सोमवार, 18 मार्च 2024

मराठी आदिवासी साहित्य:एक अध्ययन Marathi Aadiwasi Sahitya Ek Adhyayan



मराठी आदिवासी साहित्य:एक अध्ययन  

                                                                                                                                -डॉ.दिलीप गिऱ्हे

आज विश्व में अनेक भाषाओं  में साहित्य लिखा जा रहा हैं । साहित्य कौनसी भी भाषा का हो वह अपने-अपने स्तर पर श्रेष्ट होता हैं । वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए आज विविध विमर्श की बात विश्व स्तर पर हो रही हैं इस में ‘आदिवासी साहित्य’ भी एक बड़ा मुद्दा बन गया है । आज हिंदी, मराठी, गोंडी, कोकणी, भिल्ल, नागपुरिया, खड़िया, संताली, मुंडारी ऐसी अनेक भाषाओँ में आदिवासी साहित्य लिखा हुआ हैं और लिखा जा रहा हैं।आदिवासी साहित्य की परम्परा हजारों साल पुरानी हैं । लेकिन सामंतवादी व्यवस्था ने यह इतिहास लोगों के सामने नहीं आने दिया लेकिन आज के युवा कवि अपनी कलम को हत्यार बनाकर आदिवासी साहित्य लिख रहें है ।   

आज तक मराठी आदिवासी साहित्य में नौं आदिवासी साहित्य संमेलने, दो आदिवासी साहित्य परिषद, दो आदिवासी साहित्यिक मित्र मेळावे संपन्न हुए हैं । लगभग 50 कवियों के ऊपर आदिवासी कवियों का आदिवासी साहित्य लिखने में योगदान रहा हैं । शिक्षित युवक यह साहित्य विश्व स्तर पर ले जाने की तैयारी में लगे हैं विविध पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से यह साहित्य सामने आ रहा हैं । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा को भी बहुत ही विस्तार से आदिवासी कवियों ने लिखा हैं मोटे तौर पर मराठी आदिवासी साहित्य में डॉ .गोविंद गारे, प्रा.डॉ.विनायक तुमराम, वाहरु सोनवने, भुजंग मेश्राम, माहेश्वरी गावित, नेताजी राजगडकर, उषाकिरण आत्राम, डॉ. तुकाराम रोंगटे, डॉ.संजय लोहकरे, बाबाराव मडावी, वसंत नारायण कनाके, बी.भीमा आड़े, दशरथ मडावी, भगवान गव्हाड़े, रूशी मेश्राम, व्यंकटेश आत्राम, सुनील कुमरे, पीताम्बर कोडापे, रामचंद्र जंगले, चमुलाल राठवा, शंकर बळी, अमित गिरडकर, रवि कुलसंगे, दामोदर इलपाते, विनोदकुमार उईके, लक्ष्मणराव टोपले, प्रा.भीलवडीकर, अशोक तुमराम, संजय तुमराम, भाउराव मडावी, प्रा. संतोष गिऱ्हे, भाऊराव मडावी, पुरुषोत्तम शडमाके, कुसुम आलाम आदि कवी प्रमुख रूप में साहित्य लिख रहे  हैं ।  

मराठी आदिवासी लेखकों ने साहित्य के क्षेत्र में अपना स्थान कायम रखा है । आज समय के अनुसार नये-नये विचार सामने आ रहे है । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता में लेखन की परंपरा भुजंग मेश्राम से मानी जाती है ।   आदिवासियों ने आपना जीवन-संघर्ष कविताओं के माध्यम से बताना शुरू किया है । यह साहित्य अनुभूति की पहचान करने वाला है और भविष्य का वेध लेने वाला साहित्य है । आदिवासियों के कविताओं में खुद का दुःख है, संस्कृति है । मराठी आदिवासी साहित्य में कविता इस विधा में आज के दौर में नवशिक्षित युवको ने कविता लिखना शुरू किया है । यह साहित्य साधारण दौर पर 1960 के बाद ज्यादा सामने आया है इसमे बहुत सारे कवियों के कविता संग्रह प्रकाशित हुए है।   

1962 में सुखदेवबाबू उईके ने ‘मेटा पुंगार अर्थात पहाड़ी फूल’ भाग 1 व 2 यह कविता संग्रह प्रकाशित हुए है । इसी कविताओं से आदिवासी कविता लेखन का प्रारंभ हुआ । 1976 में भुजंग मेश्राम का ‘आदिवसी कविता’ यह कविता संग्रह प्रकाशित हुआ । यह कविता संग्रह गोंडी भाषा में लिखा है यह महाराष्ट्र के विदर्भ का पहला कविता संग्रह माना जाता है इललिए इस कविता संग्रह को भाषा की दृष्टी से अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है ।  इसके बाद एक-एक कवि सामने आए । डॉ. उत्तमराव घोंगडे- वनवासी (1982), डॉ. विनायक तुमराम- गोंडवन पेटले आहे (1987), वाहरु सोनवणे- गोधड (1987), भुजंग मेश्राम- उलगुलान (1990), रवि कुलसंगे- इंद्रीयारण्य (1990), पुरुषोत्तम शेडमाके- वनसुर्य (1990), प्रा. वामन शेडमाके – जागवा मने पेटवा मशाली (1991), उषा किरण आत्राम- म्होरकी (1997) व लेखानीच्या तलवारी, प्रा. माधव सरकुंडे- मनोगत, रामचन्द्र जंगले –धिक्कार (1997) व धरणाच्या भिंती (1997), दत्तात्रय भवारी- मनोगत (1973), डॉ . गोविंद गारे – अनुभूति (1994), सुनील कुमरे- तिरकमठा (1999), कृष्णकुमार चांदेकर–पतुसा(1999), सौ. कुसम आलाम – रानपाखरांची माय (2000), वसंत कन्नाके– सुक्का कुसुम, डॉ. संजय लोहकरे- आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश व पानझडी, वसंत कुलसंगे – अस्मितादर्श (2000), तुकाराम धांडे–वळीव (2002), सुरेश धनवे-जखम (2007), गोपाल आडे- जंगलकुस व लढा, चामुलाल राठवा- माझी सनद कोठे आहे (2004), वाल्मिक शेडमाके– मी उद्ध्वस्त पहाटतेचा शुक्रतारा (2001), सं डॉ. विनायक तुमराम–शतकातील आदिवासी कविता (2003), दा. मु. सिडाम–कारम मिरसिन (2004), डॉ. गोविंद गारे– आदिवासी मुलांची गोड गाणी (2004), रा.चि जंगले – इखारलेल्या तलवारी (2006), डॉ . नरेन्द्र कुलसंगे- आदिम सुगंध युक्ता (2007), रा. चि . जंगले – विरप्पा गोंड (2007), सौ . रेखा किसन डगळे– वेडी पाशिनी (2008), प्रेरणा कनाके– गया (2008), भुजंग मेश्राम – अभुज माड (2008), बाबाराव मडावी- पाखरं (2009), माधव सरकुंडे – ब्लक इस ब्यूटीफूल (2009), रा. चि. जंगले – पाउसपानी (2010), लक्ष्मण टोपले – आरड गे बाई (2010), मारोती उईके – गोंडवनतला आक्रंद (2010), डॉ. विनायक तुमराम – रानगर्भातील जखमा (2011), विट्टल राव कनाके –भ्रमररुंजन (2011), शंकर  बळी– ही वाट तिथून जावी (2011) आदि कवियों के कविता संग्रह प्रमुख है ।  

नाटक इस विधा में मराठी आदिवासी साहित्य बड़ा ही विश्वसनीय साहित्य रहा है । नाटक इस विधा की सुरुआत इस साहित्य में श्री तोड़साम का ‘सोनता कुर्स’ यह गोंडी भाषा के नाटक से हुई  है । इसके बाद रवि कुलसंगे का– कथा इन्द्रपुरीची (2005), आक्रोश ( अनुभवजन्य नाटक 2003), भागोजी नाईक (एकांकी संग्रह) यह उनके प्रसिद्ध नाटक है । प्रा. वामन शेडमाके का ‘महाबिरसा’ यह दो अंकी नाटक 2011 में प्रकाशित हुआ।   इसके बाद दशरथ मडावी का ‘क्रांतिसुर्य बिरसा मुंडा’ और ‘थ्री नॉट थ्री’ यह दो नाटक सामने आ गए । उस समय कवि भुजंग मेश्राम के नाटक कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए ।   

जीवनी (चरित्र लेखन ) लो लेकर मराठी आदिवासी साहित्य में आदिवासी साहित्य के चिंतक, विचारवंत, आदिवासी लेखक गोंडी भाषा के पुरस्कृते व्यंकटेश आत्राम ने आदिवासी वीर शंकरशहा और रघुनाथशहा उनके जीवन पर ‘दोन क्रांतिवीर’ इस नाम से जीवनी लिखी । यह जीवनी 1968 में प्रकाशित हुई । इसके साथ ही आदिवासियों के क्रांतिकारी नेते लोकशिक्षक नारायण सिंह उईके इनके जीवन वृतांत की खोज करने वाली जीवनी ‘गोंडवनातील क्रांतिवीर नारायण सिंह उईके’ यह ग्रन्थ डॉ . विनायक तुमराम ने महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृति मंडल की ओर से नवलेखन सहाय्य योजना के अंतर्गत 1986 में प्रकाशित किया । संत मुंगशुजी;एक कृतीशील तपस्वी’ और ‘धरती अबा जनतेचे विद्रोही रुप (1999), यह दोनों ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशित किये है । जेष्ट आदिवासी साहित्यिक डॉ. गोविंद गारे की ‘ठक्कर बाप्पा’ यह चरित्रात्मक किताब 1987 में प्रकाशित हुई । इतिहास लेखन पर आधारित किताबों में डॉ . गोविंद गारे जी ने ‘इतिहास आदिवासी विरांचा’, ‘आदिवासी वीर पुरुष’, ‘आदिवासी बंडखोर’, यह ऐतिहासिक ग्रन्थ अनुक्रमे 1982, 1984 व 2001 में प्रकाशित हुए है । वैचारिक ग्रन्थों में ‘आदिवासी विकासाचे शिल्पकार (1991), ‘आदिवासी विकासातील दीपस्तंभ’ (1998), स्वातंत्रढयातील आदिवासी क्रांतिकारक (2004)’, आदि ग्रन्थ डॉ. तुकाराम रोंगटे ने लिखे है ।  संशोधकीय लेखन परंपरा में मराठी आदिवासी साहित्य में डॉ. गोविंद गारे ने ‘ महाराष्ट्रातील दलित;शोध आणि बोध’ यह किताब 1960 में प्रकाशित हुई महाराष्ट्र शासन के पुरस्कार से सम्मानित ‘सह्याद्रितील आदिवासी महादेव कोळी’ 1975 में प्रकाशित हुई । इसके उपरांत व्यंकटेश आत्राम ने 1980 में ‘गोंडी संस्कृतीचे संदर्भ’ यह किताब प्रकाशित की और वर्त्तमान समय में मैं ‘हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष’ (1990-2015) तक इस विषय विषय पर महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा( महाराष्ट्र) में शोध कर रहा हूँ । ललित कला और वैचारिक स्तर पर मराठी आदिवासी साहित्य में जिन-जिन लेखकों का साहित्य सामने आया है उनमे प्रमुख रूप में ल. सू. राजगडकर- हितगुज (1978), डॉ. गोविंद गारे- आदिवसी मुलखाची भ्रमंती (2004), मावळची मुशाफिरी (1990) यह दो ग्रन्थ लिखे है आदिवासी साहित्य का यथार्थ दर्शन देने वाले में गंगाराम जानु आवारी ने ‘आदिवासींची लोकगीते’ यह ग्रन्थ सामने लाया है । इसके बाद महादेव गोपाळ- ‘आदिवासी गोड गाणी’, डॉ. गोविंद गारे– ‘आदिवासी लोकगीते (1986)’, मोतीराम कंगाली- कोल्या नृत्यांचा पुर्वेतिहास, विट्टल धुर्वे– जब मनविना के तार हिले (1975), यह कविता हिंदी भाषा को संदेह देती है ।   दूसरी ओर डॉ. भगवान गव्हाड़े एक मराठी भाषिक (अध्यापक )लेखक होकर भी उन्होंने हिंदी में ‘आदिवासी मोर्चा’ नाम का कविता संग्रह लिखा जो की आदिवासी साहित्य में बहुत ही चर्चित रहा है ।   

कहानी साहित्य में प्रा. माधव सरकुंडे जी के ‘ताडमं (2001)’, व ‘सर्वा(2000 )’, यह दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए है ।   उषाकिरण आत्राम जी का –‘अहेर (1996)’, कुंडलिक केदारी- ‘अस्वस्थ मी (2007)’, कहानी संकलन प्रकाशित हुए है।  मराठी साहित्य में आत्मकथा में नथुबाई गावित- आदोर (1995), बाबाराव मडावी-आकांत (1998), रामराजे आत्राम- उघडा दरवाजा (2009), यह आत्मकथा बहुत ही चर्चित रही हैं । उपन्यास विधा में आदिवासी साहित्यिक धीरे-धीरे अपने कदम रखने लगे है जिसमे नजुबाई गावित -तृष्णा (1995), व भिवा फरारी (2008), प्रा. माधव सरकुंडे – वाडा (1996), बाबाराव मडावी– टाहो (आक्रोश नाम से हिदी अनुवाद ) यह उपन्यास सामने आए है ।     

मराठी आदिवासी साहित्य में लिखित ग्रन्थ सम्पदा:

       आज आदिवासी साहित्य अपनी अलग सी पहचान कराता  है । मराठी आदिवासी साहित्य बहुत ही विशाल है ।   इस साहित्य में आज के दौर में शेकडो ग्रन्थ सम्पदा उपलब्ध है जिसका अध्ययन करने के बाद मराठी आदिवासी साहित्य की सही पहचान हो सकती है । जिसमे आदिवासी लेखक और गैर आदिवासी लेखकों ने यह साहित्य सामने लाने में अपना अनमोल योगदान दिया है ।  

    जिसमे डॉ. गोविंद गारे के-आदिवासी समस्या आणि बदलते संदर्भ (1993), आदिवासी लोकनृत लय, ताल आणि सूर (2004), आदिवासी लोककथा (2004), आदिवासी साहित्य संमेलने अध्यक्षीय भाषणे (2005), प्रा. डॉ . विनायक तुमराम- गिरिकुहरातील अग्निप्रश (2015 ), आदिवासी साहित्य दिशा आणि दर्शन (2012), डॉ. संजय लोहकरे – संपा – आदिवासी लोकसाहित्य शोध आणि बोध (2011), कवि आणि कविता (2014), संपा –डॉ. संजय कांबळे –पानझडी आकलन आणि अस्वाद, डॉ . तुकाराम रोंगटे –आदिवासी साहित्य: चिंतन आणि चिकित्सा (2014), आदिवासी साहित्य: कला आणि संस्कृति (2013), आदिवासी कवितेचा उष:काल आणि सद्द्यस्थिति (2013),डॉ. सुधाकर पंडितराव बोधीकर- निवडक विनायक तुमराम (2013), आदिवासी कविता रूप आणि बंध (2013), मारोती उईके – आदिवासी संस्कृतीवर हरामखोरी हल्ला (2013), सरकारी सरन आणि आदिवासींचे मरण (2011), रामदास भीमाजी आत्राम – तळमळ, गीतमाला , गोकुलदास मेश्राम – आदिवासी सिन्धुसंस्कृतीचे वारसदार व् त्यांचा धम्म (2006),  अभया शेलकर- आदिवासींच्या जमीनीबाबतचा कायदा (2016), डॉ. माहेश्वरी गावित – आदिवासी साहित्य विविधांगी आयाम (2015), प्रा. गौतम निकम- आदिवासींच्या समस्या:एक अध्ययन (2015), क्रांतिकारी आदिवासी जननायक (2010), एकलव्य आणि भिल्ल आदिवासी (2011), प्रभाकर मांडे– भारतीय आदिवासींचे स्थान (2003), आदिवासी मूलत: हिंदूच (2003), डॉ. श्रीपाल सबनीस– आदिवासी, मुस्लिम ख्रिचन साहित्यमीमांसा (2007), ग. शां . पंडित- आदिवासी उत्थानाचा हाकारा (2003), हबीब अंगार ई–मूलनिवासी वादाचे थोतांड (2007), प्रा. डॉ. भा. व्य .गिरधारी– आरसा:आदिवासी जीवन शैलीचा (2003), डॉ. संजय सावळीकर –भारतीय आदिवासी जीवन आणि संस्कृती (2014), स्वाती देशपांडे – शंबूक, एकलव्य यांच्या दुःखांना ब्राह्मण जबाबदार आहेत काय? (2009), निरंजन घाटे- आदिवासींचे अनोखे विश्व (2009), हेमंत कर्णिक – कोंडी आदिवासींची आणि नक्षलवाद्यांची (2012), गौतम खुशालराव कांबळे- जमीन सुधार व दलित आदिवासी (2014), मिलिंद थत्ते – रानबखर आदिवासींच्या जीवन संघर्षाचे पदर (2014), दीपक गायकवाड– आदिवासी चळवळ स्वरूप व दिशा (2005), प्रफुल शिलेदार– आदिवासी साहित्य आणि अस्मिता वेध भुजंग मेश्राम (2014), माधव बंडू मोरे – आदिवासी बोलू लागला (2006 ), संपा-डॉ. चिंतामण कांबळे –परिवर्तनवादी वैचारिक वादळ बाबाराव मडावी (2013), प्रभाकर मांडे- आदिवासींचे धर्मांतर एक समस्या (2003), प्रा. गौतम निकम– झाशीची आदिवासी झलकारीबाई आणि आदिवासी स्त्री:एक अभ्यास (2015), बिरसा मुंडा आणि मुंडा आदिवासी (2010), संपा-डॉ. प्रमोद मुनघाटे – आदिवासी मराठी साहित्य स्वरुप आणि समस्या (2007), सुरेश कोडीतकर– आदिवासी जीवन कथा आणि व्यथा (2008), बाबाराव मडावी- आदिवासी साहित्य शोध आणि समीक्षा (2013) आदि ग्रन्थ प्रमुख है ।  

आज का आदिवासी समाज :

            भारतीय समाज व्यवस्था में स्वतंत्रता के पहले अंग्रेजों ने आदिवसियों पर अन्याय–अत्याचार किया और आज देखा जाये तो उच्च वर्ण वादी व्यवस्था शोषण कर रही है उनके हक्क छिन लिए जा रहे है। जो योजनायें उनके नाम पर बनी है वह उनतक नही पहुच पा रही है आज भी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले मासूम आदिवासी शिक्षा से वंचित है अनपड़ है । उनको आज भी रोटी, कपड़ा मकान की पुर्तता नही हो पा रही है । इस बात पर मराठी के जेष्ट साहित्यिक प्रा.डॉ. विनायक तुमराम कहते हैं कि –“आज के आदिवासियों का सालों से शोषण हो रहा है । उन्हें जानबूझकर वनवासी कहा जा रहा है । सही तरीके से देखे तो आदिवासी यह हजारों सालों से जंगलों में रहते आया है । विशिष्ट पर्यावरण के सानिध्य में रहकर अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों का रक्षण करता आ रहा है । प्राचीन काल से दयनीय जीवन जीता आया हुआ यह समाज वर्त्तमान समय में कई संकटों से सामना कर रहा हैं।”       भारतीय शिक्षा प्रणाली ने आदिवासियों को श्रमप्रतिष्टा से जिने के लिए नही सिखाया इसलिए मराठी के विद्रोही लेखक वाहरु सोनवणे दादर यहाँ पर हुए कार्यक्रम में कहते है कि “आदिवासी युवक जव साहेब होकर अपने गाँव आता है तब वह अपने भाई को लंगोटय में देखकर शर्माता है यह शर्मीला पण कहाँ से आया उसके अंदर अपने सगे भाई की शर्म आने भावना किसने शिखाई इसकी खोज करनी चाहिए ।”  वैश्वीकरण ने आदिवासी संस्क्रती पर एक हल्ला ही किया है इसके कारन आदिवासियों की जमीनों पर कब्ज़ा किया जा रहा है उन्हें वहां से भगाया जा रहा है ।   इसके कारन आज आदिवासी समाज भूख से मर रहा है उनके बच्चे कुपोषण के शिकार बनते जा रहे है ।  

मराठी आदिवासी साहित्य क्या है?

आदिवासियों का धर्म. परम्परा, रुढ़ी, विवाह्संथा, सण, उत्सव, उनके जीवन में गरीबी, भूख, विषमता, अन्याय, पारिवारिक जीवन, उनका सांस्कृतिक जीवन, शिक्षा व व्यवसाय, अंधश्रद्धा इन सभी बातों को ध्यान में रखकर संवेदनशील कवि आदिवासी साहित्य की निर्मिती कर रहे है। मानवतावादी दृष्टिकोण सामने रखकर गैर आदिवासी लेखक भी आदिवासी साहित्य लिख रहे है। आदिवासी साहित्य क्या है?  इस मत पर अनेक साहित्यकारों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये है जिसमे- प्रा. वामन शेडमाके कहते है कि-“आदिवासी साहित्य याने प्रमुख रूप से गोंड, राजगोंड, परधान, माडिया, कोलाम, आंध, महादेवकोळी, भिल्ल, कोरकुं, वारली, पारधी, थोटी, बरडा, गामीत, धनवार, पावरा, वसावे, ओराव, यैसे विविध जनजातियो का समावेश आदिवासी समुदाय में है। इस समुदाय की संस्कृति का अध्ययन करना आज के साहित्य की जरुरत है इनके जीवन पर जो भी साहित्य लिखा गया वह आदिवासी साहित्य कहलाता है ।”  इस तरह से महाराष्ट्र में कुल 47 जनजातीय आदिवासी समाज में है उनकी संकृति ही उनकी पहचान है लेकिन कई आदिवासी समूहों का हिन्दू करन किया गया उनकी संस्कृति को नष्ट किया गया है यह सामंतवादी विचार धारा की एक नई चाल है । इसके बावजूद आज के युवा आदिवासी यह जानकर इस चाल से बाहर निकलने की कोशिश में लगे है। आदिवासी साहित्य के बारे में श्री.लक्ष्मण टोपले कहते है कि–“ आदिवासियों की व्यथा, वेदना, हर्ष, विहर्ष जिस साहित्य के माध्यम से प्रकट होता है वह आदिवासी साहित्य है। जिसमे से उनके दमित और कुंठित भावनाओं को एक नया रास्ता मिलता है और अपनी जीवन की व्यथा वह सामने रख सकते है।  जैसे जमीन में से नया पौधा अंकुर लेकर ऊपर आता है उस तरह का यह साहित्य है ।”

            उपर्युक्त बातों से यह पता चलता है कि दलित साहित्य जैसे हजारों सालों से शोषण का शिकार बना हुआ है  उसी तरह आज का आदिवासी समाज शोषण का शिकार बना है । जैसे- ‘जेव्हा मानूस जागा होतो’ (गोदावरी परुळेकर)  यह किताब पड़कर यह जान सकते है कि महाराष्ट्र के ठाणे जिल्हे में वारली आदिवासी समाज के किसानों पर का वहां के जमीदार, साहूकार, व्यापारीवर्ग अन्याय-अत्याचार करता हुआ दिखाई देता है। यह साहित्य आदिम जनजातियों की दुःख, व्यथा, का चित्रण करने वाला साहित्य है । कहा जाता है की वेदना ही विद्रोह की जननी है ।  इस बात को ध्यान में रखकर ही आदिवासी साहित्यकारों ने तीर के जगह कलम उठाकर आदिवासी साहित्य को सामने लाया है।   

संदर्भ ग्रन्थ सूची

1१ प्रा. डॉ विनायक तुमराम, आदिवासी साहित्य दिशा आणि दर्शन, स्वरुप प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण -2012

2२ डॉ. प्रमोद मुनघाटे, आदिवासी मराठी साहित्य स्वरुप आणि समस्या, प्रतिमा प्रकाशन, पुणे, प्रथम संस्करण-2007

3३ डॉ. माहेश्वरी गावित, आदिवासी साहित्य विविधांगी आयाम, चिन्मय प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण-2015

4४ डॉ. ज्ञानेश्वर वाल्हेकर, आदिवासी साहित्य:एक अभ्यास, स्वरुप प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम संस्करण- 2009

5५ डॉ. तुकाराम रोंगटे, आदिवासी साहित्य चिंतन आणि चिकित्सा, दिलीपराज प्रकाशन प्रा. लि. पुणे, प्रथम संस्करण-2014

 ६ संपा-डॉ. संजय लोहकरे, आदिवासी लोकसाहित्य शोध आणि बोध, मेधा पब्लिशिंग हॉउस,अमरावती, प्रथम संस्करण-2014         



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