सोमवार, 18 मार्च 2024

समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में वैचारिक चुनौतियाँ (विशेष संदर्भ : माधव सरकुंडे की कविताएँ) SAMKALIN MARATHI AADIWASI KAVITAON MEIN VAICHARIK CHUNOUTIYA : MADHAV SAUKINDE KI KAVITAYEN

       


     समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में                              वैचारिक चुनौतियाँ

(विशेष संदर्भ : माधव सरकुंडे की कविताएँ)

समकालीन कविता का दौर 1960 से माना जाता है। 1960 से लेकर अब तक मराठी आदिवासी कविताओं में संघर्ष की विविध चुनौतियाँ दिखाई दे रही हैं। मराठी अदिवासी कविताओं में अब तक का इतिहास देखा जाए तो इसमें 1962 में सुखदेवबाबू उईके ने ‘मेटा पुंगार अर्थात पहाड़ी फूल’ भाग 1 व 2 कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन्हीं काव्य संग्रहों से आदिवासी कविता लेखन का प्रारंभ हुआ। 1976 में भुजंग मेश्राम का ‘आदिवसी कविता’ काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। यह कविता संग्रह गोंडी भाषा में लिखा है। महाराष्ट्र के विदर्भ का पहला कविता संग्रह माना जाता है, इसलिए इसे भाषा की दृष्टि से अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। इसके बाद एक-एक कवि सामने आए हैं। इसमें डॉ. उत्तमराव घोंगडे-वनवासी (1982), डॉ. विनायक तुमराम- गोंडवन पेटले आहे (1987), वाहरु सोनवणे- गोधड (1987), भुजंग मेश्राम- उलगुलान (1990), रवि कुलसंगे- इंद्रीयारण्य (1990), पुरुषोत्तम शेडमाके-वनसुर्य (1990), प्रा. वामन शेडमाके-जागवा मने पेटवा मशाली (1991), उषाकिरण आत्राम-म्होरकी (1997) व लेखानीच्या तलवारी, प्रा. माधव सरकुंडे- मनोगत, रामचन्द्र जंगले–धिक्कार (1997) व धरणाच्या भिंती (1997), दत्तात्रय भवारी- मनोगत (1973), डॉ. गोविंद गारे-अनुभूति (1994), सुनील कुमरे- तिरकमठा (1999), कृष्णकुमार चांदेकर-पतुसा(1999), सौ.कुसम आलाम-रानपाखरांची माय (2000), वसंत कन्नाके- सुक्का कुसुम, डॉ. संजय लोहकरे- आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश व पानझडी, वसंत कुलसंगे– अस्मितादर्श (2000), तुकाराम धांडे–वळीव (2002), सुरेश धनवे-जखम (2007), गोपाल आडे- जंगलकुस व लढा, चामुलाल राठवा- माझी सनद कोठे आहे (2004), वाल्मिक शेडमाके- मी उद्ध्वस्त पहाटतेचा शुक्रतारा (2001), सं. डॉ. विनायक तुमराम-शतकातील आदिवासी कविता (2003), दा. मु. सिडाम- कारम मिरसिन (2004), डॉ. गोविंद गारे– आदिवासी मुलांची गोड गाणी (2004), रा.चि जंगले– इखारलेल्या तलवारी (2006), डॉ . नरेन्द्र कुलसंगे- आदिम सुगंध युक्ता (2007), रा. चि. जंगले -विरप्पा गोंड (2007), सौ. रेखा किसन डगळे- वेडी पाशिनी (2008), प्रेरणा कनाके-गया (2008), भुजंग मेश्राम-अभुज माड (2008), बाबाराव मडावी-पाखरं (2009), माधव सरकुंडे-मनोगत, मी तोडले तुरुंगाचे दार, चेहरा हरवलेली मानसं व ब्लक इस ब्यूटीफूल (2009), रा. चि. जंगले -पाउसपानी (2010), लक्ष्मण टोपले-आरड गे बाई (2010), मारोती उईके-गोंडवनतला आक्रंद (2010), डॉ. विनायक तुमराम-रानगर्भातील जखमा (2011), विट्टलराव कनाके–भ्रमररुंजन (2011), शंकर  बळी- ही वाट तिथून जावी (2011) आदि कवियों के कविता संग्रह प्रमुख हैं इन सभी कविताओं में आदिवासी संस्कृति, अस्मिता और उनका अस्तित्व दिखाई देता हैं।

       समकालीन मराठी आदिवासी कविताओं में लेखक प्रा. माधव सरकुंडे का नाम बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है, इन्होंने कविता विधा में मनोगत, रानपाखरांची संसद, मी तोडले तुरुंगाचे दार (2011), चेहरा हरवलेली मानसं (2015) इत्यादि काव्य संग्रहों का लेखन किया हैं। ‘ब्लैक इस ब्यूटीफुल’ इस काव्य का अनुवाद भी किया है। बावजूद इसके उनके वैचारिक ग्रंथों में ‘सल’, ‘धनगर आदिवासी नाहीत’, ‘आदिवासी अस्मितेचा शोध’, आदि महत्वपूर्ण हैं। उपन्यास और कहानी लेखन में ‘वाडा’ उपन्यास है तो ‘सर्वा’ और ‘ताडमं’ ये उनके कहानी संकलन हैं। वर्तमान में ‘शिक्षण राजकारण आणि धर्म’, ‘आदिनायक बिरसा मुंडा’ और ‘एका शाळा बाह्य मुलांची गोष्ट (आत्मकथा) पर लेखन कार्य जारी है। उन्होंने ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ काव्य में शोषित व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी कलम की प्रतिरोधकता दिखाई है। आज भारत को स्वतंत्रता के 70 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन जो परिस्थितियाँ उस समय थीं वह परिस्थितियाँ आज भी बहुतांश मात्रा में दिखाई दे रही हैं। इस कविता संग्रह में ‘बंधुनों’, ‘तुम्ही ठरावा’, ‘मैलाचा दगड’, ‘ज़र असेल काळजात तर ठोका’, ‘बिरसा’ यह उनकी लंबी कविताएँ हैं। बावजूद इसके 14 कविताएँ लघु हैं। प्रा. माधव सरकुंडे आदिवासी लेखक होकर भी वे अपने विचार बुद्ध, फुले, शाहू और अम्बेडकर के विचारों से जोड़ते हैं। प्रा. डॉ. अशोक काम्बले उनके संदर्भ में कहते हैं ‘वादळाचा वेध घेणारा कवी’ (तूफ़ानों का अंदाजा लगाने वाला कवि)। तो प्रा. अशोक खंदारे कहते हैं ‘परिवर्तानाच्या लढ्याचे रानाशिग’ (परिवर्तनात्मक लड़ाई के कर्णधार)। आज आदिवासी साहित्य पर लेखन करने वाले आदिवासी साहित्यकार बहुत ही कम हैं।

अर्थात् कविता के कई रूप होते हैं, इसलिए कविता के रूपों को विविधांगी कहें तो कोई संदेह नहीं है। कविता की प्रवृतियाँ सामाजिक परिवेश को देखकर बदलती रहती हैं। इसलिए कविता एक रूप में समाहित न होकर वह कई रूपों में बिखरती है। वह कभी पिता बनकर गुस्सैल बन जाती है तो कभी माँ बनकर ममता भरा प्यार दिखाती है। कविता समाज के भविष्य के बारे में सोचती है और थके हुए समाज को प्रेरित करने का काम करती है। इसी कारण कविता कभी किसी के सामने झुकती नहीं और सत्ता के सामने तो बिलकुल भी नहीं झुकती है। वह समाज का दीपस्तंभ बनकर हमेशा उजाले का रास्ता दिखाती रहती है। इन सभी पक्षों को लेकर कवि प्रा. माधव सरकुंडे कविता की परिभाषा देते हैं कि-

            “कवितेला

केवळ कविता होऊन राहणे

जमत नाही

तिला होता आले पाहिजे

कधी रागावणारा बाप

तर कधी माया वावणारी माय

कधी भविष्याची वाट

तर कधी थकलेल्या वाटसरूचे पाय[1]

कवि माधव सरकुंडे ‘बंधुनों’ कविता के सारांश के माध्यम से आदिम जनसमूह को संदेश देते हैं कि आज हम सबको एकता और हिम्मत से अपने ध्येय प्राप्ति की ओर बढ़ना होगा तभी हमारी उन्नति कर सकते हैं। आज कई आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ‘अंधविश्वास’ हावी होता हुआ दिखाई दे रहा है। इन क्षेत्रों में बाबा-भोंदू साथु महाराज आदिवासियों अपने फ़ायदे के लिए उपयोग करते हैं। इन्हीं सभी अंधविश्वासी बाबाओं से हम सबको बचके रहना हैं। आदिवासियों का हजारों सालों से शोषण कर उनका विस्थापन किया जा रहा है। आदिवासियों को भारतीय संविधान ने कई मूलभूत अधिकार दिए हैं। इन हक़ और अधिकारों के को लागू करने के लिए आदिवासी हमेशा ही संघर्ष की लड़ाई लड़ता आया है। जिस तरह से सूरज की तेज़ किरणे सभी को उजाला देते हैं उसी प्रकार आप अपने समाज के लिए तेजस्वी रोशनी बनकर अंधकारमय जीवन से बाहर निकालो। सूरज, चाँद-तारे इन सब मे जो गुण हैं, वह गुण हम सब मे हैं। इन गुणों को दिखाने का समय आ गया है। क्रांति का संदेश और गीत गाने वाली नदियाँ आप सबको बुला रही हैं। जो लोग मनुवादी विचारधारा के गंदी नालियों के पास रुके हैं उनको नदियाँ बुला रही हैं। साथ ही सूर्य प्रकाश की किरने आपका स्वागत कर रहीं हैं। आप सभी उजाले में आइये। वे आगे कहते है कि आपका शोषित व्यवस्था के परिवेश में जीवन जीते समय दम नहीं घुटता। वे ‘बंधुनो’ कविता में लिखते हैं-

बंधूनों !

तुम्ही महाकाव्य आहात

ऊरात मशाली घेऊन फिरणारे

तुम्ही महासागर आहात

ओठात वडवानाळ वाहून नेणारे

तुम्ही झुकवू शकता अनंत आकाश

तुमच्या पायावर

 तुम्ही पृथ्वीला नाचवू शकता तळहातावर

तुम्ही फक्त एकदा स्वतःकडे वळून पहा![2]

विश्व में असंभव कोई भी बात नहीं हैं, हर एक चीज को हम प्राप्त कर सकते हैं। कवि प्रा. माधव सरकुंडे अपने समाज को संबोधित करते हैं कि भाइयों तुम सभी विश्व में नई क्रांति लाने वाले नायक हों, एकलव्य हों।  जिस तरह से सागर और महासागर में विशालता का अंतर है। इसी तरह आप में हर प्रकार के गुण हैं इन गुणों का सही तरीके से इस्तेमाल करके अपने समाज को विशालकाय महासागर की तरह बनाओ। अन्धविश्वास जैसी रूढ़ियों, परंपराओं को ख़त्म करों। वेदों-पुरानों में लिखा हैं कि पृथ्वी का निर्माण देवताओं ने किया है। परंतु जब-जब पृथ्वी पर प्राकृतिक संकटें आईं हैं तब-तब देवताओं ने इन संकटों को रोका हैं? किंतु हमने प्रकृति का संरक्षण किया है। आप दिन भर खेत-खलिहानों में काम करते हैं और भटजी छाँव में बैठकर आपके ही पैसों से घी खाते हैं। तब भी भगवान को कुछ दया-माया नहीं आती हैं आपके प्रति। लोकतंत्र के ज़माने में कब तक आप गुलामी सहते रहेंगे ये गुलामी मुझे कदाभी मान्य नहीं है। आप अपनी ही लाशे अपने ही कंधों पर लेकर चल रहे हों यहाँ की मनुवादी विचारों से मैं तो यह सब सह नहीं सकता हूँ। आपको क्या करना हैं आप ही तय कीजिए वे ‘तुम्ही ठरवा’ कविता में लिखते हैं-

 “राज्यघटनेच्या युगातही

तुम्हाला गुलाम समजतो

तो गावगाडा मला मान्य नाही

तुमचं मानां झुकवत जगण

मी जगणं मनात नाही

सांगा गड्यांनो!

का पुन्हा पुन्हा विझतो

तुमच्याच चुलीतला जाळ?

का तुमचेच होते शोषण

सकाळ संध्याकाळ?

आपलेच मरण आपल्याच खांद्यावर घेऊन

किती काळ चालणार तुम्ही स्मशानांच्या इशाऱ्यावर?

विषमतेच्या पोशिंद्या व्यवस्थेला ठोकरून

मी निघालोय समतेच्या वाटेनी स्वातंत्र्याच्या गावी

तुम्ही तुमच्या जन्माची माफी मागून

येऊ शकता माझ्यासोबत

काय करायचे ते तुम्ही ठरावा![3]

तथाकथित समाज ने आदिवासियों के साथ जो विषमतापूर्वक भेदभाव निर्माण किया हैं। इस संदर्भ में माधव सरकुंडे अपनी कविता ‘भेदभाव’ में बताना चाहते हैं कि हमारा दुःख यानि कचरा और आपका दुःख यानि की सोना। आप यानि सृष्टि के निर्माता हम यानि विषैले कांटे। तुम्हारा शास्त्र यानि भविष्यवाणी, हमारे शब्द यानि कूड़ा-कचरा। इन्हीं सभी बातों को वे कविता के माध्यम से स्पष्ट करते हैं-

“आमचे दु:खं म्हणजे कचरा

तुमचे म्हणजे सोने

जोवर असेल असा व्यवहार तुमचा

तोवर कुणाचेही नाही बरे होणे.

तुम्ही म्हणजे सृष्टीचा मोहर

आम्ही म्हणजे विषारी काटे

असा असेल तुमचा विश्वास

तर सारेच होत राहीले उफराटे.

तुमचे शास्त्र म्हणजे रास

आमचे शब्दं म्हणजे कुटार

असा असेल तुमचा हेका तर

तुमची गंगा आमच्यासाठी गटार.[4]

दलित आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य समतामूलक समाज स्थापित करना रहा है। इन आंदोलनों की प्रेरणा भूमि महाराष्ट्र रही है। मध्यकाल से लेकर आज तक कबीर, फुले, शाहू और अम्बेडकर की परंपरा ने दलित आंदोलन को जन्म दिया है। इन्हीं महापुरुषों के विचारों से भारत के कई हिस्सों में आज भी दलित आंदोलनें सामने उभरकर आ रहे हैं। जिसमें मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद नामांतरण आंदोलन और 2 अप्रैल 2018 का भारत बंद आंदोलन महत्वपूर्ण हैं। महाराष्ट्र में सन् 1972 में दलित पैंथर की स्थापना हुई थी। इस पैंथर ने दलितों के समस्याओं से संबंधित कई आंदोलानें की। जिसमें प्रमुख रूप से दलितों को सार्वजनिक स्थलों पर पानी लेने के लिए छात्र-छात्राओं की छात्रवृत्ति बढ़ाने के लिए और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय नामांतरण के  लिए आंदोलानें लड़े हैं। मराठवाड़ा विश्वविद्यालय नामांतरण आंदोलन की शुरुआत लगभग 1976  से हुई 14 जनवरी 1994 को इस विश्वविद्यालय का नाम डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबादहुआ। इस आंदोलन का संघर्ष 17 वर्ष तक चलता गया। इस आंदोलन का जिक्र प्रा. माधव सरकुंडे अपनी कविता ‘तफावत’ में करते हैं-

कुठेच काही भानगड न होता

पुणे विद्यापीठाचा नामविस्तार झाला

मराठवाडा विद्यापीठाच्या नामविस्ताराच्या वेळी मात्र

नुसता रक्ताचा सडा.

या दोन घटकामधील तफावत

आमच्या जणूकांमध्ये अजूनही

भेदभावाचे साम्राज्य टिकून आहे

हे सिद्ध करते.

आणि उरल्या वेळात आमच्या ओठावर

फुले, शाहू, आंबेडकर हे पालुपद तर असतेच.[5]

इस प्रकार से माधव सरकुंडे समकालीन मराठी कविता के महत्वपूर्ण कवि माने जाते हैं। उनकी कविताएँ सामाज में व्याप्त समस्याओं पर प्रहार करती है। विशेषतः आदिवासी समुदायों के लिए वरदान साबित होती हुई दिखाई देती हैं क्योंकि वर्तमान में आदिवासी समाज जिन-जिन संकटों से गुजर रहा है, उन संकटों से बाहर निकालने का रास्ता इन कविताओं ने दिखाया है। यह रास्ता आदिवासी समाज को स्वतंत्रता, समता और बंधुता को जोड़ने में मददगार साबित होगा। साथ ही सामाजिक कुरीतियों तो दोड़कर वैचारिक क्रांति के लिए अग्रेसर होता हुआ दिखाई देता है।  

संदर्भ

[1] सरकुंडे, माधव. (2015). चेहरा हरवलेली माणसं. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 61

[2] सरकुंडे, माधव. (2011). मी तोडले तुरुंगाचे दार. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 26-27

[3] वही. पृष्ठ संख्या. 37-38

[4] सरकुंडे, माधव. (2015). चेहरा हरवलेली माणसं. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 30

[5] वही. पृष्ठ संख्या. 73

                                                                                     डॉ.दिलीप गिऱ्हे

हिंदी विभाग,

सहायक प्राध्यापक,

वसंतदादा पाटील कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा

जिला-बीड (महाराष्ट्र)-414204

ईमेल: girhedilip4@gmai.com

                                    संपर्क सूत्र: 9284669525

 

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