शनिवार, 30 मार्च 2024

हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन संघर्ष विषय पर पीएचडी शोध प्रस्ताव लेखन-Dr.Dilip Girhe

 


विषय एवं क्षेत्र :

आदिवासी जीवन की तलाश जब कविता में की जाती है, तब हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं की चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है। इन कविताओं में आदिवासी जीवन पर चर्चा करने से पूर्व हमें यह ध्यान में रखना होगा कि आदिवासी समाज जीवन के विभिन्न पहलू क्या हैं? उन पहलुओं के अंतर्गत आदिवासियों का सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक जीवन, उनकी मिथकीय आस्थाएं एवं मान्यताएँ, उनकी मौखिक साहित्य परंपरा, उनकी विकास की दशा एवं दिशा, भविष्य की विभिन्न चुनौतियां, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध आदि बातों पर ध्यान रखना आवश्यक है, तभी आदिवासी जीवन हमें समझ में आ सकता है। सन् 1990 के बाद भूमंडलीकरण और उदारीकरण से ऐसी अंधी दौड़ शुरू हुई, जिसमें उत्तर आधुनिकता के नारे उछाले गए और इतिहास का खात्मा करने की बात की गई। दूसरी ओर साम्प्रदायिकता और जातिवाद की लम्बी दौड़ शुरू हुई, जो अब तक रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। इन सभी परिस्थितियों में आदिवासी कवियों ने अपनी कलम के तीर चलाए, जिसमें आदिवासी समाज-संस्कृति के विविध पक्ष चित्रित हुए।

आदिवासी साहित्य जीवनवादी साहित्य है। यह साहित्य उन पहाड़ों-जंगलों के सीमावर्ती क्षेत्र में रहनेवाले वंचितों का साहित्य है, जिनके प्रश्नों का अतीत में कभी उत्तर ही नहीं दिया गया। यह ऐसे दुर्लक्षितों का साहित्य है, जिनके आक्रोश पर ‘मुख्यधारा’ की समाज व्यवस्था ने उत्तर नहीं दिया। इतना ही नहीं, अब एक नया विद्रोह आदिवासी साहित्य के रूप में दिन-ब-दिन आकार ले रहा है। यह साहित्य पहाड़ों की गोद में और कंटीली झाड़ियों, बस्ती-बस्ती में, जिनके जीवन का हर क्षण श्रृंखलाबद्ध हुआ है, यह साहित्य ऐसे ही मूलवासियों को मुक्ति की आशा दिलानेवाला है। आदिवासियों का स्थान भारतीय संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति’ (scheduld tribe) के नाम से है। उन्हें गिरिजन, वनवासी, प्राचीन भारत के निवासी आदि शब्दों से पुकारा जाता है, लेकिन वह न ही गिरिजन है और न ही वनवासी। वह तो ‘भारत का मूल निवासी’, ‘जंगल का राजा’ है। इन सभी बातों से यह ज्ञात होता है कि आदिवासियों का इतिहास हजारों साल पुराना है। हजारों वर्षों से चली आ रही इस वाचिक परंपरा ने आज लिखित रूप धारण किया है। भारतीय जमीन पर प्राचीन काल से जंगलों, पहाड़ों में रहने वाला समाज आज का आदिवासी समाज है। उनकी सभ्यता, उनकी अस्मिता, उनकी संस्कृति और उनके अस्तित्व को बनाये रखना हम सब का कर्तव्य है, किंतु पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद ने संपूर्ण आदिवासियों को पूरी तरह से नष्ट करना शुरू कर दिया है। आदिवासी समाज अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष करता आ रहा है। इन सभी तथ्यों या मुद्दों का चित्रण 21वीं सदी की कविताओं में आदिवासी कवियों ने बहुत ही गहराई से किया है। इसी बात को लेकर भूमंडलीकरण के दौर की कविताओं में आदिवासी जीवन को लेकर किन-किन मुद्दों पर ध्यान दिया गया है, इसके अध्ययन के लिए प्रस्तुत विषय का चयन किया गया है। इस शोध विषय में चुने हुए आदिवासी कवियों की कविताओं के माध्यम से आदिवासियों के जीवन-संघर्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा। वर्तमान समय में आदिवासियों पर अनेक संकट आ रहे हैं। उनके अधिकारों पर आघात हो रहा है। उनकी जमीनों पर कब्ज़ा किया जा रहा है। इन सभी परिस्थितियों को आदिवासी कविताओं में किस तरह चित्रित किया गया है, इसका गहन अध्ययन एवं विश्लेषण प्रस्तुत शोध का मुख्य अभिप्रेत है।

सन् 2000 के बाद हिंदी और मराठी कविताओं में आदिवासी जीवन-संघर्ष को प्रस्तुत करने वाले प्रमुख हिंदी आदिवासी कवियों में, डॉ. रामदयाल मुंडा, ग्रेस कुजूर, हरिराम मीणा, सरितासिंह बड़ाईक, निर्मला पुतुल,  वंदना टेटे, महादेव टोप्पो, ओली मिंज,ज्योति लकड़ा, अनुज लुगुन, जसिन्ता केरकट्टा, रोज केरकट्टा, सरोज केरकट्टा, नीतिशा खलखो, ग्लैड्सन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, डॉ. भगवान गव्हाड़े, आदित्य कुमार मांडी  आदि प्रमुख हैं। मराठी कवियों में डॉ. गोविंद गारे, वाहरु सोनवणे, भुजंग मेश्राम, डॉ.विनायक तुमराम, उषाकिरण आत्राम, सुखदेव बाबू उईके, प्रा. वामन शेडमाके, चमुलाल राठवा, प्रा. माधव सरकुंडे, दशरथ मडावी, बाबाराव मडावी, सुनील कुमरे, विनोद कुमरे, डॉ. संजय लोहकरे, मारोती उईके, कृष्णकुमार चांदेकर, वसंत कन्नाके, आदि प्रमुख हैं। प्रस्तुत शोध अध्ययन में मुख्य रूप से हिंदी और मराठी के उन कवियों को लिया जाएगा, जिनके कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त प्रसंगवश पत्र-पत्रिकाओं में छपी अन्य आदिवासी कविताओं का भी उपयोग किया जाएगा। हिंदी में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख(2013)’, निर्मला पुतुल का ‘बेघर सपने(2014)’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा(2015)’, रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित ‘कलम को तीर होने दो (2015)’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा(2015)’, आदित्य कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल फूल(2015)’, हरिराम मीणा द्वारा संपादित ‘समकालीन आदिवासी कविता(2015)’ ओली मिंज का ‘सरई(2015)’ आदि कविता संकलन महत्वपूर्ण हैं। मराठी में उषाकिरण आत्राम का ‘लेखणीच्या तलवारी(2009)’, वसंत कन्नाके का ‘सुक्का सुकूम(2002)’, डॉ.विनायक तुमराम द्वारा संपादित  ‘शतकातील आदिवासी कविता(2003)’, वाहरु सोनवणे का ‘गोधड (2006)’, भुजंग मेश्राम का ‘अभुज माड़(2008)’, बाबाराव मडावी का ‘पाखरं(2009)’, मारोती उईके का ‘गोंडवनातला आक्रंद(2010)’, विनोद कुमरे का ‘आगाजा(2014)’, माधव सरकुंडे के ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार(2011)’ एवं ‘चेहरा हरवलेली माणसं(2015)’, डॉ. संजय लोहकरे का ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश(2015)’ आदि प्रमुख हैं।

हिंदी आदिवासी कवियों में डॉ.रामदयाल मुंडा आदिवासी जनमानस के पुत्र माने जाते हैं। वे छोटी-छोटी कविताएँ  लिखते थे। लेकिन उनकी कविताओं की खूबी यह मानी जाती है कि वे मानवीय प्रेम, मूल्य तथा विकृतियों की अभिव्यक्ति बड़ी खूबी से प्रकृति या पशु-पक्षियों के प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। प्रेम का रिश्ता उनकी कविता में जंगल-पेड़-तीतर के माध्यम से अभिव्यक्त होता हुआ दिखाई देता है। दूसरी ओर महादेव टोप्पो अपनी कविताओं में इस देश की समाज व्यवस्था को बदलने के लिए ‘जंग लगे तीरों पर नई धार लाने का गीत’ गाते हैं। वे आदिवासी समाज की दुर्दशा एवं उनकी व्यथा, आदिवासी समाज में अज्ञानता तथा अशिक्षा के कारण फैले अंधकार को कविताओं के माध्यम से व्यक्त करते हैं। मुंडारी भाषा के सशक्त युवा कवि अनुज लुगुन हिंदी कविता लिखते हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी इतिहास झांकता है। उनकी कविताओं में इतिहास है, संस्कृति है, उत्साह है, उम्मीद है, संकल्प है हक़ और हौसला है। दूसरी ओर निर्मला पुतुल हमें बाजारवाद के खतरों से अवगत कराती हैं, वे स्त्री-जीवन की सूक्ष्मताओं, विद्रूपताओं, त्रासदियों को भी उकेरती हैं। आदिवासी जीवन के जड़ों तक जाकर उनकी जीवन शैली, सामूहिकता, संस्कृति, भाषा एवं शैली अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं। हिंदी कविताओं में सन् 2000 के बाद की कविताओं में सरितासिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख’, निर्मला पुतुल का ‘बेघर सपने’, वंदना टेटे का ‘कोनजोगा’, रमणिका गुप्ता द्वारा संपादित ‘कलम को तीर होने दो’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा’, आदित्य कुमार मांडी का ‘पहाड़ पर हूल फूल’, हरिराम मीणा द्वारा संपादित ‘समकालीन आदिवासी कविता’ आदि कविता संकलन महत्वपूर्ण  हैं।

सरितासिंह बडाईक नागपुरियां भाषा की कवयित्री हैं। नागपुरियां और हिंदी भाषा में इनका ‘नन्हें सपनों का सुख’ नामक कविता संग्रह है। इस देश के हर एक नन्हें के क्या सपने हैं, नन्हीं-नन्हीं क्या अपेक्षाएं हैं, बड़ी-बड़ी मजबूरियां क्या हैं, इन सभी आदिवासी प्रश्नों पर उनकी कविताएँ सवाल खड़ा करती हैं। प्रकाशन की दृष्टि से यह कविता संकलन आदिवासी हिंदी कविताओं में प्रथम कविता संकलन माना जायेगा। उनकी कविताएँ गीतों की गेयता से कदम-ताल करती हुई दिखाई देती हैं।

हरिराम मीणा कृत संपादित किताब है ‘समकालीन आदिवासी कविता’। इसमें आदिवासी कविताओं के विश्लेषण के बारे में वे कहते हैं कि आदिवासी जीवन का गहन अनुभव, विषयानुरूप भाषा का मुहावरा, संप्रेषणीयता और प्रकृति तथा मानवता के सुख-दुःख में शामिल होने की प्रेरणा आदि बातें सामने आएंगी। इस कविता संकलन में अनुज लुगुन की ‘हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती’, ग्रेस कुजूर की ‘हे समय के पहरेदारों’, निर्मला पुतुल की ‘संथाली लड़कियों के बारे में कहा गया है’, भुजंग मेश्राम की ‘ओ मेरे बिरसा’, मंजु ज्योत्स्ना की ‘विस्थापित का दर्द’, भुवनलाल सोरी की ‘उजाले की तलाश में’, महादेव टोप्पो की ‘फिर भी हम कहते है तुम्हें जोहार’, हरिराम मीणा की ‘आदिवासी और यह दौर’ आदि कविताओं में आदिवासी अस्तित्व का संकट, व्यवस्था के प्रति आदिवासियों का विद्रोह, आदिवासियों का शोषण, जल, जंगल और जमीन का प्रश्न आदि बातों पर प्रकाश डाला गया है।

‘बेघर सपने’ निर्मला पुतुल नया कविता संग्रह है। वे एक ऐसी कवयित्री हैं, जिन्होंने दो अस्मिताओं को जबरदस्त रूप में उठाया है। इसमें आदिवासी और स्त्री प्रमुख हैं। इस कविता संग्रह की कविताओं में ‘मिटा पाओगे सबकुछ’ ‘समाज’, ‘वेश्या’,‘आखिर कहे तो किसे कहें’, ‘औरत’,‘आखिर कब तक’ आदि में आदिवासियों का संघर्षरत इतिहास और जीवन संघर्ष दिखाई देता है। उनकी कविताओं को बहुत ही करीब से देखा जाए तो उसमें वेदना और प्रतिकार का रूप दिखाई देता है। वंदना टेटे ‘कोनजोगा’ कविता संग्रह की भूमिका में लिखती हैं कि साहित्य मतलब किताबी विधाएं नहीं। हम आदिवासियों के लिए साहित्य का मतलब है नाचना-गाना, बजाना, परफॉर्म करना और कहानियाँ, गीत-कविताएँ सिरजना। वंदना टेटे की कविताओं में प्रकृति प्रेम झलकता हुआ दिखाई देता है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-झरने, चाँद-तारे, असमान में सूरज जैसे प्रकृति के कई उपादान उनकी कविताओं में दिखाई देते हैं।  रमणिका गुप्ता ने  झारखण्ड के 17 कवियों की चुनी हुई कविताओं का संकलन ‘कलम को तीर होने दो’ प्रकाशित किया। इस कविता संग्रह में रामदयाल मुंडा, अनुज लुगुन, ग्रेस कुजूर, महादेव टोप्पो, ओली मिंज, ज्योति लकड़ा, आलोका कुजूर, जसिंता केरकेट्टा, नीतिशा खलखो, निर्मला पुतुल, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू, रोज केरकेट्टा, सरोज केरकेट्टा, ग्लैड्सन डुंगडुंग, सरस्वती गागराई, सरितासिंह बड़ाईक, आदि कवियों की कविताएँ हैं। इन सभी कवियों की कविताओं में मानवीय मूल्यों की पहचान, आदिवासी जीवन शैली और स्वतंत्रता, समता, और बंधुता का भाव दिखाई देता है।  

डॉ.भगवान गव्हाड़े के ‘आदिवासी मोर्चा’ नामक कविता संग्रह में ‘उलगुलान’, ‘वैश्वीकरण की असली शक्लें’, ‘आदिवासी संस्कृति’, ‘किसान’, ‘संचार माध्यम’, ‘अपने जंगल की तलाश’, ‘औरत’, ‘भारत का वर्तमान’, ‘राजधानी’ जैसी कविताओं में आदिवासी समाज का पारिवारिक जीवन, आदिवासी संस्कृति, भूमंडलीकरण का आदिवासी जीवन पर होने वाला प्रभाव, किसान जीवन, जल, जंगल और जमीन के प्रश्न आदि ऐसे तमाम सारे मुद्दों को लेकर सवाल उठाये गए हैं। आदित्य कुमार मांडी के ‘पहाड़ पर हूल फूल’ कविता संग्रह में ‘कारगिल लड़ाई’, ‘मानवता’, ‘समानता’, ‘खामोश क्यों जमीन’, ‘मैं माओवादी नही हूँ’, ‘गरीबी’, ‘इंसानियत’, ‘भाषा मैं आजाद हूँ’ जैसी कविताओं में नक्सलवादी कौन है, आदिवासी कुपोषण का शिकार क्यों बना, ऐसे महत्वपूर्ण सवाल खड़े किये हैं। ओली मिंज का  कविता संग्रह ‘सरई’ में -शायद मैं आदमी हूँ, जोहार, बाजार, सरई, मंजिल भी क्या चुनी, धर्म का मर्म, आदिवासी, साड़ी गुटनों तक, बदलाव का दौर, झारखण्ड की धरती, कुदरत का रिवाज कविताएँ लिखकर आदिवासी धर्म महिलाओं का बाजारीकरण झारखण्ड की प्राकृतिक अपदा जैसे कई मुद्दों को वह कविताओं के माध्यम से सामने लाते हैं।

मराठी आदिवासी कविताओं में मानवीयता स्थापित होती दिखाई देती है। इससे यह पता चलता है कि आदिवासी साहित्य आर्य और अनार्य संस्कृति के संघर्ष की पहचान है। पूंजीपति, साहूकार और जमींदारों ने आज तक आदिवासियों का शोषण ही किया है। आर्य-संस्कृति वर्णवाद के पैरों तले रौदती आई। इसी कारण आदिवासी संस्कृति आर्य-संस्कृति का तीखा विरोध करती है। आज आदिवासी समाज की जिंदगी मुश्किल हो गई है। आदिवासियों का दर्द इस व्यवस्था की उपज है। यह सोचकर आदिवासी कवि कविता को हथियार की तरह इस्तेमाल करता है। अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उनकी कविता एक मिसाइल की तरह टूट पड़ती है। प्रा. वामन शेडमाके की कविताओं में साहूकारी शोषण दिखाई देता है। वे कहते हैं कि साहूकार ‘कम दाम और ज्यादा काम’ नीति से आदिवासियों का शोषण करते हैं।  उषाकिरण आत्राम की कविताओं में जुझारूपन दिखाई देता है वे कहती हैं कि हम कब तक अन्याय-अत्याचार सहते रहेंगे, जो लोग हम पर जिन शस्त्रों से वार कर रहे हैं, उनके ही  शस्त्रों से हम उन्हें सबक सिखायेंगे। इसी तरह से मराठी आदिवासी कविताओं में एहसास दिखाई देता है। युग संवेदना को वाणी देने वाली ये कविताएँ अपनी आंचलिक संस्कृति से भी परिचित कराती हैं।  

          मराठी आदिवासी कविताओं में कवि वसंत कन्नाके की कविताएँ आदिवासी अस्मिता का मुख स्वर  मानी जाती हैं। उनकी कविताएँ आदिवासी समाज की जीवन अनुभूति और उनकी वेदना को रेखांकित करने वाली हैं। कोलामी भाषा में ‘सुक्का’ का अर्थ ‘तारे’ हैं। और ‘सुकूम’ का अर्थ है ‘तारका’। आज आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है। कवि वसंत कन्नाके अपनी कविताओं में विद्रोह का स्वर दिखाते हैं। उनकी कविताओं में- ‘ट्राइब टायगर’, ‘आरक्षण, शोषण’, ‘अन्याय’, ‘गुलाम’, ‘षडयंत्र’, ‘भ्रष्टाचार’ जैसी कविताएँ आदिवासी अस्मिता के ऊपर अपनी बात रखती हैं। आदिवासियों का धर्म, उनका जीवन, उनको नक्सली घोषित करना, उनकी गरीबी, उनकी अस्मिता, उनकी भाषा, उनका विकास, भ्रष्टाचारी शासन व्यवस्था आदि मुद्दों पर प्रकाश डालती हैं। मराठी आदिवासी साहित्य में कलम को तलवार बनाने वाली कवयित्री उषाकिरण आत्राम हैं। ‘लेखनीच्या तलवारी’ इनका चौथा कविता संग्रह है। उनकी कविताओं में दुःख, वेदना, अन्याय-अत्याचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई गई है। उनकी कविताएँ आदिवासी समाज के विविध प्रश्नों पर विचार करती हैं। कवि डॉ. विनायक तुमराम ने मराठी आदिवासी साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन करके कई पुस्तकें लिखी हैं। मराठी के सभी आदिवासी कवियों की कविताओं को संकलित करके इन्होने ‘शतकातील आदिवासी कविता’ कविता संग्रह प्रकाशित किया है। इस कविता संग्रह में 22 कवियों की कविताएँ हैं। उनकी कविताएँ आदिवासियों के दुःख, उनकी भावनाएं, उनकी इच्छा एवं आकांक्षाएँ, उनके विविध प्रश्न, समस्याएं, उनका इतिहास, उनकी भाषा आदि बातों का दर्शन कराती हैं। सामंतवादी व्यवस्था पर अपनी कलम का  तेज प्रहार करने वाले कवि वाहरु सोनवणे हैं।  वे पिछले 32 साल से आदिवासियों के जनांदोलनों से जुड़े हैं। उन्होंने सन् 1972 में ‘श्रमिक संगठन’ की स्थापना की। इस  संगठन के माध्यम से वे मजदूर वर्ग और आदिवासियों के हक़ और अधिकार के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। ‘आदिवासी साहित्य आंदोलन’ और ‘आदिवासी एकता परिषद’ के माध्यम से वे कई राज्यों में साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे हैं। ‘गोधड’ इनका  पहला कविता संग्रह है। उनकी कविताओं में भी आदिवासियों का फटा हुआ या बिखरा हुआ जीवन दिखाई देता है। वे ‘स्टेज’ जैसी कविताओं के माध्यम से कहते हैं कि हमारी समस्या को हमें ही कहने दें। आदिवासियों में नेतृत्व का गुण विकसित होने दें। नेतृत्व का गुण सीखने में गलतियाँ होगीं। गलती करने पर ही तो हम सीखेंगे। अपने जीवन के मूल प्रश्नों को हम ही कहेंगे। दूसरी ओर भुजंग मेश्राम के ‘अभुज माड़’ कविता संग्रह में ‘अभुज माड़िया’ आदिवासी समाज का वर्णन करते हैं। अबूझ माड़ क्षेत्र छत्तीसगढ़ के बस्तर का बहुत ही पिछड़ा क्षेत्र है। नारायणपुर जिले से कुछ ही दूरी पर स्थित है। यहाँ पर अभुज माड़िया आदिवासी समूह निवास करते हैं। इस जनजाति की संस्कृति, अस्मिता और भाषा को कवि भुजंग मेश्राम ने स्पष्ट किया है। बाबाराव मडावी के ‘पाखरं’(हिंदी में ‘पंछी’) कविता संग्रह में आदिम समाज की अवस्था तथा उनकी क्रांति की दिशाएं दिखाई देती हैं। समाज में जी रहे लोगों के जीवन में अँधेरा ख़त्म करके नई रोशनी, नया उजाला लाने की बात इस कविता संग्रह की कविताएँ करती हैं।  मारोती उईके का ‘गोंडवनातला आक्रंद’ कविता संकलन है। इसमें कवि ने गोंडवाना क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा अन्याय आक्रोश दिखाया गया है। विनोद कुमरे ने ‘आगाजा’ नामक कविता संग्रह में अन्याय और अत्याचार के खिलाफ क्या-क्या चुनौतियाँ हैं, यह बताया है।  ‘आगाजा’ गोंडी भाषा का शब्द है, जिसका हिंदी अर्थ चुनौती है।  कवि की घोषणा ही शोषण के खिलाफ एक बड़ी चुनौती है। प्रा. माधव सरकुंडे ने ‘मी तोडले तुरुंगाचे दार’ और ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ कविता संग्रहों में आदिवासी समाज का जो समाज शोषण कर रहा है, उनके खिलाफ कवि अपनी कलम को तीर बनाकर आदिवासी समाज को जागृत करते हैं। वे कहते हैं कि मैंने अब कारागृह का द्वार तोड़ दिया है, मैं अब आजाद हो गया हूँ। ‘चेहरा हरवलेली माणसं’ कविता संग्रह में से ‘आदिम मित्रांनो’, ‘दगा’, ‘भेदभाव’, ‘बेड्या’, ‘बिरसा’, ‘पुस्तके’, ‘मेलेल्या मनाचा समाज’, ‘भूमिका’, ‘चीड’, ‘तिलका मांझी’, ‘जगण्याच सूत्र, युद्ध अटळ आहेजैसी कविताएँ मेरी आजादी का सबूत पेश करती हैं। डॉ. संजय लोहकरे ने ‘आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश’ कविता संग्रह में यह बताने की कोशिश की है कि आज के लोकतांत्रिक देश में भूख से बेजान आदिवासी समाज की  किस तरह नीलामी चल रही है। एक तरफ उनके जल, जंगल और जमीन को लूटा जा रहा है और दूसरी तरफ भरे बाजार में उनकी नीलामी चल रही है।

          सन् 1990 के बाद समाज में जो परिवर्तन हुआ है, इसका मुख्य कारण भूमंडलीकरण,  निजीकरण, उदारीकरण माना जाता है। इन्हीं परिस्थितियों में भी आदिवासी कवि कविता लिखता गया। उनकी लेखनी से आदिवासी समाज के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने खड़ा रहता है। प्रस्तुत शोध विषय ‘हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन–संघर्ष’ (2000-2015) है। झारखण्ड के आदिवासी कवियों ने जो भी हिंदी कविताएँ लिखीं, उनकी संख्या अधिक तो नहीं है किंतु जो कुछ भी कविताएँ लिखी हैं, उसमें जो उन्होंने दुःख, झेला वह स्वानुभूति है। आज गैर आदिवासी कवि भी आदिवासी साहित्य लिख रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी आदिवासी जीवन नहीं झेला है। इस विषय पर खरा वही उतर सकता है, जिसने स्वयं आदिवासी जीवन जिया हो। यही कारण है कि प्रस्तुत शोध विषय में केवल आदिवासियों द्वारा लिखी हुई कविताओं को ही लिया गया है। इस अध्ययन में सन् 2000 के बाद जिन-जिन कवियों ने कविताएँ लिखी उन्हीं की कविताओं के माध्यम से आदिवासियों की जीवन पद्धति, उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक परिस्थितियां, उनकी संस्कृति एवं अस्मिता की पहचान, उन पर हो रहा अन्याय-अत्याचार, उनके जल, जंगल, और जमीन के प्रश्न, उनका किया जा रहा विस्थापन, उनके क्रांतिकारी नायकों का इतिहास आदि सभी  मुद्दों का आदिवासी कविताओं के माध्यम से अध्ययन किया जाएगा।

 शोध समस्या:

हिंदी एवं मराठी आदिवासी कविताओं में आदिवासियों का जीवन-संघर्ष इस प्रकार से चित्रित है-

-आदिवासी संस्कृति एवं अस्मिता को नष्ट किया जा रहा है।

-आदिवासियों की प्राकृतिक सम्पदा जल, जंगल और जमीन पर बाहरी आक्रमण करके  उन्हें बेदखल किया जा रहा है।

-आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है।

-आदिवासियों को नक्सली घोषित करके उन्हें सताया जा रहा है।

-आदिवासी समाज रोटी, कपड़ा, मकान और शिक्षा आदि सभी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

-आदिवासी क्रांतियाँ का इतिहास सही तरीके से नहीं लिखा गया है।

-आदिवासी महिलाओं का दिकुओं द्वारा शोषण जारी है।

-आदिवासी समुदाय द्वारा इन सब विसंगतियों का प्रतिरोध किया जाता रहा है।

शोध परिकल्पना:

प्रस्तुत शोध विषय में हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं के माध्यम से आदिवासी संस्कृति एवं अस्मिता, उनकी प्राकृतिक सम्पदा, उनके अधिकार, उनके इतिहास की पहचान, उन पर हो रहे अन्याय-अत्याचार आदि सभी बातों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। और तुलनात्मक अध्ययन विश्लेषण प्रस्तुत किया जाएगा।  

शोध का महत्त्व:

हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में चित्रित आदिवासी जीवन-संघर्ष का शोध अध्ययय निम्नलिखित दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होगा-

-आदिवासी समाज के जीवन-संघर्ष को समझने में सहायक।

-आदिवासी समाज की संस्कृति एवं अस्मिता क्यों नष्ट हो रही है, इसका आकलन सामने आएगा।

-आदिवासी विमर्श के कई बिंदुओं को समझने में आवश्यक हो सकता है।

-आदिवासी महिलाओं का शोषण क्यों और किस प्रकार से हो रहा है, प्रस्तुत शोध का निष्कर्ष इसे भी बताएगा।

-आदिवासियों की रोटी, कपड़ा, शिक्षा और मकान की क्या स्थिति है, यह समझने के लिए उपयुक्त होगा।

-आदिवासी समुदाय पर हो रहे अन्याय-अत्याचार के विरोध में आदिवासियों के प्रतिरोध का व्यक्तिगत अध्ययन सामने आएगा।

-आदिवासी साहित्य पर होने वाले भविष्य के शोधों के लिए मार्गदर्शक का काम करेगा।

साहित्य पुनरावलोकन:

          शोध के क्षेत्र में आदिवासी विमर्श पर वर्तमान समय में बहुत ही ज्यादा शोध कार्य हो रहे हैं, जिनमे उपन्यास, कहानी, नाटक और कविता विधा महत्वपूर्ण हैं। आदिवासी साहित्य में उपन्यास एवं कहानी विधा पर बात की जाए तो बहुत शोध कार्य हुए हैं, ऐसा दिखाई देता है। इसकी चर्चा इस प्रकार है-

-हिंदी उपन्यासों में जनजातीय जीवन (शोधार्थी-सुरेश जगन्नाथम, हैदराबाद विश्वविद्यालय)

-हिंदी आदिवासी साहित्य में स्त्री (शोधार्थी-प्रणव ठाकुर, हैदराबाद विश्वविद्यालय)

-आदिवासी समाज का बदलता यथार्थ और हिंदी कथा साहित्य (शोधार्थी- अर्चना शर्मा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली)

-स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य में आदिवासी जीवन (शोधार्थी- रमेश चन्द मीणा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली)

-राजस्थान के आदिवासी और हिंदी उपन्यास अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष (शोधार्थी- गंगासहाय मीणा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली)

-‘मौन घाटी’ और ‘जंगल के गीत’ में आदिवासी जीवन-संघर्ष (सत्र-2015-16, शोधार्थी- ईश्वर कान्ति मुर्मू- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) आदि प्रमुख हैं।

इसके साथ-साथ वर्तमान समय में भी शोध कार्य हो रहे हैं जैसे-

-झारखण्ड आधारित हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन-संघर्ष (शोधार्थी-सुनील केरकेट्टा, हैदराबाद  विश्वविद्यालय)

-झारखण्ड के आदिवासी हिन्दी कथा साहित्य में आदिवासी अस्मिता के प्रश्न (सत्र-2014-15, शोधार्थी -अनु सुमन बड़ा, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)

-आदिवासी विमर्श और हिंदी कहानी (सत्र-2015-16, शोधार्थी-पूजा रानी- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)

-आदिवासी रंगमंच का प्रस्तुतिपरक अध्ययन (विशेष संदर्भ: धरती आबा व फेविकॉल नाटक), (सत्र-2015-16, शोधार्थी- मनीष कुमार, नाट्यकला विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा)

-पत्रिका के क्षेत्र में ‘आदिवासी सत्ता’ पत्रिका पर बबिता कुमारी (सत्र-2015-16) ने वर्धा विश्वविद्यालय में ‘आदिवासी अस्मिता के प्रश्न और आदिवासी सत्ता पत्रिका ( 2013-2015 )’ विषय पर शोध कार्य किया है।

          इस प्रकार से उपन्यास और कहानी इस विधा में आदिवासी साहित्य पर शोध कार्य हुए हैं और वर्तमान में चल भी रहे हैं।  लेकिन कविता विधा पर बहुत ही कम मात्रा में शोध कार्य हुए हैं। बारेली लोकगीतों पर महात्मा गाँधी अंतररष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में सुरेश डूडवे (सत्र-2014-15)  ने ‘साहित्य की सामाजिक भूमिका: आदिवासी लोकगीतों के विशेष संदर्भ में’ विषय पर शोध कार्य किया है। साथ ही वर्तमान में राकेश गावित राजू (सत्र-2016-17) ‘मावची बोली के लोकगीतों का संग्रह एवं विश्लेषण’ विषय शोध कार्य कर रहे हैं। लोकगीत कविता का ही एक अंग होने के नाते लोकगीतों पर भी आदिवासी साहित्य में शोध हो चुके हैं। मुख्यतः तुलनात्मक साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो बहुत ही कम शोध हुए हैं। मेरे शोध अध्ययन का विषय ‘हिंदी और मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष –(2000-2015)’ है। इस विषय पर मेरी जानकारी से अब तक शोध कार्य नही हुआ है। इस लिहाज से यह विषय मौलिक एवं नवीन है।

शोध प्रविधि:

          प्रस्तुत शोध में मुख्य रूप से तुलनात्मक शोध प्रविधि का प्रयोग किया जायेगा। इसके साथ-साथ आदिवासियों के जीवन से जुडी हर समस्याओं एवं तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए विश्लेषणात्मक, विवेचनात्मक, समाजशास्त्रीय, मनौवैज्ञानिक तथा मानवशास्त्रीय आदि अध्ययन प्रविधियों का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाएगा।

संभावित अध्यायीकरण

भूमिका:

प्रथम अध्याय : आदिवासी : अर्थ एवं स्वरूप

1.1   ‘आदिवासी’ की अवधारणा

1.2    ऐतिहासिक संदर्भ

1.3   वर्तमान समय में आदिवासी

द्वितीय अध्याय : आदिवासी कविता का परिचय

2.1  हिंदी आदिवासी कविता

2.2  मराठी आदिवासी कविता

तृतीय अध्याय : हिंदी एवं मराठी आदिवासी कविताओं में जीवन-संघर्ष

          3.1 अस्मिता पर संकट

          3.2 बाहरी घुसपैठ

          3.3 जल, जमीन, जंगल का मुद्दा

          3.4 संस्कृति पर आक्रमण

          3.5 प्रतिरोध

          3.6 महिलाओं की स्थिति  

 चतुर्थ अध्याय : हिंदी एवं मराठी आदिवासी कविताओं का सौन्दर्य पक्ष

          4.1 काव्य भाषा

          4.2 बिम्ब- प्रतीक

          4.3 काव्य शैली  

उपसंहार :

संदर्भ ग्रंथ सूची

संदर्भ ग्रंथ सूची:

आधार ग्रंथ:

हिंदी कविता संग्रह:

1.     गव्हाड़े, डॉ. भगवान.(2015). आदिवासी मोर्चा. नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन

2.     गुप्ता, रमणिका.(सं).(2015). कलम को तीर होने दो ( झारखण्ड के आदिवासी हिंदी कवि ). नई   दिल्ली : वाणी प्रकाशन

3.     टेटे, वंदना.(2015). कोनजोगा. राँची : झारखण्ड, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन

4.     पुतुल, निर्मला.(2014). बेघर सपने. हरियाणा : आधार प्रकाशन पंचकूला

5.     बड़ाईक, सरिता.(2013). नन्हें सपनों का सुख. नई दिल्ली : रमणिका फाउंडेशन

6.     मांडी, आदित्य कुमार.(2015). पहाड़ पर हूल फूल. राँची : झारखण्ड, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन

7.     मिंज, ओली.(2015). सरई, डोरंडा. झारखंड : सारिका प्रेस एंड प्रोसेस

8.     मीणा, हरिराम.(2013). समकालीन आदिवासी कविता. जयपुर : अलख प्रकाशन

 मराठी कविता संग्रह:

1.     आत्राम, उषाकिरण.(2009). लेखणीच्या तलवारी. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन

2.     उईके, मारोती.(2010). गोंडवनातला आक्रंद. वर्धा : उलगुलान प्रकाशन

3.     कन्नाके, वसंत.(2002). सुक्का सुकूम. यवतमाळ : लोकायन प्रकाशन

4.      कुमरे, विनोद.(2014). आगाजा. मुंबई : लोकवाङ्मय गृह

5.     तुमराम, डॉ.विनायक.(सं).(2003). शतकातील आदिवासी कविता. चंद्रपूर  : हरिवंश प्रकाशन

6.     मडावी, बाबाराव.(2009). पाखरं. यवतमाळ : प्रियंका प्रकाशन

7.     मेश्राम, भुजंग.( 2008). अभुज माड़. मुंबई : लोकवाङ्मय गृह

8.      लोहकरे, डॉ. संजय.(2015). आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश. पुणे : दिलीपराज प्रकाशन

9.     सरकुंडे, माधव.(2011). मी तोडले तुरुंगाचे दार. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन

10. सरकुंडे, माधव.(2015). चेहरा हरवलेली माणसं. यवतमाळ : देवयानी प्रकाशन

11. सोनवणे, वाहरु.(2006). गोधड. पुणे : सुगावा प्रकाशन

सहायक  ग्रंथ:

सहायक  ग्रंथ (हिंदी)

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2.     उप्रेती, डॉ. हरिश्चंद्र.(2000). भारतीय जनजातियाँ संरचना एवं विकास. जयपुर : राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी

3.     कदम, डॉ. शैली चव्हाण.(2014). आदिवासी समाज एवं संस्कृति. कानपुर : रोशन पब्लिकेशन

4.     कमल, प्रो. के. एल.(2004). भारतीय संविधान की पुनर्रचना. जयपूर : राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी

5.     कुमरे, मंसाराम.(2014).गोंडवंश का इतिहास एवं संस्कृति. नागपुर : विश्वभारती प्रकाशन

6.     कुमार, डॉ.शशि व डॉ.रविरंजन.(2016). अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य. गाजियाबाद : के.एल. पचौरी प्रकाशन

7.     कुमार, विनोद.(2005). आदिवासी संघर्षगाथा. नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन

8.     कोसंबी, धर्मानंद.(2006). भारतीय संस्कृति और अहिंसा. नई दिल्ली : सम्यक प्रकाशन

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10. गुप्ता, रमणिका.(सं).(2004). आदिवासी शौर्य एवं विद्रोह (झारखण्ड). नई दिल्ली : साहित्य उपक्रम प्रकाशन

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12. गुप्ता, रमणिका.(सं).(2008). आदिवासी कौन. नयी दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन

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15. गुप्ता, रमणिका.(सं).(2012). आदिवासी लोक-1. नई दिल्ली : शिल्पायन प्रकाशन

16. गुप्ता, रमणिका.(सं).(2012). आदिवासी लोक-2. नई दिल्ली : शिल्पायन प्रकाशन

17. गुप्ता, रमणिका.(सं).(2012). आदिवासी शौर्य एवं विद्रोह. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन

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43. मांडे, प्रभाकर.(2003). आदिवासींचे धर्मांतर एक समस्या. औरंगाबाद : गोदावरी प्रकाशन

44. मांडे, प्रभाकर.(2003). भारतीय आदिवासींचे स्थान. औरंगाबाद : गोदावरी प्रकाशन

45. मुनघाटे, डॉ.प्रमोद.(2007). आदिवासी मराठी साहित्य स्वरूप आणि समस्या. नागपुर : प्रतिमा प्रकाशन

46. मेश्राम, गोकुळदास.(2006). आदिवासी सिंधुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म. पुणे : सुगावा प्रकाशन

47. मोरे, माधव बंडू.(2006). आदिवासी बोलू लागला. पुणे : सुगावा प्रकाशन

48. रोंगटे, डॉ. तुकाराम बी.(2007). आदिवासी कवितेचा उष : काल आणि सद्यस्थिती. पुणे : संस्कृती प्रकाशन

49. रोंगटे, डॉ. तुकाराम.(2011). आदिवासी आयकॉन्स. पुणे : संस्कृती प्रकाशन

50. रोंगटे, डॉ. तुकाराम.(2014). आदिवासी साहित्य : चिंतन आणि चिकित्सा. पुणे : दिलीप राज प्रकाशन

51. लोहकरे, डॉ.संजय.(2014). आदिवासी लोकसाहित्य शोध आणि बोध. अमरावती : मेधा पब्लिशिंग हाउस

52. वाल्हेकर, डॉ. ज्ञानेश्वर.(2009). आदिवासी साहित्य : एक अभ्यास. औरंगाबाद : स्वरूप प्रकाशन

53. शिलेदार, प्रफुल्ल.(भुजंग मेश्राम)(2004). आदिवासी साहित्य आणि अस्मिताबोध. मुंबई : लोकवाङ्मय गृह

54. शेलकर, अभया.(2003). आदिवासींच्या जमिनीबाबतचा कायदा. औरंगाबाद : नाशिक लॉ हाऊस

55. सबनीस, डॉ. श्रीपाल.(2007). आदिवासी, मुस्लीम, ख्रिश्चन साहित्यमीमांसा. पुणे : अनुबंध प्रकाशन

56. सरकुंडे, माधव.(2011). आदिवासी अस्मिता शोध. यवतमा : देवयानी प्रकाशन

57. साळीवकर, डॉ. संजय.(2014). भारतीय आदिवासी जीवन आणि संस्कृती. नागपुर : श्री मंगेश प्रकाशन

पत्र-पत्रिकाएँ :

1.     गुप्ता, रमणिका. युद्धरत आम आदमी (मासिक)

2.     टेटे, वंदना. झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा (त्रैमासिक )

3.     ठाकुर, रमेश. गोंडवाना स्वदेश (मासिक)

4.     ताराम, सुन्हेर सिंह. गोंडवाना दर्शन (मासिक)

5.     तिर्की, मुक्ति. दलित आदिवासी दुनिया (साप्ताहिक)

6.     लोहकरे, डॉ संजय. फडकी (मासिक)     

7.     वर्मा, बी. पी. ‘पथिक’ अरावली उदघोष - (त्रैमासिक)

8.     शाह, के. आर. आदिवासी सत्ता (मासिक)

शब्दकोश:

1.     जोशी, श्रीपाद.(प्रथम संस्करण-1957). अभिनव शब्दकोश : हिंदी-मराठी-हिंदी व मराठी हिंदी. पुणे : शुभदा सारस्वत प्रकाशन

2.     बाहरी, डॉ. हरदेव.(संस्करण-2016). राजपाल हिंदी शब्दकोश. दिल्ली : राजपाल एंड सन्ज


5 टिप्‍पणियां:

Aruna Girhe ने कहा…

बहुत अच्छा सिनॉप्सिस है

More A. B ने कहा…

बहुत बढ़िया है।

Bansing Bhoi ने कहा…

बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर दुर्लभ कार्य ,अभिनंदन सर

Dr.B.K.WANOLE ने कहा…

👌👌👍👍👍🌹🌹🌹🙏

Sukanya D. Girhe ने कहा…

Good work sir ji