सोमवार, 18 मार्च 2024

हिंदी काव्यानुवाद में निर्मित अनुवाद की समस्याएँ व समाधान (विशेष संदर्भ : बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’ मराठी काव्य संग्रह)

 


हिंदी काव्यानुवाद में निर्मित अनुवाद की समस्याएँ व समाधान 

(विशेष संदर्भ : बाबाराव मडावी का ‘पाखरं’ मराठी काव्य संग्रह)

मराठी के साहित्यकार मामा वरेकर ने कहा हैं कि “लेखन होना आसान है किंतु अनुवादक होना अत्यंत कठिन है।”[1] साहित्यकार को एक भाषा आने से भी वो साहित्य लिख सकता है किंतु अनुवादक को दो भाषाओं का समांतर ज्ञान होना चाहिए तभी वह विशालकाय समुद्र या नदी पर एक प्रकार का सेतु बन सकता है। काव्यनुवाद करते समय अनुवादक को स्त्रोतभाषा और लक्ष्यभाषा का ज्ञान होना अनिवार्य बन जाता है। क्योंकि अनुवादक को अनुवाद करने के लिए जिस मूलभाषा को चुनना पड़ता है, उस भाषा को स्त्रोतभाषा कहा जाता है और अनुवादक जिस चुनी हुई मूलभाषा का दूसरी भाषा में अनुवाद करता है, उसको लक्ष्यभाषा कहा जाता है। अनुवाद की प्रकिया को स्त्रोतभाषा से लक्ष्यभाषा में पूरा करने के लिए सुप्रसिद्ध रूसी विद्वान लोटमैन चार दृष्टियाँ बताते हैं-भाषापरक, विषयपरक, संरचनापरक और साहित्येत्तर दृष्टि आदि। इन्हीं दृष्टियों के कारण ही अनुवादक मूलकृति का ध्वनि स्तर, शब्द स्तर, वाक्य विन्यास, विषयवस्तु, संरचना, सामाजिक-सांस्कृतिक और मानवीयता आदि दृष्टियों का अनूदित पाठ में अनुवादक को युग बोध हो जाता है। इस संबंध में कृष्ण कुमार गोस्वामी लिखते हैं कि “सृजनात्मक साहित्य में विषयवस्तु (क्या) और शैली (कैसे) दोनों पर दृष्टि रहती है। इसमें संदेश और शैली दोनों का विशेषकर शैली का अधिक महत्त्व होता है। इसमें संदेश संकल्पनात्मक अर्थ की अपेक्षा भावात्मक अर्थ का विशेष योगदान रहता है। इसमें भाषा और सूक्ष्म अर्थों पर लेखक का अधिकार रहता है।”[2] इसीलिए कविता के अनुवाद में सुर-ताल-नाद सौंदर्य, संरचनात्मक वैशिष्ट्य, शब्द संस्कार और कविता का प्रतीकन आदि तत्त्व निर्मित हो जाते हैं। जब कविता का अनुवाद पाठक वर्ग को समझने में अत्यंत सुलभ हो जाता है तब उस अनुवाद में अनुसर्जना निर्मित होती है। डॉ. नगेन्द्र ‘काव्यनुवाद सिद्धांत और समस्याएँ’ पुस्तक की प्रस्तावना में लिखते हैं कि “ज्ञान के साहित्य की अपेक्षा सृजनात्मक या रस के साहित्य के अनुवाद की समस्या अत्यधिक जटिल होती है और सृजनात्मक साहित्य के अंतर्गत भी कविता का अनुवाद तो असाध्य-साधना से कम नहीं होता। कविता का केंद्रीय तत्त्व है अनुभूति जिसका स्वरूप सर्वथा सरल होता है, और उसका माध्यम है बिंब जिसका संप्रेषण न होकर केवल पुनः सर्जन ही हो सकता है।”[3] प्रस्तुत शोध आलेख का केंद्र मराठी से हिंदी अनुवाद काव्य भाषा का है। इसमें मराठी के ‘पाखरं’ काव्य संग्रह का मैंने हिंदी भाषा में अनुवाद करते समय जो-जो समस्याएँ निर्मित हुई है, इसे दिखाया गया है और उस समस्याओं का समाधान निदान किया है।

कविता का अनुवाद करते समय अनुवादक को कविता के मूलभाव को ध्यान में रखकर ही अनुवाद करना पड़ता है, क्योंकि कभी-कभी अनुवादक शब्दानुवाद करता है, तो कविता का मूलभाव बिगड़ने की संभावनाएँ अधिक बन जाती है। प्रत्येक भाषा की भौगोलिक विशेषताएँ होती है, उस भौगोलिक विशेषताओं के कारण ही उस भाषा की सांस्कृतिक पहचान बनी हुई होती है। इसीलिए ग्रामीण साहित्य के शब्द भंडार का अनुवाद करना बहुत मुश्किल काम होता है। बाबाराव मडावी के ‘पाखरं’ कविता संग्रह में भी ग्रामीण शब्द भंडार बहुत सा देखने को मिलता है। जिसके कारण ग्रामीण शब्दों का अनुवाद करना कठिन है। पाखरं काव्य संग्रह में कुल 37 कविताएँ हैं। जिसमें से कुछ अनुवाद करने के लिए आसान हैं तो कुछ-कुछ बहुत कठिन हैं। क्योंकि बहुत से कविताओं में आदिवासी बोली भाषाओं के शब्द आए हैं, जिसका अनुवाद करना कठिन हो जाता हैं। जैसे- ‘टाहो’ जैसे शब्दों का अनुवाद करते समय मूल रचनाकार को पूछना पड़ा। जिसका अर्थ होता हैं ‘विद्रोह’। ऐसे ही ‘बिरसा’ कविता में संताली भाषा का शब्द ‘उलगुलान’ आया है। जिसका अर्थ भी ‘विद्रोह’ ही होता है किंतु संबंधित कविता में योग्य अनुवाद की दृष्टि से ‘उलगुलान’ ही रखा गया है। मैंने ‘पाखरं’ कविता संग्रह का अनुवाद करते समय शब्दानुवाद और भावानुवाद का ज्यादा प्रयोग किया है। सावध (सजग), जाळे (जाल), वंदन (वंदन), मेजर (मेजर), मी पाहीले (मैंने देखा), हे प्रिये (प्रिये), स्वातंत्र्याचं गाव (स्वतंत्रता गाँव), बाबासाहेब (बाबासाहेब), सावित्री (सावित्री) जैसी कविताओं में ज्यादातर शब्दानुवाद किया हुआ है, क्योंकि शब्दानुवाद से कविता का भाव सही मायने में प्रस्तुत हो रहा था। अतः भोलानाथ तिवारी और ओमप्रकाश गाबा लिखते हैं कि “शब्दानुवाद में अनुवादक को बहुत सतर्क रहने पर भी प्राय: स्त्रोतभाषा का प्रभाव स्पष्ट रहता है। मूल की उस गंध के कारण अनुवाद की भाषा प्रायः कृत्रिम तथा निष्प्राण हो जाती है तथा उसमें मूल रचना का प्रवाह नहीं रह जाता, जो बढ़िया अनुवाद के लिए अनिवार्यतः आवश्यक है”[4] जैसे शब्दानुवाद का उदाहरण देख सकते हैं-

स्त्रोतभाषा-

 “थांब रे

हे सुटाबुटातल्या माणसा

लंगोटी नेसलेल्या

उघड्या अंगावर

तितर लावे पकडावे तसे

जाळे फेकु नको-

या धरतीच्या पोटातुन

आमच्या घामाच्या थेंबानं

रान नाही उगवलं

तर काय खाशील”[5]

लक्ष्यभाषा अनुवाद-

रुक जाओ

हे सूट-बूट पहनने वाले लोगों

लंगोट न पहने हुए

खुले तन पर

मछलियों जैसे

जाल मत डालो! 

इस धरती की कोख से

हमारे पसीनों की बूँदों से

खेत-खलिहानों में

हमने फसल नहीं उगाई

तो तुम क्या खाओगे?

आग (आग), सुरुंग (सुरंग), ठिणगी (चिंगारी), प्रपंच (परिवार), वावर (खेती),  वणवा (दावानल) जैसी ‘पाखरं’ काव्य संग्रह की कविताओं को भावानुवाद के जरिए प्रस्तुत किया गया है। इन कविताओं का शब्दानुवाद करने के माध्यम से कविता का मूलभाव बिगड़ रहा था। इसीलिए भावानुवाद की आवश्यकता महसूस हो गई। माय[6] (माँ), वावर[7] (खेती), रान[8] (खेती) जैसी कविताओं में ‘चुंबळ, ‘गोफण’ जैसे मराठी के शब्द आए हुए हैं। इन शब्दों का हिंदी में अनुवाद नहीं हो सकता हैं, इन शब्दों का अर्थ देना पड़ा। इसीलिए कविता का अनुवाद करते समय कभी-कभी तो यह इतना कठिन हो जाता है कि अनुवाद को शब्दों का अर्थ लिखने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

सुर, ताल और लयबद्ध शब्दों का मराठ, हिंदी और अन्य भाषाओं में महत्वपूर्ण स्थान है।  क्योंकि इसी शब्दों के कारण ही कविता को लयबद्धता प्राप्त होती है। अनुवादक को काव्यानुवाद करते समय स्त्रोत भाषा में सुर-ताल-लय की सौंदर्यता बढ़ाने वाले शब्द तो मिलते हैं किंतु लक्ष्य भाषा में इन शब्दों का अनुवाद कारन बहुत मुश्किल काम बन जाता है। इसीलिए अनुवादक सुर-ताल-लय की काव्य में सौंदर्यता बढ़ाने के लिए इन जैसे शब्दों को लक्ष्य भाषा में जैसे की वैसे ही रखता है। ऐसे ही हम बाबाराव मडावी की ‘रान’ के अनुवाद को देख सकते हैं-

स्त्रोत भाषा-

ढवळ्या रं पिवळ्या रं

बिगी बिगी चाल रं

हे रान लई हिरवं गार रं[9]

लक्ष्य भाषा अनुवाद-

अरे सर्जा रं अरे राजा रं  

जल्दी जल्दी चल रं  

यह खेत बहुत हरा-भरा है रं”

उपरोक्त ‘रान कविता’ कविता में  ‘रं’ व्यंजन सूर, ताल और लय को प्रस्तुत करने का काम कर रहा है। मूल कविता के भाव को ध्यान में रखते हुए ‘ढवळ्या व ‘पिवळ्या’ जैसे शब्दों की जगह पर ‘सर्जा-राजा’(बैल-जोड़ी को दिया गया नाम) प्रस्तुत किया गया है। वैसे तो मराठी भाषा में ढवळा और ‘पिवळा’ यह सफ़ेद और पिला रंग को प्रस्तुत करते हैं किंतु काव्य में भावानुवाद के अनुसार वहाँ पर बैल-जोड़ी का नाम है।

इस प्रकार से प्रस्तुत शोध आलेख में मैंने ‘पाखरं’ कविता संग्रह का अनुवाद करने के बाद मुझे जो मराठी से हिंदी में काव्यानुवाद करते समय जो-जो समस्याएँ निर्मित हुई हैं, उन समस्याओं को दिखाने की कोशिश की है। और उन समस्याओं पर निदान करने का भी प्रयास किया है। अतः हम कह सकते हैं कि काव्यानुवाद वास्तव में एक बहुत ही कठिन कार्य है। इस संबंध में डॉ. सुरेश सिंहल अपनी पुस्तक ‘अनुवाद : संवेदना और सरोकार’ में लिखते हैं कि “काव्यानुवाद करना वास्तव में दोधारी तलवार पर चलने जैसा है, क्योंकि जहाँ अनुवादक को इन विशेषताओं के काव्यात्मक सौंदर्य की रक्षा करनी होती है, वहीं ये अनुवाद में कठिनाई भी उत्पन्न करती हैं। ये विशेषताएँ जितनी अधिक होंगी, अनुवाद उतना ही कठिन होगा। काव्य भाषा की ये विशेषताएँ ही अनुवादक के लिए वास्तविक चुनौती बनकर सामने आता हैं। अनुवादक को इन चुनौतियों का सामना करते हुए ही काव्यानुवाद करना पड़ता है। कविता में अत्यधिक जटिल भाषिक प्रयोगों के कारण ही अनुवादक को एक ओर काव्यानुवाद को हू-ब-हू कर सकने का दोष भी अपने सिर पर लेना पड़ता है”[10]  

 



आधार ग्रंथ

मडावी, बाबाराव. (2009). पाखरं. यवतमाळ : प्रियंका प्रकाशन

संदर्भ-

[1] गोस्वामी, कृष्ण कुमार. (2012). अनुवाद विज्ञान की भूमिका. नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 9

[2] वहीं. पृष्ठ संख्या. 275

[3] सहगल, नगीन चंद्र. (1991). काव्यानुवाद सिद्धांत और समस्याएँ. दिल्ली : मानव संसाधन विकास मंत्रालय, शिक्षा विभाग, भारत सरकार. पृष्ठ संख्या. (प्रस्तावना से)

[4] तिवारी, भोला नाथ व् गाबा ओमप्रकाश. (1999). अनुवाद की व्यावहारिक समस्याएँ. दिल्ली : शब्दकार प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 17

[5] मडावी, बाबाराव. (2009). पाखरं. यवतमाळ : प्रियंका प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 15

[6] वहीं. पृष्ठ संख्या. 21

[7] वहीं. पृष्ठ संख्या. 25

[8] वहीं. पृष्ठ संख्या. 35

[9] वहीं. पृष्ठ संख्या. 35

[10] सिंहल, डॉ. सुरेश. (2016). अनुवाद : संवेदना और सरोकार. नई दिल्ली : संजय प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 131 

                                                                                                  डॉ.दिलीप गिऱ्हे

हिंदी विभाग,

सहायक प्राध्यापक,

वसंतदादा पाटील कला, वाणिज्य व विज्ञान महाविद्यालय, पाटोदा

जिला-बीड (महाराष्ट्र)-414204

ईमेल: girhedilip4@gmai.com

                                                                                          संपर्क सूत्र: 9284669525

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