हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में
जीवन-संघर्ष
-डॉ. दिलीप गिऱ्हे
सन् 2000 के बाद हिंदी और मराठी कविताओं
में आदिवासी जीवन-संघर्ष को प्रस्तुत करने वाले प्रमुख हिंदी कवियों में, डॉ. रामदयाल
मुंडा, ग्रेस कुजूर, सरितासिंह बड़ाईक, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, महादेव टोपो,ओली मिंज,ज्योति लकड़ा,
ओलाका कुजूर, जसिन्ता केरकट्टा, रोज केरकट्टा, सरोज केरकट्टा, नितिशा खलखो, ग्लेडसन
डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदित्य
कुमार मांडी आदि प्रमुख हैं। मराठी कवियों
में डॉ. गोविंद गारे, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, डॉ. विनायक तुमराम, डॉ.गोविंद
गारे, उषाकिरण आत्राम, सुखदेव बाबु उईके, प्रा. वामन शेडमाके, चमुलाल राठवा, प्रा.
माधव सरकुंडे, दशरथ मडावी, बाबाराव मडावी, सुनील कुमरे, विनोद कुमरे, डॉ. संजय
लोहकरे,मारोती उईके, कृष्णकुमार चांदेकर, वसंत कन्नाके, आदि प्रमुख हैं। प्रस्तुत
शोध विषय में हिंदी और मराठी के उन कवियों के ही कविता संग्रहों को लिया जाएगा
जिनके कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हिंदी में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों
का सुख’, निर्मला पुतुल का ‘बेघर सपने’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा’, सं. रमणिका
गुप्ता का ‘कलम को तीर होने दो’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा’, आदित्य
कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल फूल’, सं. हरिराम मीणा का ‘समकालीन आदिवासी कविता’
ओली मिंज का ‘सरई’ आदि कविता संकलन महत्वपूर्ण हैं| मराठी
में उषाकिरण आत्राम का ‘लेखणीच्या तलवारी’, वसंत कन्नाके का ‘सुक्का सुकूम, सं.
प्रा.डॉ.विनायक तुमराम का ‘शतकातील आदिवासी कविता’, वाहरु सोनवणे का ‘गोधड’, भुजंग
मेश्राम का ‘अभुज माड़’, बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’, मोरोती उईके का ‘गोंडवनातला
आक्रंद’, विनोद कुमरे का ‘आगाजा’, माधव सरकुंडे के ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ एवं
‘चेहरा हरवलेली माणसं’, डॉ. संजय लोहकरे का ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक
देश’ आदि प्रमुख हैं।
हिंदी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष:
हिंदी आदिवासी कवियों में डॉ.रामदयाल
मुंडा आदिवासी जनमानस के पुत्र माने जाते है। वे छोटी-छोटी कविताएँ लिखते थे। लेकिन उनकी कविताओं की खूबी यह मानी जाती
हैं कि वे मानवीय प्रेम, मूल्य तथा विकृतियों की अभिव्यक्ति बड़ी खूबी से प्रकृति
या पशु-पक्षियों के प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते है। प्रेम का रिश्ता उनकी
कविता में जंगल-पेड़-तीतर के माध्यम से अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता हैं। दूसरी
ओर महादेव टोपो की कविताओं में इस देश की समाज व्यवस्था को बदलने के लिए ‘जंग लगे
तीरों पर नई धार लाने का गीत’ गाते है। वह आदिवासी समाज की दुर्दशा एवं उनकी व्यथा,
आदिवासी समाज में अज्ञानता तथा अशिक्षा के कारण फैले अंधकार को कविताओं के माध्यम
से व्यक्त करते हैं। मुंडारी भाषा के सशक्त युवा कवि ‘अनुज लुगुन’ हिंदी कविता
लिखते है। उनकी कविताओं में पुरे देश का
आदिवासी इतिहास झांकता है, उनकी कविताओं में इतिहास है, संस्कृति है, उत्साह है,
उम्मीद है, संकल्प है हक्क और हौसला है। दूसरी ओर निर्मला पुतुल हमें बाजारवाद के
खतरों से अवगत कराती है, वह स्त्री-जीवन की सूक्ष्मताओं, विद्रूपताओं, त्रासदियों
को भी उकेरती है। आदिवासी जीवन के जड़ों तक जाकर उसकी जीवन शैली, सामूहिकता, संस्कृति,
भाषा एवं शैली अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं। हिंदी कविताओं में सन् 2000 के
बाद की कविताओं में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख’, निर्मला पुतुल का
‘बेघर सपने’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा’, सं. रमणिका गुप्ता का ‘कलम को तीर होने
दो’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा’, आदित्य कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल
फूल’, सं. हरिराम मीणा का ‘समकालीन आदिवासी कविता’ आदि कविता संकलन
महत्वपूर्ण हैं।
सरितासिंह बडाईक
यह नागपुरियां भाषा की कवयित्री है इन्होंने नागपुरियां और हिंदी भाषा में ‘नन्हें
सपनों का सुख’ यह कविता संग्रह लिखा है। वह इस कविता संग्रह में लिखती हैं कि
कविताओं में व्यक्तिगत कुंठा न होकर झारखण्ड के आदिवासियों क सच हैं। इस देश के हर
एक नन्हें की क्या सपने हैं? नन्हीं नन्हीं क्या अपेक्षाएं हैं? बड़ी बड़ी
मजबूरियां क्या हैं? इन सभी प्रश्नों पर उनकी कविताएँ सवाल खड़ा करती हैं। प्रकाशन
की दृष्टि से यह कविता संकलन हिंदी कविताओं में प्रथम कविता संकलन माना जायेगा।
उनकी कविताएँ गीतों की गेयता से कदम-ताल करती हुई दिखाई देती हैं। ‘जतरा’ कविता
में वह एक बच्ची की मेले में जाने की जिज्ञासा और आकांक्षा का मनोविज्ञान प्रस्तुत
करती है। ‘मोरपंखी’ कविता में वह झारखण्ड का ग्रामीण परिवेश को सामने लाती है। दूसरी
ओर औरतों को भोग का वस्तू बनाने से नकारने वाली कविता ‘तकियां और ‘मैं क्या हूँ’
यह हैं। ‘करमी’, ‘घासवाली’, ‘फगनी’, ‘सुगिया’ यह कविताएँ तो भिन्न-भिन्न परिवेश
की कथाएँ, समाज और व्यवस्था से जवाब मांगनेवाली हैं। सरितासिंह बड़ाईक जी ऐसे
आदिवासी समाज से आती है जिसका अस्त्तित्व आज हमें अँधेरें में दिखाई दे रहा है।
उन्होंने अपने वाणी को कागज पर अभिव्यक्ति के लिए आर्यभाषा की एक बोली नागपुरियां
भाषा को एक माध्यम बनाया है।
दूसरी ओर हरिराम मीणा भी अपनी संपादित
किताब ‘समकालीन आदिवासी कविता’ में वह कहते हैं कि-“कविता के मुख्य रूप
से चार तत्व होते हैं यथा स्त्रोत, शब्द, शिल्प और संदेश। इन्हीं तत्वों को लेकर
कविता अपनी अभिव्यक्ति करती है।” वह आदिवासी कविताओं के विश्लेषण के बारें में
कहते हैं कि आदिवासी जीवन का गहन अनुभव, विषयानुरूप भाषा का मुहावरा,
सम्प्रेषनियता और प्रकृति तथा मानवता के सुख-दुःख में शामिल होने की प्रेरणा आदि
बातें सामने आएगी। इस कविता संकलन में अनुज लुगुन की ‘हमारी अर्थी शाही हो नही
सकती’, ग्रेस कुजूर की ‘हे समय के पहरेदारों’, निर्मला पुतुल की ‘संथाली लड़कियों
के बारे में कहा गया हैं’, भुजंग मेश्राम की ‘ओ मेरे बिरसा’, मंजु ज्योत्स्ना की
‘विस्थापित का दर्द’, भुवनलाल सोरी की ‘उजाले की तलाश में’, महादेव टोप्पो की ‘फिर
भी हम कहते है तुम्हें जोहार’, वाहरु सोनवणे की ‘मेधा और आदिवासी’, हरिराम मीणा की
‘आदिवासी और यह दौर’ इन सभी कविताओं में आदिवासी अस्तित्व का संकट, प्रस्थापित
व्यवस्था के प्रति आदिवासियों का विद्रोह, आदिवासियों का होता हुआ शोषण, जल, जंगल
और जमीन का प्रश्न इन सभी बातों पर यह कविताएँ अपनी चिंता व्यक्त करती हैं।
‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’
इस कविता संग्रह से लोकप्रियता पानेवाली कवयित्री निर्मला पुतुल है। ‘बेघर
सपने’ यह उनका एक नया कविता संग्रह है। वह एक ऐसी कवयित्री है जिन्होंने दो
अस्मिताओं को जबरदस्त रूप में उठाया हैं। जिसमें
आदिवासी और स्त्री संघर्ष प्रमुख हैं। बेघर सपने इस कविता संग्रह की
कविताओं में ‘मिटा पाओगे सबकुछ’ ‘समाज’, ‘वेश्या’,‘आखिर कहे तो किसे कहें’,
‘औरत’,‘आखिर कब तक’ ऐसी कई कविताओं में आदिवासियों का संघर्षरत इतिहास और
अंधकारमय जीवन दिखाई देता हैं। उनके कविताओं को बहुत ही करीबी से देखा जाए तो
उसमे वेदना और प्रतिकार का रूप दिखाई देता है। वंदना टेटे ‘कोनजोगा’ इस कविता संग्रह
के भूमिका में लिखती हैं कि-“साहित्य मतलब किताबी विधाएं नहीं। हम आदिवासियों
के लिए साहित्य का मतलब हैं नाचना-गाना, बजाना, परफोर्म करना और कहानियाँ,
गीत-कविताएँ सिरजना।” उनकी कविताओं में ‘प्रकृति प्रेम’ झलकता हुआ दिखाई देता
है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-झरनें, चाँद-तारें, असमान में सूरज इन जैसे कई
प्रकृति के उपादान उनकी कविताओं में दिखाई देते हैं। रमणिका गुप्ता ने झारखण्ड के 17 कवियों की चुनी हुई कविताओं का
संकलन ‘कलम को तीर होने दो’ यह निकाला है। इस कविता संग्रह में रामदयाल
मुंडा, अनुज लुगुन, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्पो, ओली मिंज, ज्योति लकड़ा, आलोका
कुजूर, जसिंता केरकेट्टा, नीतिशा खलखों,निर्मला पुतुल, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू,
रोज केरकेट्टा, सरोज केरकेट्टा, ग्लेडसन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, सरितासिंह बड़ाईक, आदि कवियों
की कविताएँ हैं। इन सभी कवियों की कविताओं में मानवीय मूल्यों की पहचान,
आदिवासी जीवन शैली, और साथ ही स्वतंत्रता, समता, और बंधुता का भाव दिखाई देता
हैं।
डॉ.भगवान गव्हाड़े ने ‘आदिवासी मोर्चा’
इस कविता संग्रह में उलगुलान, वैश्वीकरण की असली शक्त, आदिवासी संस्कृति, आदिवासी
मोर्चा, किसान, संचारमाध्यम, अपने जंगल की तलाश, औरत, भारत का वर्तमान, राजधानी,
जैसी कविताओं में आदिवासी समाज का पारिवारिक जीवन, आदिवासी संस्कृति, भूमंडलीकरण
का आदिवासी जीवन पर होने वाला परिणाम, किसान जीवन, जल, जंगल, और जमीन के प्रश्न,
भारत का भविष्य क्या होगा? ऐसे तमाम सारें मुद्दों को लेकर सवाल उठायें हैं। तो
आदित्य कुमार मांडी ने ‘पहाड़ पर हूल फूल’ इस कविता संग्रह में कारगिल लढाई,
कौन गोलिचलाता है, मानवता, समानता, खामोश क्यों? जमीन, मैं माओवादी नही हूँ,
गरिबी, इंसानियत, भाषा मैं आजाद हूँ। इन जैसी कविताओं में नक्सलवादी कौन है?
आदिवासी कुपोषण का शिकार क्यों बना? ऐसे महत्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। ओली
मिंज जी ‘सरई’ इस कविता संग्रह में -शायद मैं आदमी हूँ, जोहार, बाजार, सरई,
मंजिल भी क्या चुनी, धर्म का मर्म, आदिवासी, साड़ी गुटनों तक, बदलाव का दौर,
झारखण्ड की धरती, कुदरत का रिवाज ऐसी कविताएँ लिखकर वह आदिवासी धर्म? महिलाओं का
बाजारीकरण? झारखण्ड की प्राकृतिक उपदा इन जैसे कई मुद्दों को वह कविताओं के माध्यम
से सामने लाते हैं।
मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष:
मराठी आदिवासी कविताओं में आदमियता की
खोज दिखाई देती है। इस साहित्य से यह पता चलता है कि आदिवासी साहित्य आर्य
संस्कृति और आदिम संस्कृति के संघर्ष की पहचान है। पूंजीपति, साहूकार और जमींदारों
ने आज तक आदिवासियों का शोषण ही किया हैं। आर्य-संस्कृति वर्णवाद के पैर तले रौदती आई इसी
कारण आदिवासी संस्कृति आर्य-संस्कृति का तीखा विरोध करती है। वर्तमान समय में आदिवासियों पर हो रहें
अन्याय-अत्याचार पर प्रहार करते हुए भुजंग मेश्राम लिखते हैं कि “सुबह के चाय
के साथ-साथ आज हर दिन आदिवासियों की उत्पीडन की खबरे सामने आ रही हैं।” इसलिए
आज आदिवासी समाज की जिंदगी महँगी हो गई हैं। आदिवासियों का दर्द इस व्यवस्था की
उपज है। यह सोचकर आदिवासी कवि कविता को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। अन्याय और
अत्याचार के खिलाफ उनकी कविता एक क्षेपणास्त्र की तरह टूट पड़ती है। प्रा. वामन
शेडमाके की कविताओं में साहूकारी शोषण दिखाई देता है। वह कहते हैं कि साहूकार ‘कम
दाम और ज्यादा काम’ इस नीति से आदिवासियों का शोषण करते हैं। उषाकिरण आत्राम की कविताओं में जुझारू पण दिखाई
देता है वे कहती हैं कि “हम कब तक अन्याय-अत्याचार सहते रहेंगे जो लोग हमपर जिस
शस्त्रों से वार कर रहे हैं उनके ही
शस्त्रों से हम उन्हें सबक सिखायेगें।” इसी तरह से मराठी आदिवासी कविताओं में एहसास
दिखाई देता हैं युग संवेदना को वाणी देने वाली यह कविता अपनी आंचलिक संस्कृति को
स्पष्ट कराती हैं।
मराठी आदिवासी कविताओं
में कवि वसंत कनाके का ‘सुक्का सुकूम’ यह कविता संग्रह ‘आदिवासी अस्मिता’
का मुखपत्र माना जाता है। क्योंकि आदिवासी समाज की जीवन अनुभूति और उनकी वेदना को
रेखांकित करने वाला यह कविता संकलन है। कोलामी भाषा में ‘सुक्का’ का अर्थ ‘तारें’
हैं। और ‘सुकूम’ का अर्थ है ‘तारका’। आज आदिवासियों के हक़ और अधिकारों का हनन हो
रहा हैं। कवि वसंत कनाके उनकी कविताओं में विद्रोह का स्वर दिखाते है। यह उनका
पहला कविता संग्रह है उनकी कविताओं में- ट्राइब टायगर, आरक्षण, शोषण, अन्याय,
गुलाम, षड्द्यंत्र, भ्रष्टाचार, इन जैसी कविताएँ ‘आदिवासी अस्मिता’ के ऊपर
अपनी बात रखती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासियों का धर्म, उनका जीवन, उनको नक्सली
घोषित करना, उनकी गरीबी, उनकी अस्मिता, उनकी भाषा, उनका विकास, भ्रष्टाचारी शासन
व्यवस्था आदि मुद्दों पर उनकी कविता विचार विमर्श करती हैं। मराठी आदिवासी साहित्य
में कलम को तलवार बनाने वाली कवयित्री ‘उषाकिरण आत्राम’ है। उनका ‘लेखनीच्या
तलवारी’ यह चौथा कविता संग्रह हैं। उनकी कविताओं में दुःख, वेदना,
अन्याय-अत्याचार और शोषण के खिलाफ एल्गार पुकारा गया हैं। उनकी कविताएँ हाशिए के
समाज के विविध प्रश्नों पर सवाल खड़े करती हैं। कवि प्रा. विनायक तुमराम
इन्होंने मराठी आदिवासी साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन करकर कई पुस्तके लिखी हैं। मराठी
के सभी आदिवासी कवियों की कविताओं को संकलित करकें ‘शतकातील आदिवासी कविता’
यह कविता संग्रह प्रकाशित किया है। इस कविता संग्रह में 22 कवियों की कविताएँ हैं।
वह कहते हैं कि-“जंगल से लेकर पर्वत तक, पर्वत से लेकर गाँव तक ऐसा विशाल जीवन
जिने वाला आदिवासी समाज है।” उनकी कविताएँ आदिवासियों का दुःख, उनकी भावनाएं,
उनकी इच्छा एवं आकांक्षाएँ, उनके विविध प्रश्न और समस्याएं, उनका इतिहास, उनकी
भाषा, इन सभी बातों का दर्शन कराती हैं। सामंतवादी
व्यवस्था पर अपनी कलम को तेज प्रहार करने वाला कवि वाहरु सोनवणे है। वह पिछले 32 साल से आदिवासियों के जनांदोलनों से
जुड़े है। उन्होंने सन् 1972 में ‘श्रमिक संघटन’ स्थापन किया। इस संघटन के माध्यम से वह मजदूर वर्ग और
आदिवासियों के हक़ और अधिकार के लिए आज भी संघर्ष कर रहे है। आदिवासी साहित्य
आंदोलन और आदिवासी एकता परिषद के माध्यम से वह कई राज्यों में साहित्य और
सांस्कृतिक क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे है। उनका ‘गोधड’ यह पहला कविता संग्रह है। जिसे
हम हिंदी में ‘रजाई’ कहते है। वह कहते हैं कि ‘गोधड’ यह कई प्रकार की हो
सकती हैं जैसे- मुलायम, आलीशान। लेकिन मेरी जो गोधड है वह सभी तरह से फटी हुई हैं।
रात में सोते समय मेरी गोधड से चाँद और
तारें दिखते हैं। मेरे आंदोलन में का सहभागी अम्बरदादा इस फटी हुई गोधडी में पलता
गया। गोधड बनाने के लिए कई सारें फटे हुए
रंगों के कपडे की जिस तरह से जरूरत होती हैं। उसी तरह से उनकी कविताओं में भी
आदिवासियों का फटा हुआ या विस्थापित (बिखरा हुआ) जीवन दिखाई देता हैं। वह ‘स्टेज’
जैसी कविताओं के माध्यम से कहते हैं कि-“हमारी समस्या को हमें ही कहने दें। आदिवासियों
में नेतृत्व का गुण विकसित होने दें। नेतृत्व का गुण सीखने में गलतियाँ होगीं। गलती
करने पर ही तो हम सीखेंगे। अपने जीवन के मुलभुत प्रश्नों को हम ही कहेंगे।” दूसरी
ओर भुजंग मेश्राम ‘अभुज माड़’ इस कविता संग्रह में ‘अभुज माडिया’ इस आदिवासी
समाज का वर्णन करते हैं। अबूझ माड़ यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ के बस्तर का बहुत ही पिछड़ा
क्षेत्र है। नारायणपुर जिले से कुछ ही दूरी पर स्थित है। यहाँ पर अभुज माडिया यह
आदिवासी समूह वास्तव्य करता हैं। इस जनजाति का संस्कृति, अस्मिता और भाषा को कवि
भुजंग मेश्राम ने स्पष्ट किया हैं। बाबाराव मडावी के
‘पाखरं’(हिंदी में पंछी) इस कविता संग्रह में सामाजिक
परिवर्तन लाने के लिए एक नयी विचारधारा हैं। आदिम समाज की अवस्था तथा उनकी क्रांति
की दिशाएं इस कविता संग्रह में दिखाई देती है। समाज में जी रहें लोगों के जीवन में
अँधेरा ख़त्म करके नई रोशनी, नया उजाला लाने की बात इस कविता संग्रह की कविताएँ
करती हैं। मारोती उईके का
‘गोंडवनातला आक्रंद’ यह कविता संकलन है। इसमें कवि ने गोंडवाना क्षेत्र के
आदिवासियों द्वारा किया गया आक्रोश दिखाया हैं। उनकी कविताओं में भारतीय समाज
व्यवस्था का चित्र, सरकार की शासन निति, आदिवासियों का आर्थिक जीवन, उनका धार्मिक
जीवन, उनकी संस्कृति, शहीद आदिवासी क्रांतिकारकों के इतिहास की पहचान ही उनकी
कविताओं की विशिष्टता हैं। विनोद कुमरे ने ‘आगाजा’ इस कविता संग्रह में
अन्याय और अत्याचार के खिलाफ क्या क्या चुनौति है यह बताया है। आगाजा यह गोंडी भाषा का शब्द है जिसका हिंदी
अर्थ ‘चुनौति’ है। कवि की घोषणा ही
शोषण के खिलाफ एक बड़ी चुनौति है। चंद्रकांत पाटील के शब्दों में “आदिवासी कविता
विस्थापितों के वेदना की कविता हैं।” प्रा. माधव सरकुंडे ने ‘मी तोडले
तुरुंगाचे दार’ और ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ यह दोनों कविता संग्रह में आदिवासी
समाज पर जो प्रस्तापित समाज शोषण कर रहा हैं उनके खिलाफ कवि अपनी कलम को तीर बनाकर
आदिवासी समाज को जागृत करते हैं। वह कहते हैं कि मैंने अब कारागृह का द्वार तोड़
दिया है मैं अब आझाद हो गया हूँ। ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ इस कविता संग्रह में से
आदिम मित्रांनो, दगा, भेदभाव, बेड्या, बिरसा, पुस्तके, मेलेल्या मनाचा समाज,
भूमिका, चीड, तिलका मांझी, जगण्याच
सूत्र, युद्ध अटळ आहे, इन जैसी कविताएँ मेरे आझादी का सबूत
पेश करती हैं। डॉ. संजय लोहकरे ने ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक
देश’ इस कविता संग्रह में यह बताने की कोशिस की हैं कि आज के लोकतांत्रिक देश
में भूख से बेजान आदिवासी समाज की किस तरह
नीलामी चल रही हैं। एक तरफ उनके जल, जंगल और जमीन को लुटा जा रहा हैं और दूसरी तरफ
भरें बाजार में उनकी नीलामी चल रहीं हैं। कवि डॉ. संजय लोहकरे आदिवासियों में
बिरसा मुंडा, रोबिहुड तंटयामामा भिल्ल, क्रांतिवीर रागोजी भांगरे, वीरांगना राणी
दुर्गावती, और शांति के प्रणेता भगवान गौतम बुद्ध, इनके स्वतंत्रता संग्राम के
आंदोलनों को कविताओं के माध्यम से जनता के सामने लाते हैं। और उनके विचारों से
आदिवासियों को प्रेरित कराते हैं।
इस प्रकार
हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में बहुत ही संघर्षमय जीवन आदिवासी समाज का झलकता
हुआ दिखाई देता हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
आधार ग्रंथ: (हिंदी कविता संग्रह )
1. सरिता बड़ाईक,
नन्हें सपनों का सुख, रमणिका फाउंडेशन, नई दिल्ली,2013
2. सं. हरिराम मीणा, समकालीन आदिवासी कविता, अलख प्रकाशन,
जयपुर,2013
3. निर्मला
पुतुल, बेघर सपने, आधार प्रकाशन पंचकूला, हरियाणा,2014
4. वंदना टेटे, कोनजोगा, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, राँची
झारखण्ड,2015
5. सं. रमणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो (झारखण्ड के
आदिवासी हिंदी कवि), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2015
6. डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदिवासी मोर्चा, वाणी प्रकाशन, नई
दिल्ली,2015
7. आदित्य कुमार मांडी, पहाड़ पर हल फूल, प्यारा केरकेट्टा
फाउंडेशन, राँची झारखण्ड,2015
8. ओली मिंज, सरई, सारिका प्रेस एंड प्रोसेस, डोरंडा,
झारखंड-2015
आधार ग्रंथ: ( मराठी कविता संग्रह )
1. उषाकिरण आत्राम, लेखणीच्या तलवारी, हरिवंश प्रकाशन, चंद्रपूर, 2009
2. वसंत
कनाके, सुक्का सुकूम, लोकायन प्रकाशन, यवतमाळ, 2002
3. सं.
प्रा. डॉ.
विनायक तुमराम, शतकातील आदिवासी कविता, हरिवंश प्रकाशन, चंद्रपूर, 2003
4. वाहरू
सोनवणे, गोधड, सुगावा प्रकाशन, पुणे, 2006
5. भुजंग
मेश्राम, अभुज माड, लोकवाङ्मय गृह, मुंबई, 2008
6. बाबाराव मडावी, पाखरं,
प्रियंका प्रकाशन, यवतमाळ, 2009
7. मारोती उईके, गोंडवनातला आक्रंद, उलगुलान प्रकाशन, वर्धा, 2010
8. विनोद कुमरे, आगाजा, लोकवाङ्मय गृह, मुंबई, 2014
9. माधव सरकुंडे, मी तोडले तुरुंगाचे दार, देवयानी प्रकाशन,
यवतमाळ, 2011
10. माधव सरकुंडे, चेहरा हरवलेली माणसं, देवयानी प्रकाशन,
यवतमाळ, 2015
11.
डॉ. संजय लोहकरे, आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश,
दिलीपराज
प्रकाशन, पुणे, 2015
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें