सोमवार, 18 मार्च 2024

डिजिटल मीडिया के रूप में आदिवासी पत्रिकाओं की भूमिका (विशेष संदर्भ: आदिवासी सत्ता, गोंडवाना दर्शन)



डिजिटल मीडिया के रूप में आदिवासी पत्रिकाओं की भूमिका

(विशेष संदर्भ: आदिवासी सत्ता, गोंडवाना दर्शन)

डॉ.दिलीप गिऱ्हे 

शोध सारांश

भारतीय आदिवासी समाज मुख्यधारा की मीडिया से वंचित रहा है। मुख्यधारा की मीडिया न ही आदिवासी समाज की अस्मिता, संस्कृति, भाषा की विविधता, दुःख-दर्द को प्रस्तुत करती और ना ही दिखाती है। इसी वजह से आदिवासी समाज का बुद्धिजीवी वर्ग परेशान रहा है कि वह उनकी संस्कृति और दुःख दर्द को मुख्यधारा के सामने कैसे लाया जाये! मुख्यधारा की मीडिया पर आकाश पोयम ने ‘पुनर्जीवित आदिवासी मीडिया अपनी शर्ते खुद तय कर रहा है’ लेख में टिप्पणी की है कि “मुख्यधारा के राष्ट्रीय मीडिया में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने के मुख्य रूप से दो तरीके हैं। उन्हें या तो नस्लवादी चश्मे से प्रस्तुत किया जाता है-जिसमें आदिवासी नृत्य, पोशाक और संस्कृति को विदेशी रूप दिया जाता है या उनकी कहानियों को दया और पीड़ितता की कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।” हालांकि आदिवासी बुद्धिजीवी वर्ग वर्तमान में इन सभी समस्याओं से परिचित है। इसीलिए वह अपना खुद का मीडिया पत्रिकाओं, ब्लॉग लेखन, फेसबुक, व्हाटस्एप, इन्स्टाग्राम, यूट्यूब जैसे डिजिटल सोशल मीडिया के माध्यम से आदिवासी डिजिटल मीडिया का मंच दिखा रहे हैं। इसी का एक संदर्भ आदिवासी सत्ता एवं गोंडवाना दर्शन पत्रिका को कहा जा सकता है। यह पत्रिकाएँ आदिवासियत के विविध पहलुओं को समाज के सामने लाने का कार्य निरंतर कर रही है। इसमें आदिवासियों पर हो रहे विविध सांस्कृतिक हमले हो या उनके विस्थापन का प्रश्न हो या उनकी सांस्कृतिक पहचान हो इन सभी घटनाओं का अत्यंत बारीकी से जिक्र ये पत्रिकाएँ डिजिटल प्लेटफार्म के रूप में दर्शाती है।  इसीलिए निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि यह पत्रिकाएँ आदिवासी समाज का आईना प्रस्तुत करने वाला डिजिटल मीडिया ही है। साथ ही आदिवासी भाषा के विभिन्न प्रश्न भी इन पत्रिकाओं में दर्शाए जाते हैं। परिणामस्वरूप हम डिजिटल मीडिया और भारतीय भाषाओं पर जब-जब चिंतन करते हैं तब-तब भारतीय हासिये के समाज में से आदिवासी समाज की विभिन्नता को नहीं छोड़ा जा सकता है। इसमें उनका प्रमुखता से भाषाई प्रश्न भी मौजूद है। इसीलिए भारतीय भाषाओं में आदिवासी भाषा की विभिन्नताओं पर भी चर्चा होना आवश्यक है। प्रस्तुत शोध आलेख में आदिवासी संस्कृति, भाषा एवं उनके विविध प्रश्न पर आदिवासी सत्ता एवं गोंडवाना दर्शन पत्रिका डिजिटल मीडिया के रूप में कैसे प्रस्तुत करती है। इससे अनेक सन्दर्भों को प्रस्तुत किया गया है।

महत्वपूर्ण शब्द: डिजिटल मीडिया के विविध रूप, आदिवासी पत्रिकाएँ, आदिवासी अस्मिता, विस्थापन, संस्कृति एवं भाषा के विविध रूप।

प्रस्तावना:-

आज के दौर में आदिवासी मीडिया के पास अपनी पहचान बताने के लिए अनेक बाते हैं। जिसके जरिये वे मुख्यधारा की पत्रकारिता के साथ जुड़ सकते हैं। जिसमें प्रतिरोध, इतिहास एवं जीवन दर्शन के अनेक दास्ताँ को वे व्यक्त कर सकते हैं। इस प्रकार से समाज की मुख्य मीडिया से अपनी बात को बता सकते हैं। आकाश पोयम लिखते हैं कि “हाल के वर्षों में आदिवासी मीडिया में पुनरुत्थान ने यह स्पष्ट कर दिया कि हम आदिवासी जीवन के बारे में कहानियाँ कैसे प्राप्त कर सकते हैं।”1 हालांकि आदिवासी सत्ता और गोंडवाना दर्शन जैसी पत्रिकाएँ आदिवासी मीडिया में पुनरुत्थान का कार्य कर रही है और उनके जीवन दर्शन की अनेक कहानियाँ डिजिटल मीडिया के रूप में प्रस्तुत कर रही है।

विषय एवं क्षेत्र:

आदिवासी समाज आज भी अपनी अभिव्यक्ति की आवाज से दूर है। रोशनी में भी अंधकर का एहसास में जीते हुए समाज की कई अनसुनी कहानियाँ मौजूद है। जिसे मुख्यधारा की मीडिया जगह नहीं देती है। ऐसी अनसुनी कहानियों को आदिवासी सत्ता पत्रिका 2005 से डिजिटल मीडिया का कार्य करती हुई दिख रही है। पत्रिका के संपादक के. आर. शाह गोंडवाना सन्देश ब्लॉग में लिखते हैं कि “हम सब जानते हैं कि प्रत्येक क्षेत्र में आदिवासियों को दबाने, सताने व मिटाने का षड्यंत्र बदस्तूर जारी है। मंत्री विधायक, सांसद, प्रशासनिक अधिकारी, शासकीय कर्मचारी से लेकर आम आदिवासी कैसे प्रताड़ित होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन परिस्थितियों में आदिवासी सत्ता की मुखर आवाज और विचार क्रांति कैसे अछूती रह सकती है? आदिवासी सत्ता आज अदृश्य हमलों का शिकार है। हमारा समाज बेहद असंगठित और बड़ी संख्या में अशिक्षित व अजगारुक होने के कारण कमजोर व् शक्तिविहीन है। आदिवासी सत्ता मीडिया समाज की एक नन्हीं सी सी आवाज है। इसे मजबूत और शक्तिशाली आवाज बनाने के लिए सभी समर्थ आदिवासियों को तन-मन-धन से सहयोग करना होगा। मीडिया की ऊर्जा विज्ञापन है। मीडिया समाज का महत्वपूर्ण घटक है। अतः विज्ञापन भी समाज को ही देना होगा तभी आदिवासी सत्ता शक्तिसंपन्न होगा। कमजोर व्यक्ति दबा दिया जाता है और मरहा आवाजें अनसुनी हो जाती है।”2 आदिवासी सत्ता पत्रिका अपने समाज की अभिव्यक्ति और आवाज को 2005 से अभिव्यक्त कर रही है। फिर एक मजबूत मीडिया का कार्य आदिवासी पत्रिकाओं को उठाना होगा। के. आर. शाह कहते हैं कि “आदिवासी सत्ता (मीडिया) को शक्तिशाली बनाना होगा”3 यानि की आदिवासी सत्ता पत्रिका जब शक्तिशाली बनेगी तो समाज भी शक्तिशाली बनेगा। इसीलिए आदिवासी मीडिया को शक्तिशाली बनाने के लिए गोंडवाना दर्शन एवं आदिवासी सत्ता जैसी पत्रिकाओं की भूमिका अहम् रही है।

गोंडवाना दर्शन पत्रिका सन् 1986 से लेकर आज तक आदिवासी जीवन दर्शन को मीडिया के रूप में प्रस्तुत कर रही है। आज़ादी के बाद 1980 के दशक में एक ऐतिहासिक बदलाव आया, जब 1986 में सुन्हेरसिंह ताराम ने गोंडवाना दर्शन हिंदी पत्रिका की शुरुआत की और पूरे 32 साल तक लगातार जारी रखी4 यह पत्रिका आदिवासी समाज के साथ-साथ बहुजन समाज का डिजिटल मीडिया कह सकते हैं। क्योंकि इसमें बहुजन समाज के अनेक प्रश्न, समस्याओं से संबंधित लेख, कविता, कहानियां प्रस्तुत की जाती है। इसी कड़ी में यह पत्रिका आदिवासी समाज की समस्या व समाधान को भी उकेरती है। राहुल विमुलकर ने आदिवासी समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक, संवैधानिक समस्या पर लिखा है “ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि कि जब तक आदिवासी अपने धर्म को हिन्दू घोषित करता रहेगा, हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं को अपने जमीन में प्रवेश करने देता रहेगा तब, 20-30 वर्षों में आदिवासी की पहचान समाप्त हो सकती है, इसलिए अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आदिवासियों को अपना धर्म आदिवासी धर्म घोषित करना होगा। दूसरा, यदि संस्कृति को बचाना है तो भाषा की रक्षा होनी चाहिए इसलिए जितनी भी आदिवासी भाषाएं हैं उन्हें 8वीं सूची में लाने के लिए अभियान चलाना होगा।”5

शोध की सीमा:-

प्रस्तुत शोध आलेख में आदिवासी साहित्य को एक डिजिटली प्लेटफार्म देने के लिए वर्तमान में कई आदिवासी पत्रिकाएँ अपनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं दायित्व निभा रही है। उसमें गोंडवाना स्वदेश, गोंडवाना दर्शन, आदिवासी सत्ता, अरावली उद्घोष, युद्धरत आम आदमी, फड़की, अखड़ा जैसी अनेक पत्रिकाएँ कार्य कर रही हैं। इन्हीं पत्रिकाओं में से आदिवासी सत्ता और गोंडवाना दर्शन पत्रिकाओं ने आदिवासी साहित्य को समाज के मुख्यधारा में लाने का कार्य किया हुआ दिखाई देता है। प्रस्तुत शोध आलेख की सीमा आदिवासी सत्ता और गोंडवाना दर्शन पत्रिका का डिजिटल मीडिया के रूप में कैसा स्थान है यह निश्चित किया गया है। 

साहित्य समीक्षा:-

      आज अस्मितामूलक विमर्श के रूप में आदिवासी साहित्य या विमर्श को देखा जाता है। आदिवासी साहित्य की आलोचन कई स्तरों की जा रही है। जिसके माध्यम से उनके प्रश्न समस्या, भाषा, साहित्यिक परिवेश, संस्कृति जैसे मुद्दों पर बढ़-चढ़कर बात हो रही है। इससे उनके समस्याओं पर कुछ हद तक हल निकलने की कोशिश बुद्धिजीवी वर्ग कर रहा है। गोंडवाना दर्शन और आदिवासी सत्ता पत्रिका भी इसी कड़ी में कार्य करती हुई दिखाई दे रही है। अतः आदिवासी समाज की संवेदनशीलता को ध्यान में लिया जा रहा है। यह साहित्यिक समीक्षा की बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं।    

शोध उद्देश:-

1१ आदिवासी समाज को आधुनिक तकनीकी से परिचित करना।

2२ उनकी अस्मिता एवं संस्कृति को डिजिटल मीडिया के सामने प्रस्तुत करना।

3३ आदिवासियत पर हो रहे सांस्कृतिक हमलों को रोकना।

4४ उनको सरकारी दी जाने वाली बुनियादी सुविधाओं का लाभ पहुँचाना।

5५ उनके साहित्य को एक बड़ा मंच देने लिए मदद करना।

वर्तमान में आदिवासी समाज की स्थिति का अध्ययन करने से यह पत्ता चलता है कि वह समाज आधुनिक यंत्रवत साधनों से काफ़ी हद तक परिचित नहीं है। अतः प्रस्तुत शोध का उद्देश्य यही रहा है कि आदिवासी सत्ता और गोंडवाना दर्शन जैसी पत्रिकाओं के माध्यम से आदिवासी समाज आधुनिक तकनीकी से परिचित हो और वह अपनी संस्कृति, अस्मिता, भाषा और आदिवासियत के विभिन्न पहलुओं को डिजिटल मीडिया के माध्यम से प्रस्तुत कर सकें।

शोध प्रश्न:-

1१ आदिवासी समाज मुख्यधारा के समाज से कटा हुआ दिखाई देता है।

2२ आदिवासी समाज कई बुनियादी सुविधाओं से आज भी वंचित है।

3३ आदिवासी समाज के सामने कई सरकारी योजनाएँ सही तरीके से पहुँच नहीं पा रही है।

4४ आदिवासी समाज आधुनिक तकनीकी से दूर है।

5५ आदिवासी समाज का साहित्य मौखिक ज्यादा और लिखत रूप में कम मौजूद है।

शोध प्रविधि:-

      प्रस्तुत शोध आलेख को विश्लेषित करने के लिए तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक, वर्णनात्मक, तथ्यात्मक शोध प्रविधियों का प्रयोग किया जाएगा और आदिवासी सत्ता व गोंडवाना दर्शन पत्रिकाएँ से जुड़े कई डिजिटल मीडिया के तथ्यों को प्रसंगानुसार विश्लेषित किया गया है।

शोध परिणाम एवं विश्लेषण:-

परिणामस्वरूप आदिवासी समाज के अनेक प्रश्न को प्रस्तुत शोध आलेख के माध्यम से हल किया जा सकता है। मीडिया यह समाज का ऐसा घटक है जिसके माध्यम से समाज के हर तबके का दुःख दर्द एवं ख़ुशी को दिखा सकता है। जिसके माध्यम से एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तैयार हो जाता है जो की आनेवाले समय में कालजयी साबित हो सकता है। आदिवासी सत्ता और गोंडवाना दर्शन पत्रिकाएँ कालजयी पत्रिकाओं की श्रेणी में आती है। इन जैसी मासिक पत्रिकाओं का स्वरूप देखा जाये तो विविधता से भरा पड़ा रहता है। निश्चित रूप से हम कह सकते हैं कि आदिवासी सत्ता एवं गोंडवाना दर्शन पत्रिका भी आदिवासी समाज की सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक, महिलापयोगी एवं बालोपयोगी समस्याओं पर लेखन कर रही है और डिजिटल मीडिया के रूप में उसे अपनी पत्रिकाओं में जगह दे रही है। क्योंकि आदिवासी समाज के विविध प्रासंगिक पक्ष को यह पत्रकाएँ उसमें जगह देती है। अतः परिणामस्वरूप आदिवासियत पर हो रहे हमलें को रोका जा सकता है।

निष्कर्ष:-

      अतः आदिवासी आदिवासी सत्ता व गोंडवाना दर्शन पत्रिकाएँ आदिवासी समाज की अस्मितामूलक मीडिया के रूप में कार्य कर रही है। इसमें उनकी संस्कृति है, भाषा, अस्तित्व है। आदिवासी सस्कृति को डिजिटली स्वरूप प्रदान करने के लिए इन जैसी अनेक पत्रिकाओं की जरूरत है। तभी आदिवासी समाज तथा उनका साहित्य समृद्ध हो पायेगा। गोंडवाना दर्शन पत्रिका नियमित रूप से निकलने के कारण डिजिटल मीडिया का रूप विस्तृत होता गया और कवि, लेखक, विचारक और पाठक वर्ग दिन-ब-दिन बढ़ता गया। साहित्य लिखने की रूचि भी बढ़ती गई। अतः ताराम के शब्दों में कहें तो शुरुआत के दौर में पत्रिका को चलाने के लिए बहुत आर्थिक संघर्ष करना पड़ा लेकिन अथक प्रयास एवं जन संपर्क के पत्रिका पढ़ने लिखने वालों की संख्या बढ़ती गई। इसमें गोंडी भाषा, संस्कृति, इतिहास, लिपि, प्राचीन गोंडवाना का इतिहास, टोटम, राज-रजवाड़े आदि के संदर्भ मिलते गए और डिजिटल मीडिया का रूप बढ़ता गया।

संदर्भ:-

ताराम, सुन्हेर सिंह.(2017).गोंडवाना दर्शन (मासिक पत्रिका).रायपुर: प्रभाकर प्रिंट हाउस.

 

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