तुलनात्मक साहित्य : मराठी-हिंदी की अनूदित आदिवासी कविता
तुलनात्मक
साहित्य का उद्देश्य ही हम मान सकते हैं कि दो भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक
भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद के माध्यम से उचित रसास्वादन मिल सकें। तभी साहित्य
को एक विशाल रूप मिल सकता है। साहित्य में गद्य और पद्य यह दोनों विधाएँ
महत्वपूर्ण हैं। इन विधाओं में जब अनुवाद होता है, तो साहित्य का रूप विस्तृत बन
जाता है। क्योंकि मूल रचना को अनुवाद के जरिए प्रतिस्थापित किया जाता है। इस संबंध
में कैटफ़ोर्ड अनुवाद की परिभाषा देते हैं कि “स्त्रोतभाषा की पाठ-सामग्री को
लक्ष्यभाषा की समानांतर पाठ-सामग्री से प्रतिस्थापन ही अनुवाद है”[i] इसीलिए कहा जाता है कि कौनसी
भी साहित्यिक रचना का जब अनुवाद हो जाता है, तो उस साहित्यिक रचना का ‘पुनः सृजन’
हो जाता है। इस कारण ही अनुवादक के सामने एक बड़ी समस्या निर्माण हो जाती है।
वर्तमान में कविता यह साहित्य की सबसे महत्वपूर्ण सृजनात्मक विधा बनती जा रही है।
कोई भी अनुवादक अगर अपने दिल से किसी रचना का अनुवाद करता है, तो वह रचना
सृजनात्मकता का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सफ़ल रचना बन जाती है। काव्यानुवाद करते
समय भी सर्व प्रथम अनुवादक के मन में रसानुभूति निर्मित होनी चाहिए तभी वह स्त्रोतभाषा
की सामग्री को लक्ष्यभाषा में सटिक विश्लेषित कर सकता है। डॉ. सुरेश सिंहल लिखते
हैं कि “काव्यनुवाद में अनुवादक द्वारा सर्वप्रथम स्त्रोतभाषा की सामग्री की सतही
दृष्टि से अध्ययन किया जाता है और उसका सामान्य अर्थ ग्रहण किया जाता है।
काव्यशास्त्रीय अर्थ समझा-परखा जाता है। इस गहन अध्ययन के पश्चात पाठ्यसामग्री का
रस की दृष्टि से अध्ययन किया जाता है, क्योंकि काव्य स्वभाव से ही संपूर्ण होता है।”[ii]
वर्तमान में विश्व में कई भाषाओं एवं
बोलियों में साहित्य लिखा जा रहा है। उस साहित्य को समझने के लिए अनुवाद यह एक ऐसा
माध्यम है, जिसके जरिए उस साहित्य को देखा-समझा और परखा जाता है। इसमें तुलनात्मक
साहित्य की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। क्योंकि तुलनात्मक साहित्य मूल भाषा के
साहित्य पर अध्ययन करके उस भाषा को लक्ष्यभाषा में प्रस्तुत करने में काफ़ी मददगार
साबित हो रहा है। इसीलिए हम कह सकते हैं कि मूल रचना और अनुदित रचना में बहुत-सा
बदल होता है। क्योंकि मूल रचना में लेखक के अपने मातृभाषा के विचार होते हैं,
जिसमें ज्यादा गहराइयाँ होती है। अगर उसी मातृभाषा का व्यक्ति उस रचना को दो
भाषाओं में पढ़ता है, तो उसमें से वह मूल रचना को अधिक पसंद करेगा। क्योंकि मूल
रचना उसके दैनंदिन जीवन में बोलचाल की भाषा या बोली की होती है, तो जाहिर है वह
मातृभाषा की रचना को ही अधिक पसंद करेगा। किंतु अपरिचित भाषा या बोली बोलने वाला
व्यक्ति अगर लक्ष्यभाषा की रचना को पढ़ता है, तो उसे कुछ हद तक उस रचना का मूलभाव
समझने में काफ़ी मदद मिलती है। इसीलिए लक्ष्यभाषा को अनुवाद की महत्ता प्राप्त होती
है। तुलनात्मक साहित्य में काव्यानुवाद की भूमिका भी इसी बात से संबोधित करती हैं।
क्योंकि साहित्य में काव्यानुवाद के माध्यम से ही मूल काव्य में आ रहे भाव एवं
विचार को समझा जाता है। सुरेश सिंहल अनुवाद को एक जटिल कार्य मानते हुए लिखते हैं
कि “मूलभाषा की साहित्यिक संवेदना अपनी प्रकृति में इतनी विशिष्ट होती है कि उसका
दूसरी भाषा में अवतरण प्रायः असंभव-सा होता है। इसी कारण स्त्रोतभाषा और
लक्ष्यभाषा में भाव एव शैली के आधार पर अंतर काव्यानुवाद की स्वाभाविक प्रक्रिया
का परिणाम है जो आधुनिक अनुवाद-चिंतन के संदर्भ में काव्यानुवाद की उस संकल्पना को
दर्शाता है, जिसे पुनः सृजन कहा जाता है”[iii]
तुलनात्मक साहित्य में मराठी से हिंदी
में अनुदित आदिवासी काव्य के संबंध में बात करें तो कोई हिंदी भाषी व्यक्ति (मराठी
भाषा से अपरिचित) मराठी के कविताओं का मूलभाव समझ नहीं पाएगा किंतु कोई मराठी भाषी
व्यक्ति (हिंदी भाषा परिचित) दोनों भाषाओं की कविताओं का मूलभाव समझ पाएगा। इसीलिए
हिंदी भाषी व्यक्ति को उस कविताओं का मूलभाव कुछ हद तक समझने के लिए अनुवाद अपनी
अहम् भूमिका निभाने में उपयोगी रहा है। जैसे हम मराठी के कवि वसंत कनाके की कविता
‘वृक्ष’ देख सकते हैं-
स्त्रोतभाषा लक्ष्यभाषा
अनुवाद
“जगा
झाडासारखे जगा “वृक्ष के जैसे जियो
आभाळातला टेका न कोई सहारा है जिन्हें आसमान का ताट मानेने जगा तब भी वो जीते हैं सीना तानकर
झाडासारखे वागा वृक्ष के
जैसे जियो
झाडासारखी फळे द्या वृक्ष के जैसे फल
दो
सावली आणि हवा उनके जैसी छाँव और हवा दो
जगा आणि जगू द्या जियो और जीने
दो
हा मंत्र नाही नवा।”[iv] यह
मंत्र कोई नया नहीं।”
इसके अतिरिक्त तुलनात्मक साहित्य में
काव्यानुवाद के माध्यम से स्त्रोतभाषाओं के प्रतीकों, बिंबों, मिथकीय कथाओं के
काव्य-सौंदर्य समझने में काफ़ी मदद मिलेगी। जैसे कि-
स्त्रोतभाषा लक्ष्यभाषा
अनुवाद
“आम्ही
नाहीत हिंदू “हम
नहीं है हिंदू
आम्ही
आहोत कोयतूर”[v] हम है आदिवासी”
“संगोबाई
गोंदुण घ्यायचे मला”[vi] “संगोबाई गोंदुन लेना है
मुझे”
“तो देख गिऱ्हन “वो देखो ग्रहण
बाप बेटाला सांग”[vii] बाप बेटे को बताता है”
“लिंगो
म्हणजे संगीत “लिंगो
यानी संगीत
फड़ापेन
म्हणजे ढ़ोल”[viii] फड़ापेन यानी ढोल”
“तुमचे
शास्त्र म्हणजे रास “तुम्हारा
शास्त्र यानी भविष्य
आमचे
शब्दं म्हणजे कुटार”[1][ix] हमारे शब्दं यानी कूड़ा-कचरा”
जैसी
कविताओं का हम जब तुलनात्मक साहित्य अध्ययन में विश्लेषण करते हैं। तो हम देखते
हैं कि कोयतूर, लिंगो, फड़ापेन जैसे गोंडी भाषा के शब्द मिलते हैं। जिसका अर्थ होता
हैं- कोयतूर (आदि धर्म/आदिवासी), लिंगो-फाड़ापेन (प्रकृति देवता/संगीत)। इसीलिए
श्री अरविंद का मत यहाँ पर बिलकुल ही सटीक बैठता है। वे लिखते हैं कि-“काव्यनुवाद
का कार्य मूल के शब्दों को अनुवाद में उतारना मात्र नहीं है, बल्कि उसके बिंब,
काव्य सौंदर्य एवं शैली की विशेषताओं की भी पुनर्रचना करना है।”[x] इसीलिए मराठी से हिंदी में
अनुदित आदिवासी कविताओं का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है। बावजूद कवि की कविता लिखने की
सहजता, प्रवाहमयता, वर्णनात्मकता, प्रतिरोध, आत्मकथन और वार्तालाप (संवाद) जैसे बातों
का भी ज्ञान मिलता है। जैसे कि मराठी कवि विनोद कुमरे ‘अरण्य’ कविता में लिखते हैं
कि-
स्त्रोतभाषा लक्ष्यभाषा अनुवाद
“जल, जमीन, जंगल आणि “जल-जंगल-जमीन और
गगनभरारी पहाडांना आकाश को छूने वाले पहाड़ों को यदि
बोलता, लिहिता वाचता आलं असतं तर बोलना-लिखना-पढ़ना आया होता तो
त्यांनी पुकारलं असतं उन्होंने कब का खड़ा किया होता
विध्वंसरूपी माणसाविरुद्ध बंड”[xi] विध्वसंरूपी
मनुष्य के ख़िलाफ़ आंदोलन”
मराठी
कवि सुखदेवबाबु उईके ‘करू तयारी
लढण्याची’ कविता के माध्यम से हम कवि का प्रतिरोध अनुवाद के माध्यम
से देख सकते हैं-
स्त्रोतभाषा लक्ष्यभाषा
अनुवाद
“चला
उठा... जागे व्हारे “चलो उठो
जागो
करू तयारी लढण्याची लड़ाई की तैयारी
करने के लिए
आम्ही करू तयारी लढण्याची हम कर रहे हैं तयारी लड़ाई
लड़ने की
मजूर शेतकरी, श्रमिक जनांनो मजदूर, किसान और श्रमिकों
नगरवासी तसेच गावकऱ्यांनो नगरवासियों और गाँववासियों
कर्मचारी तुम्ही अधिकाऱ्यांनो कर्मचारियों, अधिकारियों
विद्यार्थी आणि बेकारांनो विद्यार्थियों और
बेरोजगारों
माता भगिनी, सर्वच मिळुनी माता बहनों सभी एकजुट
होकर
लढू लढाई आदिम जगण्याची”[xii] करेंगे तैयारी लड़ाई लड़ने की”
इसी
प्रकार से मराठी कविता में
चामुलाल राठवा की किसी अंजान व्यक्ति से हुए बातचीत अनुवाद के माध्यम से हम हिंदी
में देख सकते हैं-
स्त्रोतभाषा लक्ष्यभाषा अनुवाद
“आदिवासींना साहित्य असते का हो”“आदिवासियों का भी साहित्य होता है क्या”
तो म्हणाला उसने कहा-
आणि मी चपापलो और मैं चौक गया
मला वाटले तो चोर असावा! मुझे लगा वह चोर है!
मी म्हणालो मैंने कहा-
“होय असते की! “हाँ, रहता है!
गाडगी-मडकी, चुला-चकी गाडगे-मडके, चूल्हा-चकी
होय, आदिवासींचे हेच ते ‘साहित्य’ यहीं अभिप्रेत है मुझे
अभिप्रेत आहे मला.”[xiii] आदिवासियों के साहित्य में”
इस प्रकार से हम देखते हैं कि तुलनात्मक साहित्य में काव्यानुवाद की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण बन जाती है। इसीलिए तुलनात्मक साहित्य का आधारभूत तत्त्व ही यह माना जाता है कि अनेक भारतीय भाषाओं में लिखित साहित्य को या उसके सूक्ष्म घटकों की साहित्यिक तुलना होना। यह तुलना करते समय अनुवाद की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है। इस कथन पर रेमाक कहते हैं कि “तुलनात्मकता सांश्लेषिक मानसिक दृष्टि है जिसके द्वारा भौगोलिक एवं जातीय स्तर पर साहित्य का अनुसंधानात्मक विश्लेषण संभव हो पाता है।”[xiv]
[i]
चौधुरी, इन्द्रनाथ. (2006). तुलनात्मक
साहित्य भारतीय परिप्रेक्ष्य. नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 123
[ii]
सिंहल, डॉ. सुरेश. (2016). अनुवाद संवेदना
और सरोकार. नई दिल्ली : संजय प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 126
[iii]
वहीं. पृष्ठ संख्या. 127-128
[iv]
कनाके, वसंत. (2002). सुक्का सुकूम. यवतमाळ : लोकायत प्रकाशन.
पृष्ठ संख्या. 8
[v] तुमराम, डॉ.विनायक. (सं). (2003). शतकातील आदिवासी कविता. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन.
[vi] आत्राम, उषाकिरण. (2009). लेखणीच्या तलवारी. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ
संख्या. 78
[vii] सोनवणे, वाहरु. (2006). गोधड. पुणे : सुगावा
प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 60
[viii] कुमरे, विनोद. (2014).
आगाजा.
मुंबई : लोकवाङ्मय गृह. पृष्ठ संख्या. 63
[ix] सरकुंडे, माधव. (2015).
चेहरा हरवलेली माणसं.
यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 30
[x]
सिंहल, डॉ. सुरेश. (2016). अनुवाद संवेदना
और सरोकार. नई दिल्ली : संजय प्रकाशन. पृष्ठ संख्या.126
[xi]
कुमरे, विनोद. (2014).
आगाजा.
मुंबई : लोकवाङ्मय गृह. पृष्ठ संख्या. 1
[xii]
तुमराम, डॉ.विनायक. (सं.). (2003). शतकातील आदिवासी कविता. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ
संख्या. 162
हिंदी विभाग,
सहायक प्राध्यापक,
वसंतदादा पाटील कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा
जिला-बीड (महाराष्ट्र)-414204
ईमेल: girhedilip4@gmai.com
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