी मूर्ति बनाई और उसमें चेतना का संचार किया। घोड़ा पुनः उस मूर्ति को तोड़ने के लिए दौड़ा लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पाया क्योंकि बाघ ने उसे खदेड़ दिया। मनुष्य की सृष्टि के बाद हरम ने उसे ज़मीन जोतने के लिए हल दिया। फिर उसने काल का विभाजन किया। मनुष्य को विश्राम देने के लिए रात बनाई, रोशनी देने के लिए चाँद।”[5] ‘हो’ और ‘मुंडा’ जनजातियों के मिथकों में समानता दिखाई देती है। यहाँ पर सिंगबोंगा को मनुष्य ‘दादा’ कहकर पुकारते हैं तो मुंडा जनजातियों में उन्हें ‘पोते-पोती’ कहकर पुकारते हैं। संताल जनजाति का मिथक यह कहता है कि “ठाकुर जिउ ने पहले जल में रहने वाले प्राणियों की सृष्टि की फिर उसने मिट्टी की दो मूर्तियाँ बनाई लेकिन पहले कि वह उनमें प्राणों का संचार कर पाता ऊपर से घोड़े ने आकर उन्हें टुकड़ों में खंडित कर दिया। तब ठाकुर ने पक्षी बनाने का विचार किया लेकिन इस बार मिट्टी से नहीं। उसने अपने ह्रदय के तत्त्वों से ‘हास’ और ‘हासिल’ (राजहंस) की एक जोड़ी बनाई। ठाकुर ने उन पर साँस छोड़ी और वे जीवित होकर ऊपर उड़ गए। लेकिन चारों ओर जल ही जल था अत: उन्हें बैठने की कोई जगह नहीं मिली। इसलिए वे सदा ठाकुर के हाथ पर ही बैठते थे। पानी पीते समय घोड़े ने अपने मुहँ से थोड़ा फेन गिरा दिया। ठाकुर ने उन्हें उस फेन पर बैठने को कहा। तब ठाकुर ने क्रम से मगर, मछली, केकड़े तथा केंचुए को जल के नीचे से थोड़ी मिट्टी लाने भेजा। इसमें केवल केंचुआ ही कछुए की मदद से इतनी मिट्टी आने सफल हुआ जिससे यह पृथ्वी बनी। फिर ठाकुर ने पहाड़ों, सब प्रकार की वनस्पतियों पौधों और वृक्षों की सृष्टि की। उन दो पक्षियों ने दो अंडे दिए जिनसे दो मनुष्यों एक लड़का और एक लड़की का जन्म हुआ। उनका नाम था ‘हरम’ और ‘आयो’ या पिलकु हरम और पिलकु बुडी। ठाकुर के आदेश पर पक्षी उन्हें हिहिरि पिपिरि ले गए। जब वे बड़े हुए तो लोटा (या ‘मारान बुरु’ संथालों के प्रधान देवता) ने उन्हें हँड़िया बनाना सिखाया जिसे पीकर उन्होंने मानव संतति बढ़ाने की दैवी इच्छा पूर्ण की। इसके पश्चात् मिथक में विस्तार से उनकी संतानों से उनकी विभिन्न किलियों की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है।”[6] उराँव जनजाति का मिथक यह कहता है कि “उराँव मिथक में नागे-एरा की जगह पर पार्वती ने अग्नि-वर्षा के समय केकड़े के बिल में एक पुरुष और एक महिला को छिपा दिया। जब धर्मेश का रोष ठंडा हो गया तो उसने उन्हें ढूँढ़ निकाला, उन्हें कृषि-कार्य सिखाया तथा उन्हें मेलवा और डंडा कट्टा पूजा करने एवं उसे (धर्मेश को) अंडा निवेदित करने का आदेश दिया। इसी जोड़े से मानव संतति का विकास हुआ।”[7] असुर जनजाति के लोक कथाओं में ‘देवदूत असुर’ की कथा कहती है कि “प्राचीन काल में स्वर्ग में देवदूत रहते थे। वे भगवान के आदेश से ही सिंगबोंगा के विभिन्न कार्यों का संपादन करते थे। एक दिन देवदूत स्वर्ग में लगे एक विशाल आईने में जाकर वे अपने रूप-रंग देखने लगे उन्हें उनका रूप-रंग भगवान से भी आकर्षक लगा। इसका वे गर्व महसूस करने लगे। तब से उन्होंने सोचा कि हम भगवान से भी आकर्षक हैं तो हम भगवान की दास सेवा क्यों करें। वे भगवान को अपने समान मानने लगे। भगवान को उनके इस आचरण से बहुत गुस्सा आया। फिर भगवान ने आदेश दे दिया कि इन्हें स्वर्ग से नीचे फेंक दिया जाए। फिर वे पृथ्वी पर एकासी पीढ़ी और तेरासी बांदी पर आकर गिर गए। इसी क्षेत्र में उन्हें लोह खनिज मिला। तब से वे वहाँ पर बड़ी-बड़ी भट्टियाँ लगाकर लोहा गलाकर लोहे से बनने वाले अनेक अवजारों को बनाने लगे। इस तरह से उन्हीं देवदूतों का नाम असुर पड़ गया। वे तब से लेकर आज तक भगवान की सेवा छोड़कर लोहा गलाने का काम करते आ रहे हैं और आज समाज में देवदूत की जगह पर असुर कहे जा रहे हैं।”

महाराष्ट्र की कोरकू जनजाति की कथा में ‘खम्म की कथा’ बहुत ही प्रसिद्ध है। यह कथा एक विधिनाट्य के रूप में भी यथावत है। कोरकू जनजाति इस कथा को परंपरागत पद्धति से प्रस्तुत करती है। इस कथा के माध्यम से कोरकू लोग अपने ऊपर हुए अन्याय-अत्याचार की कहानी बताते हैं। इस कथा में मेघनाद का वर्णन किया गया है। यह कथा इस प्रकार है-“एक समय में कोरकू जनजातियों पर एक राक्षस बहुत ही अन्याय-अत्याचार करता था। इससे त्रस्त होकर कोरकू जनजातियों ने महादेव से विनती की कि उस राक्षस को ख़त्म किया जाए। तब महादेव ने अपना भक्त रावण को इस अन्याय-अत्याचार की जानकारी दे दी। उसी समय आदिवासी राजा रावण ने अपने सेनापति मेघनाद को आज्ञा दी और मेघनाद ने उस राक्षस के साथ युद्ध करके उसका वध कर दिया और कोरकू जनजातियों का रक्षण किया।” इसलिए कोरकू जनजाति तब से लेकर आज तक ‘खम्म’ के रूप में मेघनाद की पूजा करने लगी। खम्म का यह त्योहार वे सितम्बर से अक्तूबर माह के बीच मनाया जाता है। इस प्रकार कई आदिवासी लोक कथाओं में आदिवासी जीवन की वास्तविकताओं का वर्णन मिलता है। इस प्रकार सृष्टि निर्माण की अवधारणा में आदिवासी मिथकों का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। इस तरह से मिथक दो संस्कृति के टकराव के द्योतक होते हैं। इसलिए अपने-अपने इतिहास को जानने के लिए मिथकों को समझाना ही आवश्यक है। आज का दौर विमर्शों का दौर होने के कारण आज गहन अध्ययन के पश्चात् मिथकों का इतिहास सामने ला रहे हैं। इन्हीं मिथकों में उस समाज की सभ्यता, अस्मिता, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिकता के विविध तत्त्व छुपे हुए हैं।



[1] कँवल, भारती https://www.facebook.com/kanwal.bharti/posts/10203725625938390

[2] कोसंबी, दामोदर धर्मानंद. (1977). मिथक और यथार्थ (अनुवाद-नंदकिशोर नवल). दिल्ली : भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद. पृ. 1

[3] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 556   

[4] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 556

[5] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 557

[6] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 558  

[7] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 558  

3 टिप्‍पणियां:

Pallavi Satpute ने कहा…

Sahi hai..

Sukanya D. Girhe ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Sukanya D. Girhe ने कहा…

Sahi hain