सोमवार, 18 मार्च 2024

गोंड जनजाति का लोकसाहित्य और जीवन Gond Adiwasi ka Loksahitya Aur Jivan

     


 गोंड जनजाति का लोकसाहित्य और जीवन

                                                                                -डॉ.दिलीप गिऱ्हे 

समाज में जनजागृति का काम लोकसाहित्य करता है। लोकसाहित्य समाज में रहेने वाले हर जाति-जनजाति का साहित्य होता हैं। आदिवासी साहित्य भी आज लोकसाहित्य का स्वरुप बन चूका है क्योंकि इस साहित्य में उसी समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनितिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ दिखाई देती है। इस सभी परिस्थितियों का स्वरुप मौखिक रूप से लिखित रूप में दिखाई देता हैं तो यह साहित्य इस जनजाति का लोकसाहित्य कहलाता है। विश्व के सभी जनजातियों का अपना अपना लोकसाहित्य हैं। मैंने महाराष्ट्र के गोंड जनजाति के लोकसाहित्य पर प्रकाश डालते हुए उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष का अध्ययन करने की कोशिस की हैं।

आज देश के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी समाज हैं । उनका सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष देखा जाए तो उसमे विभिन्नता दिखाई देती है । उनकी भाषा, संस्कृति बिल्कुल अलग-सी है। महाराष्ट्र के ‘गोंड’ जनजाति का इतिहास देखा जाए तो 1981 के जनसँख्या के आकडे यह बताते हैं कि 11,62,735 इतनी उनकी जनसंख्या हैं। महाराष्ट्र राज्य में कुल 47 जनजाति समूह वास्तव्य करते हैं, उसमे गोंड जनजाति की जनसंख्या सबसे अधिक है । यह आदिवासी जनजाति मुख्य रूप से चंद्रपुर, गडचिरोली, यवतमाळ, नांदेड, अमरावती, अकोला, वर्धा, नागपुर इस जिले में पाई जाति हैं । देश के राज्यों की बात की जाए तो महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश इन राज्यों में मुख्यत: पाई जाति है। इस जनसमूह की अलग सी अपनी भाषा लिपि है। उस लिपि का नाम है ‘गोंडी लिपि’ इसी लिपि में यह आदिवासी समाज लिखता हैं, बोलता हैं, पढ़ता हैं। महाराष्ट्र की मातृभाषा मराठी होने के कारण यह जनजातियाँ गोंडी भाषा के साथ-साथ मराठी भाषा  भी बोलते, लिखते हैं। कहा जाता हैं कि भाषा अनुकरण से सीखी जाता हैं यह बात बिल्कुल सच साबित हुई हैं। जो मनुष्य जिस समाज परिवेश रहता हैं उसी परिवेश की भाषा वह कुछ समय बाद सिखता हैं। गोंड जनजाति की अपनी भाषा हैं, अपनी संस्कृति हैं। वह जिस प्रदेश में रहते हैं वह प्रदेश ‘गोंडवाना राज्य’ इस नाम से जाना जाता हैं। गोंड जनजाति का खेती यह प्रमुख व्यवसाय माना जाता हैं। उसके साथ साथ वह पशु पालने का भी व्यवसाय करते है।

       गोंड जनजाति के गाँव में ‘गोटुलघर’ रहता है। यह एक बड़ा घर होता है। अविवाहित युवक-युवती यहाँ आते हैं। वह रात भर नाच-गाना करते हैं। यह लोग वापस में वंदन करते समय एक दुसरे को ‘जोहार’ कहते हैं। जनजाति की अपनी अलग सी संस्कृति हैं। नृत्य उनका बड़ा त्यौहार माना जाता हैं इसे ‘कर्मा’ कहते हैं। इस जनजाति के ‘डेमसा’ और ‘दंडारी’ यह नृत्य प्रकार भी हैं यह नृत्य प्रकार पारंपरिक माने जाते हैं। किसी के शादी के प्रसंग में यह नृत्य का प्रकार प्रस्तुत किया जाता हैं। यह नृत्य करते समय ‘प्रधान गोंड’ लोग ढोल और तासे बजाते हैं। दीपावली के कुछ दिन पहले के दिन से यह नृत्य की शुरुआत होती हैं। यह नृत्य को प्रस्तुत करते समय डप्पू, ढोल, खालिखोम, किंगरी, धुमेले, पिपोई, फरा, ऐसे कई नगाड़े के प्रकारों को बजाया जाता हैं। इस जनजाति में ‘परधान’ यह जाति गाने गाकर ढोल बजाकर अपने पूर्वजों की शूरवीर गाथा गाने के माध्यम से प्रकट करती हैं और वह अनाज के रूप में भिक्षा लेते हैं। ‘कटोरा’ यह कुल का वंश पुरोहित रहता हैं तो ‘देवरी’ यह गाँव की पुरोहित रहती हैं। यह जनजाति खाने में जंगल के खाने योग्य पशु, प्राणियों की मारकर उनका मांस खाती हैं। राजगोंड यह जनजाति गो मांस और मंकी का मांस को वर्ज्य मानती हैं । यह जनजाति अज्ञानता के कारण बहुत ही ज्यादा मद्द्पान करती हुई दिखाई देती हैं। यह लोग जितना भी कमाते हैं उससे दुगना वह उनका मद्द्यापन पर खर्च करते  हैं । यह जनजाति चार कुलों में विभक्त की गई हैं। इन सभी कुलों के नाम अलग-अलग हैं वह इस प्रकार हैं –

एडवन सगा कुल :

सात देवों का कुल हैं यह वह देव हैं–मारवे (मडावी), पुरुका, कोरिवटटा, मारसुकोल्हा (मरसूकुले) पेंदोर, वेरमा (येरमा), सुईतारा वेडामा, मेसराम आदि ।

सरवन सगा कुल:

       छ: देवों का यह कुल माना जाता हैं इस कुल में यह जनजाति आती हैं – आत्राम, गेडाम, कोटनाग, कोरेंगा, आराम, होराम, दहाम, दुन्गाम, काचिनुर, वेलादी, कोचरा, विइका, पोंदुर, कोतले, उरवेटा, कुरमेटा, वडे, तुमरा, कड़ापेज, राईसिराम, वेटि सलाम, मारपा, हेरेकुमरे, मंदारी ।

सेवन सगा कुल:

      यह कुल पांच देवों का माना जाता हैं इस कुल में प्रमुख यह जनजाति आती हैं–कुमरा, दरंजा, आलाम, आरक, अरे, गेडाम, किनाका, सुरपाम, कुसेंगा, कंसका, अनाका, जुगनाका, वलकट, पुसनाका, कारपेला, धुरवा, सोयाम, कोरचा, कचाल, चिकराम, सरलाट, परतसाल, महादरा, अदा, देवघर, कुरमा, घोडाम, अरकाम, आदि। 

नालवन सगा कुल:

        इस कुल में चार देवताओं महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता हैं। इसी कुल के अंतर्गत आनेवाली जनजातियाँ इस प्रकार हैं-परातसामी, शेरमाकी, सेरवन, नाईताम, मारपाची, साबाती, मागाम, पूसान, पुसाम, तलंदा, पोयाम, कुराम, केरवा, टेकाम, कोवा, नालुम, सिडाम, पारचक्की आदि।

       गोंड जनजाति यह द्रविड़ परिवार की एक मुख्य जनजाति मानी जाति हैं। भारतीय संविधान पारित कानून ‘अनुसूचित जाति व जनजाति आदेश अधिनियम 1976’ के अनुसार महाराष्ट्र राज्य में गोंड यह जनजाति 50 से ऊपर उप जातियों में बटी हुई हैं। इस उप जातियों में यह प्रमुख जनजातियाँ मानी जाति हैं-राज गोंड, आरख, अगारिया, असुर, बड़ी मारिया, बड़ामारिया, भाटोला, भिम्मा, भूता, कोइलाभूता, कोइलाभुति, भार, बायसन हॉर्न मारिया, छोटा मारिया, दण्डामी मारिया, धुरु, धुरवा, धोबा, धुलिया, डोरला, गायकी, गट्टा, गट्टी, गायता, गोंड गोवारी, हिल मारिया, कान्दरा, कलंगा, खटोला, कोयतार, कोया, खिरवार, खिरवारा, कुची मारिया, माडिया, माना, मन्नेवार, मोघ्या, मुंडिया, मुरिया, नागरची, नाइकपोड, नागवंशी, ओझा, राज, सोंझारी-झेरका, थाटिया, थोटिया, वाडे मारिया, वडे मारिया आदि।इन सभी जनजातियों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष अलग-अलग देखने को मिलता हैं।    

गोंड-धोबा:

    ‘धोबा’ यह गोंड जनजाति की उप जाति है। गोंडी भाषा और गोंडी संस्कृति यह उनकी पहचान हैं। यह जनजाति परिट, रजक, वरठी इस नाम से भी जानी जाति हैं। धोबा और धोबी यह अगल जातियां हैं धोबी यह जाति ‘हम धोबा हैं’ यह कहकर आदिवासीयों के योजनाओं का फायदा उठाती है। वास्तव में ‘धोबी’ यह जनजाति नहीं हैं।

गोंड-गोंडगोवारी:

      यह गोंड जनजाति का एक छोटा जनसमूह हैं। यह जनजाति गडचिरोली जिले के ‘कुरखेडा’ इस तहसील के परिसर में दिखाई देती हैं। गोंड जनजाति में जानवरों का पालन-पोषण करने वाले जाति को स्थानिक लोग ‘गोंड गोवारी’ कहते हैं। उनकी भाषा, संस्कृति, धर्म, गोंडी ही हैं। महाराष्ट्र के विदर्भ में गोवारी वा गवारी इस नाम की भी जनजाति पाई जाति हैं। गाय गोवारी एवं दूध गोवारी यह उनकी उप जातियां हैं। यह जनजाति मुख्य रूप से नागपुर, अमरावती, वर्धा, यवतमाळ, भंडारा, चंद्रपुर, गडचिरोली इसी जिलें में पाई जाति हैं। कृष्णा, गंगा, जमुना यह नदियाँ उनके अराध्य दैवत हैं। ‘कोडेकोडेवान’ यह उनका प्रमुख देवता है। यह जनजाति एक ही कुल में शादी ब्याह नहीं करती। इस जनजाति के जातपंचायत के प्रमुख को ‘शेंड्या’ कहा जाता हैं।

गोंड-माना:

     गोंड जनजाति में ‘माना’ यह एक उपजात है इस जाति के अंतर्गत बडवाईक माना, खाद माना, क्षत्रिय माना, कुनबी माना, आदि जनजातियाँ आती हैं। इनके देवी-देवता बड़ादेव, बुरादेव यह हैं। यह जनजाति गोंडी भाषा बोलती हैं लिखती हैं। ‘माना राजा’ की कुलदेवता ‘माणक्य देवी’ थी। माना जनजाति के ग्राम पंचायत प्रमुख को ‘शेंडे’ कहा जाता है।

गोंड-मन्नेवार:

        यह जनजाति घर बांधनी का काम करती हैं। गोंड जनजाति की यह एक छोटी उप जाति  है। यह जनजाति आँध्रप्रदेश से 100-150 साल पहले आयी हैं ऐसा तर्क माना जाता हैं।

     अन्तः लोकसाहित्य को स्थापित करने के लिए लोक की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी तरह से महाराष्ट्र के गोंड जनजाति के इस विभिन्न पक्षों से उनका साहित्य अपनी अलग पहचान करता हैं यह साहित्य आज लोगों दिलों को छुने वाला साहित्य है इस साहित्य में आदिवासी समाज का वास्तविक जीवन चित्रित हुआ है इसलिए इस साहित्य को आज लोकसाहित्य का स्थान प्राप्त हुआ है। गोंड जनजाति यह गोंडवाना राज्य में बहुत समय से रहती आई है उनका अपना अलग-सा इतिहास है। इस राज्य में कई क्रांतिकारी वीर होकर चले गए जिन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में अपना बलिदान दिया। आज गोंड जनजाति के संस्कति के साथ-साथ आदिवासी संस्कृति की पहचान कई पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से हो रहीं हैं। गोंडवाना राज्य की सामाजिक एवं वैचारिक जागृति के लिए ‘गोंडवाना दर्शन’, ‘आदिवासी सत्ता’ इन जैसे और भी कई यह मासिक, त्रेमाषिक पत्र-पत्रिकाओं ने  पिछले  कई सालों से आदिवासी साहित्य की पहचान लोकसाहित्य के रूप में करा दी है। इन सभी पत्र-पत्रिकाओं में पत्रिका में गोंड जनजाति के साथ-साथ अन्य आदिवासी जनजातियों का भी सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष उभरता हुआ दिखाई देता हैं।

संदर्भ:

1१ डॉ.गोविंद गारे, महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती, कॉन्टिनेंटल प्रकाशन, विजयानगर, पुणे, प्रथम आवृति- 2000

2२ डॉ. गंगाधर मोरजे, लोकसाहित्य:सिध्दान्त आणि रचनाप्रकारबंध, पद्मगंधा प्रकाशन, पुणे, प्रथम संस्करण 2002

कोई टिप्पणी नहीं: