आदिवासी काव्य में अभिव्यक्त आदिवासियों की समस्याएँ
शोध सारांश
भारतीय समाज का स्वरूप हमें तीन भागों में मिलता
है- ग्रामीण, शहरी और पहाड़ी प्रदेशों में अपना निवास करने वाले लोग। जो लोग पहाड़ी
एवं जंगली प्रदेशों में रहते हैं उन लोगों को आदिवासी समाज कहा जाता है। इसका मूल
आधार भूगोल, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य कहा जाता है। आदिवासी समुदाय यह
एक पृथक समुदाय है। इस समुदाय की विशिष्टता में उनकी अस्मिता प्रमुख है। आज भारत
के ही अपितु सम्पूर्ण विश्व के आदिवासी समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं
आर्थिक रूप में अनेक समस्याएँ हैं। समाजशास्त्रियों ने आदिवासी, ग्रामीण और नगरीय क्षेत्र माने हैं। आदिवासी काव्य
ने आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं को चित्रित किया है। आदिवासी कवियों ने उनकी
प्रत्येक समस्याओं को अपनी कविता का शीर्षक बनाया हुआ दिखता है।
महत्वपूर्ण शब्द: विस्थापन, जल, जंगल, जमीन, बुनियादी समस्याएँ।
प्रस्तावना:
आदिवासी समुदाय की पहचान ही उनकी अस्मिता पर
निर्भर है।
जंगलों एवं पहाड़ी प्रदेशों में अपना जीवनयापन करने वाला आदिवासी समुदाय है। उनकी
पहचान उनकी अस्मिता पर टिकी हुई है। भाषा, संस्कृति, अस्मिता एवं जीवन मूल्य
आदिवासियत को ख़ास दर्शाते हैं। फिर भी उनके जीवनमूल्यों पर संकटे मंडराने लगे हैं।
आदिवासी समुदाय के जीवन में बाहरी घुसपैठ होने से प्रमुख रूप में उनके जीवन में
समस्याएँ पैदा हो गई। इसकी मुख्य वजह यह भी पाई गई की ब्रिटिश सत्ता आदिवासियों पर
हक़ जताना चाहती थीं, इसाई मिशनरी द्वारा धर्म परिवर्तन का बोलबाला चालू था। आदिवासी
क्षत्रों में खनिज सम्पदा प्राप्त होना। भूमंडलीकरण के चक्रव्यूह में बांध, सड़क,
उद्याने एवं विकास के बहाने उनके जल, जंगल एवं जमीन से बेघर करना। उनको रोटी, कपड़ा
तथा मकान आदि बुनियादी सुविधाओं से वंचित पाया गया है। ऐसी अनेक समस्याएँ आदिवासी
के जीवन में आने से उनके जीवन में परेशानियाँ आने लगी है। इन सभी समस्याओं को
आदिवासी कवियों ने अपनी कविता का मुख्य विषय बनाया है। आदिवासी कविताओं के बारे
में वंदना टेटे ने अपने संपादकीय लेख ‘आदिवासी कविताएँ प्रतिपक्ष नहीं, उपचार है’
में लिखा है कि “आदिवासी कविताएँ उपचार के
लिए-उपचार के पहले, उपचार के दौरान उपचार के बाद-गाया जानेवाला सबसे जरूरी उपक्रम
है।”1 परिणामस्वरूप आदिवासी कविता आदिवासियों समस्याओं पर किया गया एक प्रकार का
उपचार ही हम कह सकते हैं। क्योंकि यह कविता आदिवासियों की विविध समस्याओं पर बात
करती है और उनका समाधान भी बताती है।
आदिवासी कवियों
में ग्रेस कुजूर, रामदयाल मुंडा, महादेव टोप्पो, निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन, वंदना
टेटे, हरिराम मीणा, वाहरु सोनवणे जैसे अनेक कवियों ने कविताएँ लिखीं उनकी कविताओं
में आदिवासी समस्या, संस्कृति, विस्थापन, सांस्कृतिक पहचान, भाषा जैसे मुद्दे
प्रमुखता से मिलते हैं। रामदयाल मुंडा ने ‘कथन शालिवन के अंतिम शाल का’ कविता में
ठेकेदार द्वारा शालिवन वृक्ष की कटाई की समस्या को उजागर किया है। वे इस कविता के
माध्यम से कहना चाहते हैं कि जमीन के ठेकेदार हमारे टिम्बर के साधे घर के बहाने
शालिवन वृक्ष को उजाड़ रहे हैं और हमें अपनी झोपड़ियो से विस्तापित कर रहे हैं। वे
कहते हैं कि इन जैसे वृक्षों का संरक्षण होना जरूरी है, तभी प्रकृति का संतुलन ठीक
रहा सकता है और जंगल बच सकते हैं। कविता की कुछ पंक्तियाँ कवि प्रस्तुत करता है-
“मेरे ही सामने उस दिन ठेकेदार साहब ने
नागों की झोंपड़ी को देखकर
अपने इंजीनियर साथी से कहा था-
"बेवकूफ हैं साले, टिंबर से घिरे हैं पर
ढंग का मकान बनाने की भी अक्ल
नहीं आई।"
फिर उन्हीं के सहयोगी कहते
हैं-
जंगल का आदमी
जंगल काटकर बरबाद कर रहा है,
इसलिए इसकी रक्षा होनी चाहिए।
और शायद इसीलिए इसकी रक्षा हो
रही है,
टिंबर मर्चेंट्स के गोदामों
में,
उनकी तिजोरियों में,
नोटों के बंडलों के रूप में !
और जंगल के आदमी को क्या मिला ?
फल-फूल-हीन कँटीली झाड़ियाँ
और पानी के बहाव से निरंतर
छँटती जा रही
अनुर्वर जमीन।”2
उपरोक्त
कविता में एक तरफ रामदयाल मुंडा शालिवन वृक्षों को बचाने की बात करते हैं तो दूसरी
तरफ भूमंडलीकरण के दौर ने विकास के नए मॉडल्स की दिशा तय की है और पुराने से
पुराने जंगलों को उजाड़कर वहां पर पर्यटकों के मनोरंजन के लिए वन्य जीव उद्यान
तैयार किए जा रहे हैं।
इससे आदिवासियों की जमीनों पर आक्रमण तो हो रहा है, साथ-साथ उनको विस्थापित भी
किया जा रहा है। परिणामस्वरूप आदिवासी अपनी मूल जीवनशैली एवं प्राकृतिक संबंधों से
कट रहा है। आदिवासी विस्थापन और उनके जमानों पर किया गया कब्ज़ा यह प्रमुख समस्या
उनके जीवनयापन करने में अड़चने पैदा कर रही है। उज्ज्वला ज्योति तिग्गा अपनी कविता
‘शिकारी दल अब आते हैं’ में लिखती हैं कि-
“विकास के नए
मॉडल्स के रूप में
दिखाते हैं
सब्जबाज
कि कैसे पुराने
जर्जर जंगल
का भी हो सकता
है कायाकल्प
कि एक कोने में
पड़े
सुनसान उपेक्षित
जंगल भी
बन सकते हैं
विश्व स्तरीय
वन्य उद्यान
जहाँ पर होगी
विश्व स्तरीय
सुविधाओं कि टीम-टीम
और रहेगी विदेशी
पर्यटकों कि रेल-पेल
और कि कैसे घर
बैठे खाएगी
शेर, हाथी और
भालू की
अनिगन पुश्तें
”3
इसी कड़ी में
महादेव टोप्पो ‘झारखंड गठन ने बाद-कुछ दृश्य’ कविता में झारखंड के इर्दगिर्द की
प्राकृतिक संपदा नष्ट होने के बात के दृश्य पर बात करते हैं-
“राँची अब सिर्फ
एक पर्यटन स्थल
नहीं है
राजधानी हैं
तरक्की की,
उंचाई की, बढ़ते
भारत में एक
उभरते महत्त्वाकांक्षी शहर का नाम है
जहाँ से गायब है
अब ठंडी हवा
गायब है
पक्षियों का कलरव
शोर है जुलूसों
का
गरमी है, धूल है
और होड़ है
एक-दूसरे को काट आगे बढ़ जाने की”4
वर्तमान में
हिन्दू धर्म के प्रभाव में आकर आदिवासी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को भूलता जा रहा
है वह अपने रीति-रिवाजों, भाषा, अपनी प्राकृतिक जीवन शैली, संघर्ष गाथाओं को भूल
रहा है। उनकी अस्मिता पर यह एक गहरा संकट माना जा सकता है। फिर कुछ आदिवासी कवि
साहित्य को लिखित रूप धारण करके उसको संरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। जिस
प्रकार से वैरियर एल्विन या शरतचंद्र राय तथा महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के
जीवन रीति-रिवाज, कला, लोककथा, उपन्यास, कहानियाँ, उनका संघर्ष, संस्कृति, उनकी जीवनशैली
पर साहित्यिक कार्य किया है। इसका उदाहरण महादेव टोप्पो ‘प्रश्नों के तहखाने में’
कविता में देते हैं-
“वैरियर एल्विन
या शरतचंद्र राय की तरह
कुछ मानव
विज्ञानी
लिख चुके हैं
हमारे रीति-रिवाजों के बारे
हमारी जीवन कला
के बारे
हमारे दैनंदिन
जीवन के बारे
हमारे
विश्वासों, अंधविश्वासों के बारे
अब कुछ कर रहे
हैं
इस लेखन का
खंडन-मंडन
हमारी संघर्ष
गाथाओं को कुछ लोग
बना रहे हैं
उपन्यासों, कहानियों
लेखों का
विषय-महाश्वेता की तरह”5
विकास के नाम पर
आदिवासियों को जंगलों बेदखल करने का सिलसिला दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यह रुकने
के लिए बिरसा मुंडा के उलगुलान को आज भी चलाया जा रहा है। यह संघर्ष अभी भी जारी
है। बेदखल की समस्या से आदिवासी आज भी जूझ रहा है। इसके जवाब में हरिराम मीणा अपनी
कविता ‘बिरसा मुंडा की याद में’ कहते हैं कि हमें जंगलों कोई भी बेदखल नहीं कर
सकता है। क्योंकि जंगल बचाने का उलगुलान समाप्त नहीं हुआ अभी भी जारी है-
“मैं केवल देह
नहीं
मैं जंगल का
पुश्तैनी दावेदार हूँ
पुश्तें और उनके
दावे मरते नहीं
मैं भी मर नहीं
सकता
मुझे कोई भी
जंगलों से बेदख़ल
नहीं कर सकता
उलगुलान!
उलगुलान!!
उलगुलान!!!”6
निष्कर्ष:
इस
प्रकार से आदिवासी जीवनशैली पूरी संघर्षपूर्ण मिलती है। उनके जीवन में अनेक समस्या
व्याप्त है। बावजूद इसके बहुसंख्य मात्रा में आदिवासी गरीबी, अन्धविश्वास,
अशिक्षा, भुखमरी, अज्ञानता, कुपोषण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनकी समस्याओं
का निदान होना जरूरी है। उनकी प्रमुख समस्या जल, जंगल तथा जमीन को बचाने की है। इन
सभी समस्याओं पर निदान करने की एक संवेदनशील पहल आदिवासी काव्य ने की हुई दिखाई
देती है। इसीलिए आदिवासी काव्य आदिवासियत के हर एक बिदुओं को रेखांकित करता है और
उसपर समाधान ढूढ़ने की कोशिश भी करता है।
संदर्भ:
1)टेटे, वंदना (सं).(2017).लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ.नई दिल्ली: प्रभात प्रकाशन.पृष्ठ संख्या.12
2) वही.पृष्ठ संख्या.60-61
3) वही.पृष्ठ संख्या.91
4) वही.पृष्ठ संख्या.97
5) वही.पृष्ठ संख्या.104-105
6)
वही.पृष्ठ संख्या.138
डॉ.दिलीप गिऱ्हे
सहायक प्राध्यापक,
हिंदी विभाग,
वसंतदादा पाटिल
कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा जि.बीड (महाराष्ट्र)
संपर्क :९२८४६६९५२५, ८६०५७०८३९२
ईमेल: girhedilipdilip@gmail.com
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