सोमवार, 18 मार्च 2024

‘आदिवासी मोर्चा’ में अभिव्यक्त वैश्वीकरण की असली शक्लें Aadiwasi Morchya Mein Abhivyakt Vaishvikaran Ki Asali Shklen

 


‘आदिवासी मोर्चा’ में अभिव्यक्त वैश्वीकरण की असली शक्लें

                                -डॉ.दिलीप गिऱ्हे 

21 वीं शताब्दी में देश का चेहरा-मोहरा बदलने वादी घटना को साहित्यिक दृष्टी से वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण कहा जाता है । यह दौर 1990 से माना जाता है । इस परिवर्तन का भारतीय समाज व्यवस्था पर कुछ अनुकूल परिणाम हुआ तो कुछ प्रतिकूल परिणाम हुआ । हजारों सालों से विश्व में वास्तव्य करने वाले आदिवासी समाज के ऊपर इस परिवर्तन का प्रभाव कुछ ओर ही पड़ा । वैश्वीकरण ने आदिवासी समाज का जीना मुश्किल कर डाला । जब इसकी खबरें समाचार पत्रों में, टेलिव्हिजन पर, रेडिओं पर प्रसारित होने लगी हैं । तो इसका प्रभाव आदिवासी समाज किस तरह से पड़ा हुआ होगा इन खबरों से । एखाद मनुष्य जिन परिस्थितियों से गुजरता है वहीं परिस्थितियां उन्हें मजबूर कराती है । इन सभी परिस्थितियों को वह कलम के माध्यम से समाज के सामने लाने की कोशिश में रहता है । इन सभी परिस्थितियों में आदिवासी हमेशा लिखता रहा और हमेशा लिखता रहेगा । हमने अपनी दुख भरी व्यथा को कागज पर उतारा । वही आगे चलकर आदिवासी विमर्श या आदिवासी साहित्य के रूप में सामने आया । इसी साहित्य में कविता विधा में बहुत ही प्रभावी ढंग से कविता लिखने वालों में विद्रोही आदिवासी लेखक युवा कवि डॉ. भगवान गव्हाड़े का नाम आता है । मराठी भाषी लेखक होने के बावजूद भी इन्होने हिंदी में ‘आदिवासी मोर्चा’ नाम का कविता संग्रह लिखा जो कि 2015 में वाणी प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ । वह आज भी आदिवासी कविताएँ लिखते रहते है और हमेशा लिखेंगें । डॉ.बाबासाहेब अम्बेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद में अध्यापन का काम कर रहे है । ‘आदिवासी मोर्चा’ इस कविता संग्रह में मेरे विचार से वैश्वीकरण की पर्दाफाश करने वाली कविता में ‘वैश्वीकरण की असली शक्ल’, ‘आदिवासी संकृति’, ‘होरी की याद में’, ‘अब न होगी पुनरावृति’, ‘शायनिंग इण्डिया’, ‘संचार माध्यम’, ‘भ्रूणहत्या’, ‘औरत’, ‘भारत का वर्तमान’, ‘देहात्मा’, ‘राजधानी’, ‘जनमत से जनपथ’ और ‘भारतवासी’ आदि कविता महत्वपूर्ण हैं । आदिवासी जीवन पर वैश्वीकरण का प्रभाव किस तरह से पड़ा है इसका वर्णन उनके कविताओं में दिखाई देता है । वे ‘आदिवासी मोर्चा’ में ‘वैश्वीकरण की असली शक्ल’ इस कविता में लिखते हैं कि-

“कब की मूँद ली हैं

उसने अपनी आँखें

मौन हो गयी उसकी वाणी

ख़त्म हो गयी  बोली-भाषा

 छीन ली गयी है उसकी संस्कृति

  बन्द कर दिया गया है उसका संगीत

मिटा दी गयी उसकी नस्ल

यही तो हैं वैश्वीकरण की असली शक्ल”। 1

आज इस बाजारीकरण के दौर में कई आदिवासी समुदाय अपनी अस्मिता खो बैठे है । हमें धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया है सच कहाँ जाये तो आदिवासी हिन्दू नहीं है उनका अलग- सा धर्म है, संस्कृति है, बोली भाषा है, संगीत है, नृत्य है । लेकिन इस वैश्वीकरण ने उनकी पहचान नष्ट की है । आज बहुत से आदिवासियों का धर्मान्तर किया है उन्हें हिन्दू बनाया गया है । जिस जंगलों में हम रहते हैं उन्हीं जंगलों से हमारा लगाव हैं प्रेम है । आज प्रकृति के हर हिस्से के साथ है आदिवासी । लेकिन आज प्रकृति के हर हिस्सों को उजाड़ा जा रहा हैं । भूमंडलीकरण ने जीवन पर बहुत ही आघात किया है । जहाँ बड़े-बड़े सुंदर से पहाड़ थे वह हटाकर लम्बी लम्बी सुरंगे बनाई गई हैं, बनाई है रेलगाड़ी की पटरियां । झरनों, नदी, नालों को कुचलकर उसके जगह बड़ी-बड़ी खदाने बनाई गई है । जिसके प्रदुषण से आज हजारों आदिवासी समाजों की जिंदगी बरबाद हो गई हैं ।  हमें कई रोगों का शिकार होना पड़ा हमारें बच्चे कुपोषण का शिकार बन गए । हमारें ही जगहों से हमें भगाया गया, विस्थापित किया गया । इसका परिणाम यह हुआ की हेमें  जबरदस्ती महानगरों में रहने की परिस्थिति निर्माण हो गई । और खड़ा होंना पड़ रहा है बेरोजगारों और भिखमंगों के कतार में । वास्तव में आदिवासी संकृति जल, जंगल, और जमीन का हमेशा बचाव करती आई है और हमेशा करती रहेगीं । इस धरती पर जितने भी प्राकृतिक उपादान है उसके हर हिस्सों के साथ आदिवासी समाज का नाता जुड़ा हुआ है और हमेशा रहेगा । हमारें  देव-देवता प्रकृति का हर हिस्सा है । हमारी संकृति मतृसता प्रधान है । तो हमारा साहित्य धरती माँ का गुणगान करने वाला साहित्य है । भारतीय संविधान ने हमारें कायदें-कानून अलग बनाये है लेकिन यह सरकार जान बुझकर हमारें हक्कों या अधिकारों का जवाब नहीं दे रही है बल्कि हमारें हक्क देने के बजाय छिन लिए जा रहे है लेकिन यह कब तक चलेगा । उन्हें पत्ता नही कि आदिवासी सिर्फ कलम उठा रहां है लेकिन जब वह तीर को उठाएगा तो इस शोषण करनेवालों को जगह नही मिलेगी भागने के लिए । क्या संविधान में ऐसा कहा लिखा है की आदिवासियों कि जमीनों पर बड़े-बड़े व्यापारी उद्योग स्थापित किया जाय । इस बात पर डॉ. भगवान गव्हाड़े ‘शायनिंग इण्डिया’ इस कविता में कहते हैं कि-

“गरीब किसान और मजदूर

दलित-आदिवासी है मजबूर

भूमंडलीकरण के नाम पर

हो गए बेचारे चकनाचूर”। 2

बदलते हुए इस देश में जिस तरह से अपराध हो रहे है । इस अपराधों में सबसे ज्यादा अपराध आदिवासियों पर हो रहे है । प्राचीन काल से मध्यकाल, मध्यकाल से रीतिकाल, रीतिकाल से आधुनिक काल...से उत्तराधुनिक काल तक आदिवासियों का शोषण नही रुका । प्राचीन काल में सेठ, साहूकार, जमींदारों ने आदिवासियों का शोषण किया । और आज संचार क्रांति के युग में सामंतवाद शोषण कर रहा है । जिन आदिवासियों का अतीत डूबा अंधकार में तो हमारा भविष्य क्या होगा? आज हमारी सरकार ‘शायनिंग इण्डिया’ की बात कर रही है । यह शायनिंग इण्डिया उन लोगों के लिए है जो लोग संसद में बैठकर बड़ी-बड़ी बाते करते है और विकास की योजना केवल कागजों पर ही बनते है वास्तव में आदिवासियों के लिए नहीं । इसी  इण्डिया में गरीब किसान, मजदूर और आदिवासी ही अपना जीवन बरबाद कर चुंका है । डॉ. भगवान गव्हाड़े ‘पुनरावृति’ इस कविता में कहते हैं कि-

“वैश्वीकरण और यंत्रयुग ने

तुम्हारी करुणा और संवेदना कर दी है नष्ट

वर्तमान बदल कर किया है भ्रष्ट

क्यों हो चुके हो तुम पाषाण

भविष्य को बुद्धमय भारत बनाने का सपना

क्यों कर रहे हो चकनाचूर”। 3

परन्तु यह दौर जितना भी घातक है उतना ही प्रतिरोध आज आदिवासी समाज कर रहा है और आगे भी करता रहेगा । हम बिरसा मुंडा, राणी झलकारी बाई, राणी दुर्गावती, तंटया भिल्ल, के विचारों की क्रांति जला रहे है अब यह क्रांति नहीं रुकेगी बल्कि जय भीम..जय बिरसा मुंडा ..जय जोहार...राज करेगा गोंडवाना के नारों से ओर भी तेज हो जाएगी । बिरसा मुंडा का उलगुलान फिर से आएगा एक नया समाज, नया देश । आज संचार माध्यमों के जरिए सुबह सुबह अखबारों में खून, बलात्कार, चोरी-डकेती, लुट-पात, आत्महत्या की बारदाते सुनने को मिल रही है । यह भी एक भूमंडलीकरण का ही असर है । ‘भारत का वर्तमान’ इस कविता में कवि कहता हैं कि-

“लोकपाल के हथियार को

कर दिया क्षण में जोकपाल

करोड़ों रुपयों की धनसम्पति को

स्विस बैंक में रख हो गए मालामाल”। 4

जिस देश में चार वर्ण व्यवस्था है, ब्राह्मण, क्षेत्रीय, वैश्य और शुद्र उसी हिसाब से आज देश की सम्पति भी बट्टी हुई है । जिस देश में मानवाधिकार की बातें की जाती है उसी देश में लोकपाल विधेयक को भी जोकपाल बनाया जाता है । जो लोग अमीरी में जी रहें है जिनके पास करोड़ों रुपयों की सम्पति स्विस बैंक में पड़ी हुई है अगर वह पैसा भारत में गरीब मजदुर, किसान, आदिवासियों की समस्या को लेकर इस्तेमाल किया जाये तो ‘समानता’ आने में ज्यादा दिन नहीं लगेंगे । लेकिन ऐसा नही हो रहा हैं जो लोग सत्ता में हैं वह खुर्ची का गलत इस्तेमाल कर रहे है । और अपना खुद का भविष्य देख रहे हैं बल्कि  देश का, राष्ट्र का और गाँव का नहीं|

निष्कर्ष:

     वैश्वीकरण को बाजारीकरण, बहुराष्ट्रीयकरण, भूमंडलीकरण, खाजगीकरण, व्यापारीकरण ऐसे अलग-अलग नाम हैं तो इसका परिणाम क्या हुआ होगा? यह आज सभी को दिखाई दे रहा है इसी परिणाम के कारण आज रो रहें हैं पर्वत, रो रहीं  है नदियाँ, रो रहें हैं जंगल, रो रहा हैं आदिवासी, रो रहा हैं मजदूर, रो रहा हैं किसान । इतनी सारी रोनें की आवाजें चोरों ओर से आ रही है तो क्या वैश्वीकरण के अनुकूल परिणाम हुए है? आज शहर में जो भागदौंड भरी जिंदगी में सबसे पहले गरीब लोग ही ज्यादा शोषित हो रहे हैं । इनका एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है । इतना ही नहीं गरीब आदिवासियों के बच्चें का अपहरण कर के उन्हें बेचा जा रहा है । उनके साथ अन्याय-अत्याचार किया जा रहा है । यह सब करने में जिम्मेदार हैं व्यापारी वर्ग, सामंतवादी वर्ग । आज यह सब अलग-अलग शक्लें जो दिखाई दे रही हैं वह सभी के सभी वैश्वीकरण की असली शक्लें हैं।

संदर्भ:

1१ गव्हाड़े भगवान, आदिवासी मोर्चा(कविता संग्रह), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण -2015, पृष्ट संख्या-10

2२ वही, पृष्ट संख्या- 37

3३ वही, पृष्ट संख्या-39

4४ वही, पृष्ट संख्या-56

 

 

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