सोमवार, 18 मार्च 2024

आदिवासी कविता मानवता के पक्षधर का दायित्व निभाती है......Aadiwasi Kavita Manvata Ke Pakshadhar ko Nibhati Hai

 


आदिवासी कविता मानवता के पक्षधर का दायित्व निभाती है......

(झारखंड के आदिवासी कवि ओली मिंज के काव्य संग्रह के लिए भूमिका के रूप में )

आज आदिवासी कविता मानवतावादी दृष्टिकोण को निरंतर प्रस्तुत करती हुई दिख रही है। ओली मिंज की भी कविताएँ आदमी होने पहचान को रेखांकित करती है। आदिवासी कविता में आदिवासी अस्तित्व, भाषा, संस्कृति, पहचान, इतिहास, प्रकृति के विविध उपादान मौजूद है। यह उपादान उनके प्राकृतिक जीवनमूल्यों के साथ जीवन जीते हैं। आदिवासियों ने हमेशा जल, जंगल, जमीन का संरक्षण किया है। परन्तु बाहरी नीतियों कारण उनके जीवनयापन का साधन जल, जंगल जमीन पर खतरा-सा पैदा हुआ। उनके संसाधनों को दिन-ब-दिन नष्ट किया जा रहा है और वहां पर बड़ी-बड़ी सड़कें, इमारतें राष्ट्रीय पार्क बनाये जा रहे हैं। इस वजह से उनकी पहचान पर भी संकट छाया जा रहा है। वे हजारों वर्ष की अपनी सांस्कृतिक परम्परा को भूल रहा है। इन सभी कारणों को खोज कर आदिवासी कविता ने आज मानवतावादी दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए ‘काव्य का मार्ग’ अपनाया है। आदिवासी काव्य परम्परा में ओली मिंज की कविताओं ने भी एक अलग-सा सजगता का मार्ग दिखाया है। वर्ण परंपरा के अनुसार सबसे निचले पायदान पर शूद्र  है। तो कवी ओली मिंज ‘शायद मैं आदमी हूँ’ कविता के माध्यम से प्राचीनतम वंशज परंपरा को रेखाकिंत करते हैं-

 “शायद मैं आदमी हूँ

लेकिन जन्मकुंडली से

ब्राह्मण हूँ

क्षत्रिय हूँ

वैश्य हूँ

शूद्र हूँ

इसमें से जो सबसे पुराना

वहीं मेरा दावा

शायद मैं आदमी हूँ 

प्रत्येक व्यक्ति का अपना ‘जमीर’ होना चाहिए तभी वह अपनी पहचान को साबित कर सकता है। किन्तु हजारों वर्षों से आदिवासियों के इलाकों में बाहरी हस्तक्षेप होते रहे हैं। इसकी वजह से उनका जीवन संघर्षपूर्ण दिखता है। इसके साथ कवि मिंज ‘जमीर’ कविता के जरिये मजूदर-किसानों का दमन किस प्रकार से बाहरी नीतियों द्वारा किया गया और आदिवासी की पहचान उसके इतिहास गढ़ने में है जैसी बातों जिक्र ‘जमीर’ कविता में करते हैं-

“वो दमन करते हैं

मजदूर-किसानों पर

इतिहास तो साहब

हम गढ़ते हैं ”

आदिवासी का प्राकृतिक घटकों से हजारों वर्ष पुराना नाता रहा है, इसी वजह से आदिवासी कवियों ने प्राकृतिक घटकों को कविता का प्रतीक बनाकर कविताएँ लिखी हैं। ओली मिंज ने भी प्रकृति को अपनी कविता का विषय बनाया हुआ मिलता है। ओली मिंज के ‘सरई बीज सवारी’, ‘बाजार’, ‘कुदरत का रिवाज’, ‘सरहुल आ गया’, ‘मेरा सूरज’, ‘इदरी का जंगल’, ‘चौराह’ जैसी कविताओं ने प्रकृति के विविध घटकों का वर्णन किया हुआ मिलता है। सरहुल एक प्राकृतिक पर्व है इसकी ख़ुशी भी कवि अपनी कविता में देते हैं-

“दूर दूर तक खिले फूलों का

मनमोहक नजारा था

पंख फरफराते बच्चों में

लम्बी उड़ान भरने का

अजब उत्साह था

चहक-चहक कर

बच्चे शायद

कह रहे थे

देखो-देखो

सरहुल आ गया रे

सरहुल आ गया रे।”

‘क्षणिकाएं’ कविता ने प्राकृतिक घटक नदी के अस्तित्व की कहानी बताई है, जब नदी का पानी शुद्ध  रहेगा तभी उसका अस्तित्व बचा रहेगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति साफ सुथरे पानी को ही महत्त्व देता है अगर किसी कारणवश उस नदी का पानी गंधा हो जाता है, तो समझो उसका अस्तित्व ख़त्म हो जाता है।  हम इस बात का प्रमाण ‘क्षणिकाएं’ कविता का उदाहरण लेकर देख सकते हैं-

“मेरे रिवाजों की माने

तो नदी का अस्तित्व

तभी माना जाता है

जब तक पानी साफ हो

जहाँ गन्दला हुआ

 समझो कब्ज़ा हो गया।”

आदिवासी कविता आदिवासी महिला पारिवारिक परिवेश को भी पेश करती है। उस महिला पारिवारिक संघर्ष गैर आदिवासी महिला अलग है। क्योंकि ‘गैर आदिवासी महिला’ से ‘आदिवासी महिला’ का संघर्ष दुगना है। वह परिवार का सारा काम, खेत-खलिहान, जंगल से लकड़ी लाना, अपने बच्चों को संभालना इन सभी कामों में वह दिन भर व्यस्त रहती है। ओली मिंज की ‘एक औरत’ कविता एक स्त्री अपने मुर्गी को संभालकर जब बाजार बेचने जाती है, तो उसकी फटी हुई साडी के पल्लू में वह मुर्गी समा नहीं पाती है। वह औरत अपनी मुर्गी का पालन–पोषण करती तो है लेकिन जब वह उस मुर्गी को बाजार बेचने जाती है, तो उसकी लागत उसे शून्य रुपयों के बराबर मिलती-

“शायद उसने

उन व्यापारियों को

दाना खिला-खिलाकर

इतना बड़ा कर दिया

कि आज उसकी फटी साडी के पल्लू में

एक मुर्गी नहीं समा रही थी”

झारखंड की धरती आदिवासी बहुल राज्य से परिचित है। यहाँ की धरती प्राकृतिक सौदर्यं से भरी पड़ी हुई है हर एक प्रकृति के घटक से आदिवासी का रिश्ता जुड़ा मिलता है। इस राज्य में आदिवासी सस्कृति की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। यहाँ पर बसंत का मौसम आते ही विशिष्ट संगीत गाया जाता है। जब ऐसे त्योहारों को मनाया जाता है, तो यहाँ की धरती प्रकृति का यशोगान करती है। ऐसा वर्णन मिंज की ‘कविता’ नामक काव्य पक्तियां व्यक्त करती है-

“झारखंड की धरती

सहज निश्चल हृदय से उदृत भाव

करता हमेशा मिट्टी की उपासना

तूचक्र से वसंत जब आता

संगीत-सूर में उत्साह भर लाता

तपती-सूर में करुण रस का आभास होता

सावन की बूंदों से धरा

जब शृंगार करती

संगीत मुक्तकंठ से प्रकृति का यशोगान करती

ऐसी है हमारी झारखंड की धरती”

इंसानों के हवनकुंड में आज आदिवासी अपनी इंसानियत को झोंकता चला गया। आज भी आदिवासी नक्सलवाद जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। उसने कुदरत के हर एक तोहफे को स्वीकार किया और उसके अनुसार अपनी सहज परंपरागत रूप को पेश किया है। मिंज की ‘आदिवासी’ कविता इन सभी सन्दर्भों का दस्तावेज़ है-

“इन्सान के सांचे में ढला

आदिवासी

कुदरत की इस देन को

बाकायदा तोहफा स्वीकार किया

सांचे कह हर फर्ज को

सहज परंपरा का रूप दिया

शिकारी का शिकार बनता आया

इन्सान के हर फर्ज को

शिकारियों भेंट चढ़ाता आया

इन्सान को इन्सान समझकर

इंसानों के हवनकुंड में

इंसानियत को झोंकता चला आया है।”

इसी प्रकार से ओली मिंज ने अपनी कविताओं के माध्यम से झारखंड की अनोखी पहचान को दर्शाया है, उसमें आदिवासी की एक अलग-सी संस्कृति भी मौजूद है। उनकी कविताएँ झारखंड के आदिवासी जीवन से जुड़े विभिन्न दस्तावेज़ के संदर्भ देती है। उनका ‘पी. एम. बुधवा’ काव्य संग्रह वाकई आदिवासी काव्य परंपरा को एक समृद्ध रूप देगा और पाठक वर्ग भी इसे पढ़ने के लिए उत्सुकता दिखायेगे ऐसी भरपूर आशा है। ओली मिंज जी के लेखन कार्य की मैं सराहना करता हूँ और उनको भविष्य में ऐसे ही लेखन कार्य के लिए मंगलकामनाएं देता हूँ!

जय जोहार...।

२१ जनवरी २०२४ 

डॉ.दिलीप गिऱ्हे

सहायक प्राध्यापक,

हिंदी विभाग,

वसंतदादा पाटिल कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा जि.बीड (महाराष्ट्र)

संपर्क :९२८४६६९५२५, ८६०५७०८३९२

ईमेल: girhedilipdilip@gmail.com

 

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