आदिवासी जीवन संघर्ष और उसकी अवधारणा
आदिवासी का वास्तविक जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ। उसका जीवन बसर ही प्रकृति के हर एक घटक से समाहित है। इसीलिए आदिवासी का जीवन देखा जाये तो एक प्रकार से आनंदमय माना जाता है। किन्तु जब से बाहरी घुसपैठियों ने प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना शुरू किया तब से आदिवासी के जीवन में अनेक संघर्ष के मोड़ पैदा हुए। वास्तविक रूप से यह उनके जीवन संघर्ष का मूल कारण बन गया है। जो अब तक रुकने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसी संघर्ष को आदिवासी कवियों ने साहित्यिक रूप में बदल दिया है। जो आज आदिवासी विमर्श के रूप में चर्चा का मुद्दा बन गया है। साथ जब जब आदिवासी अपनी रोटी कपड़ा मकान इन बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहा है तब तब उसके जीवन में संघर्ष दिखाई देता है। भारत में आदिवासी सभ्यता का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और यह सभ्यता सिंधु घाटी की सभ्यता से जुड़ी रही है। यही कारण है कि आदिवासी के उद्भव एवं विकास का अध्ययन करते समय इसे जानना आवश्यक है। मानव वैज्ञानिकों ने नस्ल के आधार पर मनुष्य के चार प्रकार माने हैं, जिसमें नीग्रो, रेड इंडियन, काकेशियन और मंगोलाईट हैं। प्रथम प्रकार के ‘नीग्रो’ लोग भारत, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और यूरोप के पूर्व भागों में पाए जाते हैं। यह क्षेत्र ‘पेंजिया’ भूखंड नाम से जाना जाता है। इसी क्षेत्र के लोग द्रविड़ियन वंश यानी अनार्य वंश के हैं। दूसरे प्रकार के लोग ‘रेड इंडियन कहलाते’ हैं, इन्हें अमेरिकन कहा जाता है। ये लोग लाल रंग के होते हैं, इसलिए इन्हें रेड इंडियन भी कहा जाता है। ऐसा विदित है कि जब कोलंबस भारत की खोज के लिए निकला था, तब वह गलती से भारत की जगह अमेरिका में पहुँच गया और उन्होंने वहाँ के लोगों को भारतीय लोग समझकर रेड इंडियन कहने लगा। तीसरा प्रकार है ‘काकेशियन’ इन्हें गोरे लोग कहा जाता है। इसके तीन उप प्रकार हैं, जिसमें हेमेटिक, सेमेटिक और इंडोजर्मन। हेमेटिक में इजिप्त के लोग हैं। सेमेटिक में अरबी, यहूदी, बबेलोशियन के लोग आते हैं। इंडोजर्मन में इंग्लैंड, फ़्रांस, जर्मनी, ईरान, रूस आदि देशों के लोग हैं। चौथा प्रकार है ‘मंगोलाईट’ ये लोग पीले रंग के होते हैं। इसमें चीन, जापान, मंगोलिया आदि देशों के लोग हैं। काकेशियन प्रकार में आर्य लोग हैं। जबकि नीग्रो व मंगोलाईट प्रकार में अनार्य लोग हैं। आर्य-अनार्य संस्कृति से आदिवासी की अवधारणा जुड़ी हुई है। इस संदर्भ में यह तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है कि “भारत में सबसे पहले ज्ञात आदिवासी समूहों की भूमिका को निश्चित करने के लिए हमें सर्वप्रथम पृष्ठभूमि के रूप में सिंधु घाटी सभ्यता के पतन तथा भारत भूमि पर आर्यों के आगमन का संक्षिप्त पुनर्निरीक्षण करना होगा।”[1] आर्य ईरान से भारत में ई. स. पूर्व 1750 से ई. स. पूर्व 1500 के दौरान उत्तर भारत में आए। बल्कि अनार्य प्राचीन काल से इसी देश में रहते आए हैं। गोकुळदास मेश्राम कहते हैं कि सिंधु संस्कृति के लोग नागवंशीय थे। वे आदिवासी समुदाय का कुलचिह्न ‘टोटम’ (totam) बताते हैं। हॉबेल ‘टोटम’ के बारे में कहते हैं कि “टोटम ही अशी वस्तू आहे की जी बहुधा पशु किंवा वनस्पती असते ज्यांच्या प्रती एका सामाजिक समूहाचे सदस्य विशेष श्रद्धा ठेवतात आणि त्यांना असे वाटते की त्यांच्या टोटममध्ये भावात्मक समानतेचे एक विशिष्ट बंधन आहे.”[2] (टोटम यह एक ऐसी वस्तु है, जो बहुधा वनस्पति है जिसके प्रति सामाजिक समूह के सदस्य विशेष श्रद्धा रखते हैं और उन्हें लगता है कि टोटम के साथ भावात्मक बंधन है।) आदिवासी संस्कृति में आज भी टोटम बहुत प्रसिद्ध है। द्रविड़ियन लोगों के टोटम नाग थे इसलिए वे अपने आप को नागवंशीय मानते हैं। भारत में द्रविड़ियन भाषा परिवार में गोंड, कोरकू, बैगा, संताल, मुंडा, बोड़ो आदि जनजातीय समूह हैं। ये सब नागवंशीय होने के कारण नाग को पूजते हैं। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर अपने ग्रंथ ‘the untouchables who are they why they became untouchables’ में उनका मानना है कि नाग और द्रविड़ एक ही जनसमूह के दो भिन्न नाम हैं।
भारतीय भूतल पर हजारों वर्षों से अनार्य रहते आ रहे हैं। यद्यपि आर्यों ने विदेश (ईरान) से आकर उन्हें पराजित करके वर्चस्व स्थापित किया है। आर्य विदेशी थे, इस बात पर अनेक विद्वानों ने अपने-अपने मत दिए हैं। मेक्समूलर आर्यों का मूलस्थान मध्य एशिया के ईरान का उत्तरी व कास्पियन समुद्र का पूर्व भाग मानते हैं। दूसरी ओर बाल गंगाधर तिलक आर्यों का मूलस्थान ‘उत्तरी ध्रुव’ मानते हैं। प्राचीन काल में जो वर्ण व्यवस्था थी, वह वर्ण व्यवस्था वर्तमान में भी मौजूद है। इसी वर्ण व्यवस्था के आधार पर आर्य-अनार्य संघर्ष की संकल्पना को समझा जा सकता है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ पुस्तक में लिखा है ‘आर्य वायव्य दिशा से समुद्र की लहरों जैसे एक के बाद एक आए।’ जब आर्य भारत में आए तब उन्होंने भारतीयों के साथ लगभग एक हजार वर्ष तक अच्छे संबंध बनाए रखे और बाद में उनके साथ युद्ध करके, उन्हें परास्त कर अपना गुलाम बनाया। उन पर अन्याय-अत्याचार किए। जो लोग गुलाम बनना नहीं चाहते थे, उन्हें जंगलों, पहाड़ों में खदेड़ दिया गया। जिन लोगों को खदेड़ा गया था, वे लोग आज के आदिवासी हैं और जो लोग गुलाम बन गए, वे आज के दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक लोग हैं। ये सब बातें हम उपरोक्त ऐतिहासिक संदर्भों से समझ सकते हैं। प्र. रा. देशमुख अनार्य लोगों को ‘आर्य पूर्व लोग’ कहते हैं। इस आर्य पूर्व लोगों को यानी की अनार्य को दास, दस्यु, अही, पिशाच, असुर, दानव, राक्षस, वनवासी, द्रविड़, पणि आदि ऐसे कई नामों से संबोधित किया गया। आर्यों ने अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्वेद जैसे वेदों का निर्माण किया। इसका प्रमाण ऋग्वेद संहिता में ‘आर्य’ शब्द का बार-बार प्रयोग आने से प्राप्त होता है। ऋग्वेद आर्यों का सबसे पुराना ग्रंथ है। इस ग्रंथ के गहन अध्ययन के बाद सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा विनाश के कारणों को समझा जा सकता है। गोकुळदास मेश्राम कहते हैं कि “ऋग्वेदावरून हे स्पष्ट दिसते की आर्य भारतात आल्यावर त्यांनी एकदम सिंधु शहरांचा विनाश केला नाही, त्यांनी तिथे ब्रह्मचर्याची ई. स. पूर्व 3102 मध्ये स्थापना केल्यानंतर दीर्घकाळ पर्यंत वास्तव्य केले व त्यानंतर सिंधुसंस्कृतीचा विनाश केला.”[3] (ऋग्वेद से यह स्पष्ट होता है कि आर्य भारत में आने के बाद उन्होंने तुरंत सिंधु घाटी शहरों का विनाश नहीं किया। बल्कि उन्होंने वहाँ ई. स. पूर्व 3102 में ब्रह्मचर्य की स्थापना की और दीर्घ समय के बाद सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश किया।) इन सभी बातों से आदिवासी सभ्यता की अनेक आश्चर्यजनक चीजें सामने आती हैं, जिसके माध्यम से आदिवासी समुदाय का उद्भव एवं विकास समझने में मदद हुई। कुछ समय बीतने के बाद ‘आदिवासी’ शब्द के लिए समाजशास्त्रियों, मानववैज्ञानिकों एवं साहित्यकारों आदि ने कई पद्धतियों से विश्लेषित, परिभाषित करने का प्रयास किया है। जिसे निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है:-
‘आदिवासी’ शब्द ‘आदि’ उपसर्ग और ‘वासी’ प्रत्यय से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है आदिकाल से निवास करने वाला समूह। आदिवासी को मूलनिवासी भी कहा जाता है। हट्टन इन्हें ‘आदिम जाति’ के नाम से अभिहित किया है। आदिवासी को अंग्रेजी में ‘ट्राइब’ कहा जाता है। इस शब्द के कई समानार्थी शब्द बताए गए हैं। जैसे- आदिम (प्रिमिटिव), देशज (इंडिजीनस), देशी जातियाँ (ऐबोरिनल), आरंभिक निवासी (ओरिजिनल सटेलर्स), मूलनिवासी (नेटिव), भोला-भाला (नैव), जंगली (सेवेज), असभ्य, असुर, दानव, वन्यजाति (डिप्रेस्डक्लासेज) आदि। इन सभी शब्दों के अतिरिक्त वर्तमान में हिंदी साहित्यकार ‘आदिवासी’ या ‘जनजाति’ शब्द का प्रयोग करते हैं। आदिवासियों को भारतीय संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में पहचान मिली है। उपर्युक्त शब्दों में से अंग्रेजी के शब्द oboriginal, primitive, savage शब्द के माध्यम से आदिवासी समुदाय को ‘पिछड़ा वर्ग’ दर्शाया गया है।
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संदर्भ:
[1] हसनैन, नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृ. 4
[2] मेश्राम, गोकुळदास. (2006). आदिवासी सिंधुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म. पुणे : सुगावा प्रकाशन. पृ. 10
[3] मेश्राम, गोकुळदास. (2006). आदिवासी सिंधुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म. पुणे : सुगावा प्रकाशन. पृ. 110
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