भारत का जननायक धरती आबा
‘बिरसा मुंडा’ का आंदोलन
-डॉ.दिलीप गिऱ्हे
भारत को आझादी
मिलने के लिए कई क्रांतिकारी योध्दायोंने अपना बलिदान दिया हैं । उन्होंने अंग्रेजों
को अपनी ताकत दिखाई तभी अंग्रेजों ने भारत छोड़ा । उनमे से शहीद ‘बिरसा सुगना
मुंडा’ का नाम आज भी इतिहास में दर्ज है । भारत में जब आर्यों ने आक्रमण किया
तब हजारों आदिवासी समाज इन्हीं आर्यों के शोषण का शिकार बना । उसके बाद अंग्रेजों
ने शोषण किया । और आज सामंतशाही शोषण कर रहीं हैं । उसी काल में कई क्रांतिकारी आदिवासी योद्धाओंने जन्म लिया
जिसमे क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा, तंटया भिल्ल, तिलका मांझी, भागोजी नाईक, झाँसी की
आदिवासी राणी झलकारी बाई, राणी दुर्गावती, बाबुराव शड्माके ऐसे कई जननायकों ने इस
क्रांति में अपना योगदान दिया । बिरसा मुंडा यह 19 शताब्दी के जननायक माने जाते है
। उन्हें ‘धरती आबा’ के नाम से लोग पुकारते थे और आज भी पुकार रहें हैं । उनका
जन्म 15 नवंबर 1875 में बिहार के ‘उलीहातू’ गाँव में हुआ । वह दिन गुरुवार(ब्रह्स्पतीवार)
का था । इसलिए उनका नाम ‘बिरसा’ रखा गया । इसी समय बुजुर्ग लोग आपस में कहने लगे
कि “ देखो..देखो इस धरती पर आबा ने जन्म ले लिया है अब वह हम सबका उद्धार
करेगा” । इस गाँव में मुंडा, उरावं, संथाल, गोंड, हो, कोल्हान, जैसे कई
आदिवासी समूह जीवन जीते थे और आज भी जी रहें हैं । उनके नेतृत्व में मुंडा
आदिवासियों ने ‘उलगुलान’ इस महान क्रांतिकारी आंदोलन को अंजाम दिया । अंग्रेजों
के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे क्रांतिकारी कदम बिरसा मुंडा ने
उठाये हैं । उन्हें आज भी आदिवासी समाज के लोग ‘भगवान’ मानते
हैं उनकी पूजा करते है ।
मुंडा आदिवासियों का
इतिहास:
हजारों
सालों से जंगलों में रहने वाला आदिवासी समाज की जंगलें छिन ली गयी । जिनका अधिकार
था वह छिन लिया गया । अंग्रेजों ने 1878-79 में पहली बार एक कानून पारित किया उस
कानून में यह लिखा था की जीतनी भी वनसंपत्ति हैं वह सभी सरकार मालकी की हैं उस
जमीन पर सरकार राज्य करेगी । जिस जंगलों में आदिवासी समाज रहता था । उन्हीं जंगलों
से वह अपना जीवन बिताता था जंगल से फल, कंदुमुले, तेंदुपता, जैसे कई औषधी
वनस्पतियों को बेचकर वह अपना जीवन बिताता था । इन्हीं वस्पतियों को वह सावकार,
जमीदार, को बेचकर उनसे जिवनावश्यक वस्तू खरीदता था । सावकार, जमीदार उनका आर्थिक,
शारीरिक और मानसिक शोषण करते थे । सन 1789-1832 इस समय में मुंडा जनजातियों ने कई
विद्रोह किये । जिसमे 1832 -31 में ‘कोल विद्रोह’ बहुत ही महत्वपूर्ण
विद्रोह है । यह विद्रोह करने का कारण था । छोटा नागपुर के राजा का छोटा भाई ‘हरनाथ
सराई’ ने वहाँ की जमीन सेठ, जमींदारों, ब्राह्मणों, को दे दी थी । इसके प्रतिरोध
में यह आंदोलन किया गया था । वह सभी जमीन आदिवासियों ने यह आंदोलन कर के फिर से
पाई है । इस आंदोलन में जिसमे करीबन चार हजार के आसपास मुंडा आदिवासियों ने सहभाग
ले लिया था । 1855-56 के विद्रोही जननायक
के रूप में सिद्धू और कानू का भी नाम लिया जाता है । इन्होनें ‘संथाल विद्रोह’
किया इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य आदिवासी संस्कृति की जोपासना करना था । इसके
बाद 1888-90 के समय में इन्होने जमीदारों के खिलाफ आंदोलन किया । इस बात से यह
साबित होता है कि मुंडा आदिवासियों ने केवल अंग्रजों के विरुद्ध ही आंदोलन नहीं
किया बल्कि सामंतवादी व्यवस्था के साथ भी आंदोलन किया । 1845 में मुंडा और उरांव
जनजातियों ने ख्रिश्चन जाती में धर्मान्तर
किया था । उन्हें लगा कि धर्मान्तर करने से भूमि की समस्या हल हो जाएगी । लेकिन
इसके विरुद्ध हुआ उलट जमींदार, व्यापारी वर्ग, ठेकेदारों ने उनसे जमीन छिनकर बेच डाली । जो आंदोलन 1858 से
सुरु हुआ था वह आंदोलन ‘सरदारी आंदोलन’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है ।
यह आंदोलन आदिवासियों ने अपने अधिकारों के लिए किया गया । इस आंदोलन में यह अधिकार
मांगे गए कि जो मूलनिवासी छोटा नागपुर इस क्षेत्र में वास्तव्य करते है, उनकी
जंगल, जमीन पर उनका ही अधिकार रहें और जो आदिवासी समाज में अंधश्रद्धा हैं उसे बंद
किया जाये, आदिवासी महिलाओं पर होने वाले अत्याचार बंद किया जाए, इन सभी समस्याओं
को लेकर यह आंदोलन चलाया गया था । 1886-87 में मुंडा जनजातियों ने अपने हक्क
मांगने के लिए जर्मन लुथेरान चर्च के प्रमुख पादरी नरकोट को निवेदन दे दिया कि
छोटा नागपुर के प्रदेश में जितनी जमीन और जंगल है वह सभी मुंडा आदिवासी समाज की है
। इस तरह के कई आंदोलन मुंडा जनजातियों ने किए और आज भी कर रहें हैं ।
बिरसा मुंडा का विद्रोह:
जिस क्रांतिकारी
विचारों की आज समाज को जरुरत हैं वही क्रांतिकारी विचार बिरसा मुंडा ने समाज को
दिए । बिरसा मुंडा के वंशज ‘पूर्ती’ इस वंश के थे वह चूहें को शुभ मानते थे । इसलिए
उनका नाम ‘चुरियाँ पूर्ती’ यह पड़ गया। इसी पूर्ती वंश में दो भाई थे उनमे से एक का
नाम ‘चुटू’ तो दुसरे का नाम ‘नागु’ था । यह शब्द आगे चलकर बदल गए चुटू का ‘छोटा’
और नागु का ‘नाग’ बना । वही आगे चलकर मुंडा जनजातियों ने छोटा नागपुर यह नाम रख
दिया । बिरसा मुंडा ने 7 मार्च 1886 में ख्रिश्चन धर्म की दीक्षा ली । उनके माँ का
नाम ‘करमी मुंडा’ और पिता का नाम ‘सुगना मुंडा’ था । गरीब परिस्थिति
के कारण बिरसा मुंडा को उनके मामा के यहाँ पढाई के लिए भेजा गया । बिरसा मुंडा की
प्राथमिक शिक्षा ‘उलीहातू’ इस गाँव में हो गई । बिरसा ने ख्रिश्चन धर्म का स्वीकार
का विरोध किया । उस समय बिरसा मुंडा को बकरियाँ चराने का काम दिया गया था । वह
बकरियाँ चराने का काम करता था। यह करते
हुए भी वह पढाई में अवल था । बाद में बिरसा को आगे की पढाई के लिए कूदी बरटोली
यहाँ भेजा गया । यहाँ जर्मन मिशनरी स्कूल में दाखिल कराया गया । फिर यहाँ से 1886
में चाईबासा में जर्मन मिशनरी उच्च माध्यमिक स्कूल में भर्ती कराया गया । यह समय
बिरसा के लिए एक व्यक्तिमत्व विकास का था । एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते
समय डॉ. नोट्रोट ने कहा था कि “जो ख्रिश्चन धर्म स्वीकार करेगा और उसका पालन
करेगा उनसे ली गई जमीन लौटाई जाएगी। ” इस बात को बिरसा ने ध्यान में रखा लेकिन
जब 1886-87 में मिशनरी एवं मुंडा जनजातियों में विरोध निर्माण हुआ तो मिशनरियों ने
मुंडा सरदारों को धोकेबाज, चोर कहा गया । इस बात का बिरसा मुंडा ने तीव्र प्रतिरोध
किया । तो उसे उस स्कूल से निकाला गया । तीन साल तक बिरसा ने मिशनरी स्कूल में
पढाई करने के बाद वह थोड़ी बहुत अंग्रेजी जानने लगा । बिरसा का मन और मस्तिष्क हमेशा अपने समाज का अंग्रेजों से किया गया शोषण
के बारें में सोचता रहता था । उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने
के लिए हमेशा जागृत किया । 1894 में छोटा नागपुर में अकाल के कारण महामारी फैली
हुई थी । बिरसा ने पूरे मनयोग से सभी आदिवासी समाज की सेवा की । बिरसा मुंडा और
उनका परिवार 1890 में चाईबासा को छोड़ चुका था । कुछ समय बीत जाने के बाद बिरसा ने
अपनी पढाई उनके बहन के यहाँ पूरी की । बिरसा और उनके परिवार ने जर्मन इसाई मिशन के
सभासत्व छोड़ने के बाद ‘रोमन कथोलिक’ धर्म का स्वीकार किया । 1878 में
ब्रिटिश सरकार ने जो वन विषयी कानून बनाया था । इस कानून का आदिवासी जनसमूह के लिए
कुछ भी लाभ नहीं था । उलट उनकी जमीन इस कानून से छिन ली गई । इसके विरोध में बिरसा
मुंडा ने अंग्रेज सरकार को निवेदन दिया की यह कानून बरखास्त किया जाए । उसके बाद
मुंडा का प्रतिरोधि हल्ला चलता ही गया । 1895
में हिन्दू और ख्रिश्चन की साजिशों का पत्ता बिरसा मुंडा को पत्ता चला और मुंडा
जनजातियों को इस जाल से निकालने के लिए मुझे है अपना जीवन नौछावर करना होगा। उन्होंने मुंडा जनजातियों की जीवन पद्धति, उनका
धर्म, संस्कृति, की रक्षा करना बहुत ही महत्वपूर्ण समझा । उन्होंने सभी आदिवासियों
को संघटित करके अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा जनांदोलन खड़ा किया । हजारों आदिवासी
समाज को धर्मान्तर से बचाया । तब से आदिवासी जनजातियाँ बिरसा मुंडा को भगवान का
अवतार मानने लगी । बिरसा मुंडा ने सभी आदिवासियों को कहाँ की ‘बिरसा भगवान’ यह धार्मिक
नियम का पालन करना तुम सभी का कर्तव्य है । वे समाज से हमेशा कहते थे कि चोरी
करना, झूठ बोलना, पूजा करना, हमारे धर्म के खिलाफ है । हमारें देवता प्रकृति का हर
हिस्सा है । भूतप्रेत, पर विश्वास मत रखों । इन सभी नियमों का पालन आदिवासियों ने
किया तभी उनमे एकता की भावना निर्माण हो गई । सभी मुंडा जनजातियाँ बिरसा को धरती
का देवता मानने लगी । उन्हें मिलने के लिए दूर-दूर से आती रही । बिरसा मुंडा ने उस
भ्रष्ट व्यवस्था के विरुद्ध निर्णय लिया था कि-“हमें इस धरती पर मुंडा राज्य
स्थापन करना है हमरें मुख्य शत्रु अंग्रेज राज्यकर्ते, इसाई, ठेकेदार, ब्राह्मण
बनियाँ, दलाल आदि हैं। इस सभी लोगों ने मुंडा लोगों का शोषण किया है इसलिए इन
लोगों को तीर दिखाना होगा” वह लोगों से हमेशा कहते थे कि हमारा राज्य आने वाला
है और अंग्रेज सत्ता समाप्त होने वाली हैं । बिरसा ने लोगों को कहा की जमीनों का
कर देना नहीं हैं किसी अंग्रेज अधिकारी को । यह बात फादर हफ़मन ने अंग्रेज सरकार को
बताई और अंग्रेज सरकार बिरसा से सावध हो गई । इसी कारण सिंहभूमि यहाँ डेपुटी
कमिश्नर ने आदेश निकाला की बिरसा मुंडा को गिरफ्तार किया जाए । बिरसा मुंडा को
गिरफ्तार करने के लिए तमाड़ के पुलिस अधिकारी और कुछ कर्मचारी ‘चालकद’ यहाँ पर गए
लेकिन बिरसा के अनुयाइयों ने वहाँ उन्हें अंजाम दिया। बाद में बंदूक टुकड़ी को रांची (बंदगांव ) से
बुलाकर और जमीदार जगमोहनसिंह ने एक हाथी लेकर घने अँधेरे में चुपके से बिरसा मुंडा
को पकड़ लिया । और वहाँ से ‘बंदगांव’ लेके चला गया । बंदगांव पुलिस ठाणे को मुंडा
आदिवासियों ने घेर लिया । लेकिन ज्यादा किसी को खबर न चले इस कारण उन्हें ‘खूँटी’
लाया गया । वहाँ भी बिरसा अनुयायी हजर हुए । फिर वहाँ से बिरसा को ‘राँची’ जेल
लाया गया । राँची में कालिकृष्ण मुखर्जी ने न्यायालयीन खटला चलाया और बिरसा को
निर्दोष मुक्त किया । ब्रिटिश सरकार ने उस न्यायाधीश का तबादला करवायां । उसके बाद
फिर से बिरसा मुंडा सह और पंद्रह मुंडा लोगों को जेल में डाला गया । उस समय बिरसा
की बाजु से किसी भी वकील ने खटला नहीं चलाया । बिरसा को 2 साल का कारावास की सजा
सुनाई गई । उन्हें ‘हजारी बाग’ जेल में रखा गया । 30 नवम्बर 1897 में जब
बिरसा ‘चालकद’ यहाँ पर लौटा तो 7 दिसंबर 1897 में राँची के डिपुटी कमिश्नर खुद
बिरसा को मिलने आए और कहने लगे कि –“आप मुझे वचन दीजिए की, इसके बाद मैं कभी भी
आंदोलन नहीं करूँगा। ” इस बात पर बिरसा ने तुरंत जवाब दिया कि-“मैंने किसी
को कुछ भी नहीं कहाँ और कहूँगा भी नहीं लेकिन जो सच हैं वह बताना मेरा कर्तव्य है
लोगों को । ”
फरवरी 1898 में ‘डोमबारी’
यहाँ पर सभा आयोजित की गई । इस सभा में कहाँ गया कि अब हमें अंग्रेजों के खिलाफ
आंदोलन छेड़ना हैं । फिर दुसरे साल में तुरंत वही पर ‘डोमबारी’ सभा का आयोजन
किया गया । इसी सभा में बिरसा मुंडा ने दो कलर के झण्डे लाए एक सफ़ेद दूसरा लाल । सफ़ेद
रंग का झन्डा मुंडा लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा था तो लाल रंग का झन्डा
आदिवासियों का शोषण करने वालों का प्रतीक
था । अंग्रेजों का यह शत्रु का प्रतीक हैं इसलिए एक केली का झाड़ लगाकर उसे धनुष्य
और तीरों से मारा गया । पहले बिरसा ने अहिंसा का मार्ग अपनाया था लेकिन
अन्याय-अत्याचार को देखकर उन्होंने फिर से हिंसा का मार्ग अपनाया । 25 दिसंबर 1899
में बिरसा ने आंदोलन शुरू किया । इसी बिरसा के आंदोलन को मुंडारी भाषा में ‘उलगुलान’
कहा जाता है । 1899 में मुंडा जनजातियों ने अंग्रेजों पर धनुष्य और तीरों का
प्रहार किया इस हल्ले से सभी अंग्रेज अधिकारी घायल हो गए । उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था
की क्या करें? 7 जनवरी 1990 में धनुष्य तीर से खूँटी पुलिस चौकी पर हमला किया गया ।
वहाँ के बीस उपस्थित्त बंदूकधारी पुलिस भाग गए । दो पुलिस कर्मचारियों को मार दिया
गया । उसके बाद पुलिस चौकी को आग लगाई गई । इस आंदोलन से अंग्रेज बहुत ही बेहाल हो
गए । वह कहने लगे कि हमें तुरंत ही जागरुक होना चाहिए नहीं तो यह लोग हमें यहाँ से
भगायेंगे ऐसा डर उनके अंदर पैदा हो गया । तुरंत ही 400 सैनीक राँची शहर के बचाव के
लिए लाई गई । उसके बाद मुंडा लोगों ने यह बाण हल्ले बंद किए । 150 बंदूकधारी
सैनिकों को बुलाया गया । इस फौज का नेतृत्व ‘अनडरसन’ कर रहा था । मुंडा
जनजातियों की ओर से ‘एंटकाडीह’ गाँव का ‘गया मुंडा’ कर रहा था । इसी
कारण उनके झोपड़ी पर अंग्रेजों ने हल्ला किया । झोपड़ी को जलाने का आदेश दिया गया । इस
हल्ले में गया मुंडा की पत्नी ने दो सिपाईयों को मार दिया । डेपुटी ने गोली मारकर
गया मुंडा को मार दिया । ‘गया मुंडा’ यह ‘उलगुलान का पहला शहीद
हुतात्मा’ ठहरा ।
बिरसा मुंडा का यह
प्रतिरोध धीरें-धीरें आगे-आगे चलता ही गया
। अंग्रेज सरकार ने बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए 500 रु का बक्षिस जाहिर किया। करीबन दो महीने वह अंग्रेज सरकार को नहीं मिला ।
3 फरवरी 1900 में बिरसा मुंडा को ढूंडने के लिए सरकार ने पूरे जंगल को आग लगायी । उस
आग को देखने जब बिरसा वहाँ पंहुचा तो ब्रिटिश सरकारने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । वहाँ
से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके राँची के
जेल में बंद किया गया । बिरसा ने जाते-जाते लोगों से कहाँ कि “दिशा दिखने की जो
मेरी जिम्मेदारी थी । वह मैंने पूरी कर ली हैं । यहाँ से आगे आपकों कार्य करना हैं
। उसके लिए अगर मदद लगे तो मेरा नाम भी मत लेना । मेरे बताये हुए मार्ग पर चलेते
गए तो निश्चित ही आपको अपने अधिकार मिलेंगे । ”बिरसा मुंडा के खिलाफ ब्रिटिश
सरकार को कोई सबूत नहीं मिल रहा था । इसलिए कलकत्ता बेरिस्टर जेकब ने बिरसा मुंडा
को निर्दोष छोड़ना होगा ऐसा ब्रिटिश सरकार को कहा । बिरसा के साथ 581 लोगों को अटक
किया था । 20 मई 1900 को बिरसा को जेल की एक कोठडी में बंद किया गया । उनका खाना
भी बंद किया गया । उसी दिन बिरसा बेहोश हो गया । जेल अधीक्षक के उपचार से बिरसा की
थोड़ी हालात ठीक हुई । लेकिन 9 जून 1900 को बिरसा की अचानक तबियत ख़राब हुई । उसी
में उनकी मृत्यु हो गई । मृत्यु का कारण
सरकार ने एशियाटीक कॉलरा घोषित किया । लेकिन इसके लक्षण दिखाई नहीं दिए । जिस
तरह से नेपोलियन को अर्सेनिक देकर मार दिया गया । उसी तरह से बिरसा मुंडा को भी
जहर देकर मार दिया गया । मृत्यु के बाद भी उनका शव उनके घर वालों से नहीं दिया गया
। ऐसी यह बिरसा मुंडा की अमर कहानी बहुत दिनों के बाद आज सामने आयी । यह इतिहास जब
लोगों के सामने आया तो बिरसा मुंडा को लोगों ने देवता के रूप में स्वीकृत किया । मराठी
के आदिवासी लेखक प्रा. डॉ. विनायक तुमराम उनके बारे में कहते हैं कि “सामान्य
जनता का जन्मसिद्ध अधिकार छिन लिया जिन लोगों ने उस प्रवृति को बदलने वाला नाम
बिरसा मुंडा है । अंतर्गत और बाह्य दोनों परिस्थितियों को जानकर सचाई का रास्ता
दिखने वाला नायक बिरसा है । वह एक महान पुरुष, सुधारक, विचारवंत, वीर योद्धा,
लोकनेता, कुशसंघटक, सरसेनानी, कलावंत, कुटुंबवत्सल्य, प्रखर देश भक्त, तत्वचिंतक
ऐसे कई गुणों से संपन्न व्यक्तिमत्व होकर चल गया इस अष्टपैलू का नाम हैं बिरसा
मुंडा । ”
आज भी बिरसा मुंडा के क्रांति के विचार जिन्दा हैं । जो विचार फुले, शाहू, अम्बेडकर ने समाज को दिए है । वही विचार बिरसा मुंडा ने भी दिए हैं । 1875 से 1900 इस 25 वर्ष में के बिच बिरसा मुंडा ने जो योगदान दिया हैं वह आज भी प्रासंगिक है । इसलिए इस महामानव को मैं कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ ।
संदर्भ ग्रन्थ:
1) प्रा.गौतम
निकम, बिरसा मुंडा आणि मुंडा आदिवासी, विमलकीर्ति प्रकाशन, चाळीसगाव (महाराष्ट्र), प्रथमावृत्ती- 17 मई 2010
2) डॉ.तुकाराम रोंगटे,
आदिवासी आयकॉन, संस्कृती प्रकाशन, पुणे (महाराष्ट्र), प्रथमावृत्ती- 4 अप्रैल 2011
1 टिप्पणी:
Nice lekh
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