सोमवार, 18 मार्च 2024

इक्कीसवीं सदी की हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष Ekkisan sadi ki hindi marathi adiwasi kavitaon mein jivan sangharsh

 


इक्कीसवीं सदी की हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष

साहित्य समाज परिवर्तन का माध्यम है। मनुष्य के सुख-दुःख का प्रतिबिंब जिस विमर्श में प्रस्तुत होता है उस विमर्श को साहित्य कहा जाता है। साहित्य में सामाजिक परिवर्तन के विविध विचारों को रेखांकित किया जाता हैं। इसलिए वर्तमान में साहित्य ने एक नया वैचारिक स्वरूप प्राप्त किया है। जिसमें समाज का हित दिखाई देता है। वर्तमान समय में भारतीय समाज की वैचारिकी को देखते हुए विविध विमर्श सामने आ रहे हैं। दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श और पर्यावरणीय विमर्श इन सभी विमर्शों ने अपने-अपने स्तर पर सामाजिक परिवर्तन की भूमिका को प्रस्तुत करने का काम किया है। इन सभी विमर्शों में कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास विधाओं में साहित्य लिखा जा रहा हैं। इन विमर्शों के दौर को साहित्य की दृष्टि से समकालीन दौर कह सकते हैं। यह दौर लगभग 1960 से शुरू होता है और वर्तमान तक चलता रहता है। समकालीन कविता का उद्भव और विकास भी इसी दौर से माना जाता है। इसी समय में आदिवासी कविता विधा ने भी अपनी अलग-सी पहचान बनाई है। आदिवासी कविताओं में आदिवासी संस्कृति, अस्मिता, उनका अस्तित्व एवं आदिवासियत की विविध चित्र हैं। ‘आदिवासी संघर्ष’ आदिवासी इतिहास का केंद्र रहा है। इसलिए यह संघर्ष हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं में अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता है। हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में कविता लिखने वाले कवियों में डॉ. रामदयाल मुंडा, ग्रेस कुजूर, सरिता बड़ाईक, निर्मला पुतुल,  वंदना टेटे, महादेव टोपो,ओली मिंज,ज्योति लकड़ा, ओलाका कुजूर, जसिन्ता केरकट्टा, रोज केरकट्टा, सरोज केरकट्टा, नितिशा खलखो, ग्लेड्सन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदित्य कुमार मांडी, डॉ. गोविंद गारे, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, डॉ. विनायक तुमराम, डॉ.गोविंद गारे, उषाकिरण आत्राम, सुखदेव बाबु उईके, प्रा. वामन शेडमाके, चमुलाल राठवा, प्रा. माधव सरकुंडे, दशरथ मडावी, बाबाराव मडावी, सुनील कुमरे, विनोद कुमरे, डॉ. संजय लोहकरे, मारोती उईके, कृष्णकुमार चांदेकर, वसंत कनाके, इत्यादि प्रमुख माने जाते हैं। इन में से कुछ प्रतिनिधिक स्वरूप में निम्नलिखित हिंदी-मराठी कविताओं का अध्ययन किया गया हैं।

भारत में झारखंड राज्य आदिवासी बहुत क्षेत्र है। इस राज्य के आदिवासी समूह कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस राज्य का गठन 15 नवंबर 2000 में हुआ। इस राज्य के गठन के पहले और बाद में भी वहाँ के आदिवासियों के संसाधनों पर बाहरी लोगों ने अपना अधिकार बनाया है। इसके चलते वहाँ के आदिवासी को विस्थापन जैसे मुख्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। आधुनिकीकरण के चलते अब शहरों में प्रदूषण-ही-प्रदूषण दिखाई दे रहा हैं। जिसके कारण प्रकृति ने भी अपना रूप और रंग बदल दिया है। प्रकृति के ऋतुमानों बदल हो गया है। साथ ही पृथ्वी के विविध जीव-जंतुओं का भी वास्तव्य नहीं दिख रहा है। बल्कि गर्मी, धूल, ध्वनियों की आवाजों का शोर और एक दूसरे को मार-काट कर आगे बढ़ जाने की स्थिति बढ़ गई है। झारखंड के कुडुख भाषी कवि महादेव टोप्पो अपनी कविता ‘झारखंड गठन के बाद-कुछ दृश्य’ में लिखते हैं-

“राँची अब सिर्फ

एक पर्यटन स्थल नहीं है

राजधानी है

तरक्की की ऊँचाई में बढ़ते

भारत में एक उभरते महत्वाकांक्षी शहर का नाम है

जहाँ से गायब है अब ठंडी हवा

गायब है पक्षियों का कलरव

शोर है जुलूसों का, गर्मी है, धूल है

और होड़ है एक-दूसरे को काट आगे बढ़ जाने की”[1]

आदिवासी भारत के मूलनिवासी हैं। फिर भी आदिवासी को वनवासी कहा जाता रहा हैं। वनवासी यह शब्द उनको मान्य नहीं है, जिस तरह से ‘आदिवासी’ शब्द में स्वाभिमान है, अस्मिता है, आदिवासियत है उस तरह से ‘वनवासी’ शब्द में नहीं है। इसलिए आदिवासियों ने, आदिवासी साहित्यकारों ने इस शब्द का विरोध किया है। वे कहते हैं कि ‘हम वनवासी नहीं हैं, हम आदिवासी हैं, भारत के मूलनिवासी हैं’। किंतु तथाकथित वामपंथी समाज आदिवासियों को ‘वनवासी’ कहकर संबोध करता है। उनको पुरुषोत्तम कुमरे अपनी कविता ‘प्रश्न?’ के माध्यम से सवाल करते हैं-

आम्ही आदिवासी

खरे भारतवासी

राहतो कधी उपाशी

आमच्याच राज्यात आम्ही

का झालो वनवासी?[2]

आदिवासी हजारों सालों से जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई लड़ता आया है। फ़िर भी उनको-उनके मूलभूत अधिकार नहीं मिल पाए हैं। क्योंकि असंवैधानिक पद्धतियों से उनके जीवनोपयोगी संसाधनों को लूटा जा रहा है। इसलिए प्राचीन काल से अबतक का दौर आदिवासियों के लिए संघर्ष का दौर माना गया है। डॉ. भगवान गव्हाड़े अपनी कविता ‘उलगुलान’ में आदिवासी जीवन संघर्ष को प्रस्तुत करते हैं-

“दलित-आदिवासी-बहुजन और शोषितों की मुक्ति के लिए

वैश्वीकरण के इस अग्निगर्भ का कुचक्र भेदना होगा ममें भी

न केवल अपने मूलभूल अधिकार के लिए

बल्कि लड़ना होता

दहशतगर्दों से आतंकियों से

हिंसाचारियों से बलात्कारियों से

बर्बर राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से

भले ही लड़ाई का स्वरूप बदल चुका हो  

समय और काल के अनुसार

परिस्थिति और प्रश्न भले बदलते रहते हों

किंतु लड़ना होगा हमें हर हाल में

समता, बंधुता और विश्व शांति के लिए

वैचारिक लड़ाई का यह महासंग्राम

जारी रखना ही होगा युग-युग निरंतर...”[3]

कवि वाहरु सोनवणे आदिवासी महिलाओं की परिवारिक जीवन को ‘संध्या काळी रात्री’ कविता में प्रस्तुत करते हैं। आज भी आदिवासी बहुल क्षेत्रों में आदिवासी सामाज बहुत ही ग़रीबी से जीवन जी रहा है। वह रोटी-कपड़ा-मकान इन बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। महिलाओं को खाने-पीने में अत्यधिक पदार्थों का सेवन कम मिलने के कारण वह महिलाएँ कुपोषित बच्चों को जन्म दे रही हैं। साथ ही वे महिलाएँ अपने परिवार में सुबह से लेकर शाम तक काम करती रहती है। ऐसे ही एक आदिवासी महिला के पारिवारिक जीवन की कहानी वाहरु सोनवणे अपनी कविता में बताते हैं-

संध्या..काळी...रात्री

कुशीत तान्ह रि रि

करतंय ...

एक सावली जातं फिरवतेय

पीठ अश्रूंचं दळून संपतंय.[4]

आदिवासी कविता आदिवासी जीवन की व्यथा, वेदना, मृत्यु, प्रतिरोध, इतिहास और संस्कृति को अभिव्यक्त करती हैं। कवयित्री सरिता बड़ाईक ‘कविता’ में आदिवासी काव्य की पहचान को स्पष्ट करती है-   

 “मर्म-स्पर्शी स्फुटन का आल्हाद है कविता

सच है व्यथा का प्रसाद है कविता

वेदना के पहाड़ो से फूटती है कविता

बन जाती है जीवन का हिस्सा भय नहीं मृत्यु का

दान है क्षय नहीं ज्ञात है अज्ञान है कविता

सुनो! क्या कहती है कविता की धारा?”[5]

महाराष्ट्र की धरती फुले-शाहू-अम्बेडकर के विचारों की धरती है। यहाँ पर इन महापुरुषों ने वैचारिक क्रांति निर्माण के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं। यह वैचारिक क्रांतियाँ दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री विमर्शों में दिखाई दे रही हैं। कवयित्री उषाकिरण आत्राम अपनी कविता ‘का जुन्याच वाटेनं चालायचं’ में फुले, शाहू और अम्बेडकर विचारधारा की परंपरा को आगे ले जाने के लिए संदेश देती हैं-

सावित्री मायेची लेक मी हाये

बाबा भीमाची पाईक मी हाये

ज्योतीरावाची वारस होऊन

ज्ञानाची मशाल पेरायची हाय

सूर्यावानी साऱ्या जगाला

उजेड वाटीत चालायचं बा

का जुन्याच वाटेनं चालायचं बा?[6]

आदिवासी कवयित्रियों में निर्मला पुतुल का महत्वपूर्ण है। वे अपनी कविताओं में दो अस्मिताओं के संघर्ष को दिखाती हैं, एक आदिवासी और दूसरी स्त्री का संघर्ष। उनकी कविताओं के मुख्य स्वरों के बारे में उमा शंकर चौधरी लिखते हैं “आदिवासियों के समाज का बर्बरतापूर्ण इतिहास है, संघर्ष है और अंधकार है। चूँकि निर्मला एक स्त्री हैं इसलिए दुख और उसकी पराजय-सब यहाँ बहुत ही विश्वसनीय रूप में आया है। इन कविताओं में विचार है या कहें तो वर्षों से चला आ रहा विमर्श है परंतु यह कहाँ भी विमर्श की कविता नहीं लगती है। कहने का अर्थ साफ है कि निर्मला की कविताओं में इन विचारों के साथ-साथ कवितापन में कहीं भी कमी नहीं हैं। चूँकि कवयित्री ने इन दुखों को या तो खुद जिया है या फिर बहुत ही करीब से इन्हें देखा है इसलिए ये कविताएँ एक वेदना और प्रतिकार के स्तर पर सामने आई हैं।”[7] इन्हीं वेदनाओं को निर्मला पुतुल ‘बेघरों के सपनों से जुड़ा मेरा घर’ में लिखती हैं-

“मैं घर बना रही हूँ

घर मुझे बना रहा है

मैं कह नहीं सकती

लेकिन बात दरअसल यह है कि

मैं एक घर बना रही हूँ

घर, जिसमें मेरे सपने जुड़े हैं

मेरे अरमानों की ईंट लग रही है जिसमें

मैं घर बना रही हूँ”[8]

मराठी भाषा में कविता लिखने वाले प्रा. माधव सरकुंडे अपना जीवन कविता के माध्यम से स्पष्ट करना चाहते हैं। वे अपनी कविता ‘मी कविता लिहत नाही’ काव्य पक्तियों से कहना चाहते हैं कि मैं कविता लिखता नहीं हूँ, कविता ही मुझे लिखवाती है। मेरा दुख ही मेरी कविता है और रो रहें आदमी की जीवन गाथा है। उनकी कविता की चंद पक्तियाँ इस प्रकार हैं-

मी कविता लिहत नाही

माझे हदय शिंपडतो कागदावर

मी कविता लिहत नाही

पेटलेल्या शब्दाचे चुंबन घेतो

मी कविता लिहत नाही

भिजलेल्या पापाण्यासाठी अंगाई गातो

मी कविता लिहत नाही

कविताच लिहते मला

अन् मुक्त करते मला

मृगजळानी वेढलेल्या आयुष्यातून[9]

इस प्रकार से हिंदी-मराठी की आदिवासी कविताएँ अपने जीवन संघर्ष को प्रस्तुत करती है।  आदिवासी काव्य परंपरा पर कवियीत्री वंदना टेटे लिखती हैं “मैंने कभी ये नहीं सोचा कि लिखी गयी कविता अच्छी है या नहीं कविता है भी या कि नहीं। मुझे लगता है कि जैसे पेड़-पौधों पर नैसर्गिक रूप से फूल खिलते हैं, आसमान में सूरज, चाँद-सितारे और बादल मनोहारी कलाएँ रचते हैं, वैसे ही व्यक्ति की भावनाएँ और विचार शब्दों के जरिए कोरे पन्नों पर टंग जाया करते हैं। कविता के प्रतिमान कैसे होने चाहिए या काव्यशास्त्रीय दृष्टि से कविता में किन-किन लक्षणों का होना ज़रूरी है, ये सब वर्चस्ववादी बाधाएँ हैं। गैर-आदिवासी काव्य परंपरा से ऐसे सामंती और आलोचकीय वर्चस्व को छिनकर ही कविता के नैसर्गिक विश्व की रक्षा की जा सकती है।”[10]

संदर्भ ग्रंथ

[1] गुप्ता, रमणिका. (सं.). (2015). कलम को तीर होने दो (झारखंड के आदिवासी हिंदी कवि). नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 125

[2] तुमराम, डॉ. विनायक. (सं.). (2003). शतकातील आदिवासी कविता. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 273

[3] गव्हाड़े, डॉ. भगवान. (2015). आदिवासी मोर्चा. नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 7-8

[4] सोनवणे, वाहरु. (2006). गोधड. पुणे : सुगावा प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 2 

[5] बड़ाईक, सरिता. (2013). नन्हें सपनों का सुख. नई दिल्ली : रमणिका फाउन्डेशन. पृष्ठ संख्या. 141

[6] आत्राम, उषाकिरण. (2009). लेखणीच्या तलवारी. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 90

[7] पुतुल, निर्मला. (2014). बेघर सपने. पंचकूला, हरियाणा : आधार प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. (भूमिका से)

[8] पुतुल, निर्मला. (2014). बेघर सपने. पंचकूला, हरियाणा : आधार प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 76

[9] सरकुंडे, प्रा. माधव. (2011). मी तोडले तुरुंगाचे दार. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 29 

[10] टेटे, वंदना. (2015). कोनजोगा. राँची : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 6

डॉ.दिलीप गिऱ्हे

हिंदी विभाग,

सहायक प्राध्यापक,

वसंतदादा पाटील कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा

जिला-बीड (महाराष्ट्र)-414204

ईमेल: girhedilip4@gmai.com

संपर्क सूत्र: 9284669525

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