नक्सलवाद और आदिवासी
आज भारत की ही नही पूरे विश्व की समस्या है नक्सलवाद । इसका
केंद्रबिंदु आदिवासीयों को ठहराया जा रहा हैं। 1969 में अन्याय- अत्याचार के विरोध
में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी इस गाँव से एक आंदोलन चलाया गया जिसक नाम था ‘नक्सलबाड़ी
आंदोलन’। इस तरह के कई आंदोलन चलाकर गरीब और लाचार आदिवासियों को इस आंदोलन में
स्वामिल किया गया हैं। इस आंदोलन में कानू सन्याल जैसे नौजवान ने मार्क्सवादी
विचारधारा को अपनाकर सहभाग लिया जिसका नतीजा उन्हें नक्सलवादी घोषित करकर मार डाला।
इसी गाँव के नाम से यह आंदोलन सामने आया इस कारण नक्सलवाद यह संकल्पना सामने। इस
आंदोलन का स्वरुप हिंसाचार था। आगे चलकर इस आंदोलन ने ग्यारह देशों में व्यापक रूप
धारण किया जिसमे चीन, नेपाळ, भारत, बांगलादेश, श्रीलंका, यह देश आगे थे। यह आंदोलन
न्याय के लिए चलाया गया था लेकिन इस आंदोलन ने हिंस्र रूप धारण किया। इस आंदोलन
में आदिवासी समूह को स्वामिक करकर उनका गलत इस्तेमाल किया गया। पिछले पंद्रह सालों
का इतिहास देखा जाये तो सबसे अधिक आदिवासी लोग इस आंदोलन में मारे गए। सच कहे तो
इस आंदोलन को आंदोलन नही कह सकते क्योंकि जिस आंदोलन में मासूम आदिवासियों को ढाल
बनाकर जिसका उपयोग किया जाता हैं और पुलिस यंत्रणा भी उन्हें नक्सलवादी घोषित करके
मार देती हैं। वह यह भी नही देखती की सही नक्सलवादी कौन है? और आज वास्तव में किसे
मारा जा रहा हैं। अपने वर्दी के गर्व इतना भी रहना कुछ काम का नही जिसके कारण
बेचारा आदिवासी समाज अपनी जान गवा सकें। जिसके उदाहरण आज भी हमें देखने को मिलते
है। जिसमे चिन्ना मट्टामी, यडका मासा आत्राम इन्हें गोलियों से मार डाला। क्या
समझते है पुलिस खुद को क्या जानवरों की तरह किसी की भी हत्या करना कितना उचित है?
क्या किसी की भी जान इतनी सस्ती किंमत पर मिल रही है? ऐसे कई सवाल हमारें बिच हैं।
सरकारद्वारा महाराष्ट्र का नक्सल घोषित क्षेत्र:
सन 1971 से 1980 के दशक में महाराष्ट्र के उत्तर भाग में
पीपल्स वार ग्रुप की मदत से गडचिरोली, गोंदिया, भंडारा, चंद्रपुर, इसे नक्सली क्षेत्र
घोषित किया। जिस आंदोलन को आंदोलन कहा जा रहा था उसी आंदोलन ने एक व्यापक रूप धारण
करके आदिवसियों के भावनाओं का छेद कर दिया। देखते देखते यह आंदोलन यवतमाल जिले के
सीमाओं तक पहुच गया। विदर्भ के कई भागों में यह आंदोलन आपने पैर खड़े कर सकता था
लेकिन कुछ हिस्सों में जंगल कम होने के कारन वह सिमित रह गया। इस क्षेत्र के घने
जंगलों में रहने वाले आदिवासी भाईयों को नक्सलवादी बनाया गया उनके साथ क्रूर
व्यवहार किया गया और आज भी किया जा रहा है। अगर पुलिस, वन अधिकारी इन्होने
आदिवासियों के साथ मित्रता की भावना रखी होती तो यह आंदोलन रुक जाता था लेकिन
अधिकारी वर्ग और पुलिस कर्मियों के इस व्यवहार के कारण यह आंदोलन रुकने का नाम ही
नही ले रहा है।
इस आंदोलन में यह नारा लगाया
जा रहा था की ‘आदिवासी भाइयों को अपना हक्क और न्याय मिलेगा’ यह सुनकर और कई
आदिवासी इस आंदोलन में सहभागी हो गए। बाद में आदिवासी भाइयों को समझ में आ गया की
जमींदार, ठेकेदार, सावकार, इनसे अन्याय-अत्याचार सहने से भल्ला है की नक्सलवादियों
को सहारा दे लेकिन नक्सलवादियों ने इस गरीब स्वभाव आदिवासियों का भी फायदा उठाया
और इसके ही हाथों में बंदूक देकर गुलाम
बनाया। इसका ज्वलंत उदाहरण ‘मरकेगाँव’ की घटना है। यहाँ की रखवाली करने वालें 14
पुलिस कर्मियों गोली मारकर की हिंस्र हत्या की गई इन पुलिस कर्मियों के देह इतने
भयंकर काट डाले की शरीर के सभी भाग अलग-अलग किये हुए थे। यह कथा मानव जाती को मानव
कहलाने लायक बिलकुल नही रही। विशेष कहने की बात यह है कि उस 14 पुलिस कर्मियों में
से 11 पुलिस आदिवासी थे। जो मारे गए पुलिस थे उसमे भी आदिवासी और जो मारे गए नक्सलवादी
थे उसमे में भी आदिवासी भाईयों की जान ली गई तो सही नक्सलवादी कौन है? यह सवाल हम
सबके सामने आज भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। कौन हैं नक्सलवादी पुलिस, सरकार या
आदिवासी। यह सूत्र इस तरह का बना है जिसमे पुलिस जिन्हें नक्सलवादी समझकर मार देती
है वह भी आदिवासी, नक्सलवादी जिन्हें पुलिस समझकर मारती है वह भी आदिवासी, पुलिस
और नक्सलवादी दोनों मिलकर जिन्हें मारते है वह भी आदिवासी ही होते है। इस बात से
यह स्पष्ट होता है कि आदिवासियों के जान की किंमत किसी को भी नहीं है। इन सभी
बातों के लिए ही आदिवासी बचा है? बस बस गलती यह हैं उनकी की वह जंगलों में रहते
हैं जहाँ सरकार कुछ भी यातायात के साधन तो नही पहुच पाती लेकिन उनके घरों को कैसे
उजड़ा जा सकें इसके बारें में जरुर सोचती हैं।
कैसा रुकेगा यह नक्सलवाद:
नक्सलवाद रुकना चाहिए यैसा
सभी को लगता तो है लेकिन इसपर क्या उपचार है? इस सवाल का जवाव जब से नक्सलवाद आया
था तभी देना जरुरी था। लेकिन यैसा नहीं हुआ जिस समय यह वाद रुकना चाहिए था उस समय
उसे एक राजकिय सपोट मिला जिसके कारण यह बढ़ता गया। निरक्षर आदिवासी समाज का फायदा
उठाकर उन्हें शोषण का शिकार बनाया गया। हिंसक कृत्ये करने के लिए उन्हें मजबूर
किया गया। जिसका परिणाम आज विश्व के नक्शे पर हर पन्ने पर झलक रहा हैं बोमविस्फोट
के रूप में। इसमे सबसे ज्यादा आदिवासी समाज पिसता गया जिसके कारण आज वह अनेक
समस्याओं का सामना कर रहा हैं। हमारा ही जल,जंगल, और जमीन हमारा ही शरीर और केवल
बंदूके उनकी और मजबूर कर दिया हमें गोली चलाने के लिए। नक्सलबाड़ी से जिन किसानों
के लिए यह आंदोलन चलाया गया था वह किसान तो दूर ही रह गए।
पूरे विश्व में नक्सलवाद यह
अंतर्गत घटना मानी जाती है। यह आसान तरिके से समाप्त कर सकते है इस भ्रम में सरकार
सोच रही है। लेकिन जबतक आदिवासियों पर अन्याय-अत्याचार होता रहेगा तब तक नक्सलवाद
नही रुकेगा। आदिवासी निरक्षर और गरीब है इसलिए इसका फायदा नही उठाना चाहिए। जब
आदिवासी तीर उठाता है तो इसके परिणाम हिंसक रूप में सामने आते है। लेकिन आज
आदिवासी ‘तीर नही.. धनुष नही.. अब चलेगी कलम..’ इस सूत्र का प्रयोग कर रहा है।
आदिवासी साहित्यकार अपने समाज पर आए हुए इस संकट को सरकार तक पुहुचाने के लिए कलम
के माध्यम से उत्तर दे रहें हैं। नक्सलवाद समाप्त करने के लिए आदिवासियों को मारना
कहा तक योग्य बात है। यह सिलसिला ऐसा ही शुरू रहेगा तो नक्सलवाद कम होने की
वजह से और भी बढेगा इसमे
कोई संदेह नहीं हैं। नक्सलवाद सच में
समाप्त करना है तो विशिष्ट यंत्रणा तैयार करकर नक्सलवादियों के मनपरिवर्तन करना
बहुत ही जरुरी हैं। जिसका परिवर्तन हो गया मान लो वह बच गया और जिसका नही हुआ वह
मर गया। लेकिन हमारी सरकार नक्सलवाद समाप्त करने के स्थिति में है क्या? यह पहले
देखना और जानना होगा ।
संदर्भ:
1१ दैनिक देशोन्नती, स्पंदन पेज , दिनांक- 24 जुलाई 2011 का
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2२ मारोती उईके, आदिवासी संकृतीवर हरामखोरी हल्ला, उलगुलान
प्रकाशन, वर्धा, प्रथम संस्करण -2013
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