गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

आदिवासी चरित्र धनुर्धर एकलव्य की संपूर्ण जीवन कथा AADIWASI CHARITRA EKLAYV KI SAMPURN JIVAN KATHA

 


आदिवासी चरित्र धनुर्धर एकलव्य की संपूर्ण जीवन कथा

-Dr.Dilip Girhe

महाभारत इस पौराणिक ग्रंथ में एकलव्य का संदर्भ मिलता हैं। इस कथा में तीन पात्र प्रमुख माने जाते हैं- एकलव्य, द्रोणाचार्य और अर्जुन। कौरवों और पांडवों के बिच हुआ युद्ध एकलव्य के लिए इतिहास साबित होता है। क्योंकि ये युद्ध आर्यन परिवारों में हुआ था लेकिन इस युद्ध में शिकार हुआ एकलव्य। एकलव्य निषादराज हिरण्यधनू के पुत्र थे। वे भील आदिवासी समुदाय के थे। उस काल में निषादराज धनुर्विद्या में बहुत ही निपुण थे और एकलव्य भी। डॉ. आ. ह. साळुंके कहते हैं कि-“एकलव्य हे एखाद्या आदिवासी शब्दाचे संस्कृत रुपांतर असण्याची शक्यता आहे. त्या स्थितीत त्यांचे दोन अर्थ होऊ शकतात. ‘लव्य’ म्हणजे ‘तोडला जाणारा’. हे तोडणे या अर्थाच्या ‘लू’ धातूचे कर्मणी विध्यर्थ धातुसाधित विशेषण आहे. जी वस्तू बाण वगैरे ने तोडायची ती एकाच घावात तोडणारा किंवा एकट्यानेच तोडणारा, असे या शब्दाचे दोन अर्थ होऊ शकतात.”[1](एकलव्य ये एखाद आदिवासी शब्द का संस्कृत रूपांतरण रहने की संभवनाएं है। उसी स्थिति में इसके दो अर्थ हो सकते हैं ‘लव्य’ यानि ‘तोड़ने जाने वाला’ यहाँ तोड़ने इस अर्थ को ‘लू’ धातु का कर्मणि विद्यर्थ धातुसाधित विशलेषण है। जो चीज धनुष्य जैसी वस्तुओं ने एक ही घाव से तोड़ने वाला या अकेला तोड़ने वाला ऐसे इस शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं।)

महाभारत कथा में कौरवों और पांडवों को गुरु द्रोणाचार्य ये युद्धशास्त्र की विद्या शिकाते थे। एक दिन अर्जुन की अध्ययन निष्ठा को देखकर द्रोणाचार्य बहुत खुश हुए और कहने लगे कि-“या जगात दूसरा कोणी धनुर्धर तुझ्या बरोबरीला होणार नाही असा प्रयत्न मी करेल. मी तुला हे सत्य सांगत आहे.”[2](इस विश्व में तुम्हारें जैसा दूसरा कोई धनुर्धर नहीं होगा इसके लिए मैं प्रयत्नशील रहूँगा. मैं ये सत्य बता रहा हूँ।) उसके बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन को रथ, हाथी और घोड़े पर स्वार होकर गदा, ढाल, तलवार, तोनर जैसी प्रसशक्ति शिखाई। ये देखकर कई धनुर्धर धनुर्विद्या शिखने के लिए प्रेरित हुए। इसके बाद निषादराज पुत्र एकलव्य भी द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या शिखने जाता है परंतु गरु द्रोणाचार्य उसे धनुर्विद्या शिखाने से इंकार करते हैं क्योंकि एकलव्य यह निचले जाति का एक आदिवासी था। हिंदू पुराण ग्रंथ यह  कहते हैं कि निचले जाति को धनुर्विद्या शिखने का अधिकार नहीं हैं। इसके बावजूद एकलव्य निराश नहीं हुआ बल्कि वे वहां से निकलकर एक घने अरण्य में आकर द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या शिखने लगे। इतना होकर भी एकलव्य द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानता था। एकलव्य वहाँ से जाते समय कहता हैं कि-“गुरुदेव आपण माझे गुरु आहात. प्रत्यक्ष विद्या मिळो अथवा न मिळो परंतु मी आपल्याला गुरुचे स्थान दिले आहे. मला आपला आशीर्वाद द्यावा.”[3](गुरुदेव आप मेरे गुरु है। प्रत्यक्ष विद्या मिले या न मिले परंतु मैंने आपको गुरु का स्थान दिया है। मुझे आशीर्वचन दीजिए।) एक दिन ऐसे ही धनुर्विद्या शिखते समय एक कुत्रा बिच-बिच में आकार उनकी विद्याभंग कर रहा था। तभी एकलव्य को उस कुते पर घुसा आया और उस कुते का भौकना बंद करने के लिए सात तीर एक साथ उसके मुहँ में छोड़े, परंतु कुते को कोई भी हिंसा न होने दी। केवल उसका भौकना बंद कर दिया। वह कुता द्रोणाचार्य का था। जब वह कुता द्रोणाचार्य के पास आता है तब कौरव-पांडव और द्रोणाचार्य आश्चर्य चकित हो जाते हैं। क्योंकि उस कुते को कोई भी चोट न पहुचाते हुए केवल उसका भौकना बंद करना ये कितनी बड़ी आश्चर्य की बात है। तभी द्रोणाचार्य और अर्जुन इस आश्चर्य की खोज के लिए अरण्य में निकलते हैं। उस समय अर्जुन बहुत ही अस्वस्थ महसूस करता है क्योंकि उनके मन ये प्रश्न उठता हैं कि कौरवों और पांडवों से भी कोई धनुर्धर हो सकता हैं? आगे जाते ही उन्हें एक जगह पर एकलव्य विधीर्जन करते समय दिख जाते हैं। उसी समय एकलव्य ने द्रोणाचार्य को देखा तो वे तुरंत दौड़कर आशीर्वचन लेते हैं। लेकिन उस समय उन्हें द्रोणाचार्य नहीं पहचन पाते हैं। तब वे कहते हैं कि तुम कौन हो? तब एकलव्य जवाब देते हैं कि-“मी निषादराज हिरण्यधनुचा पुत्र असून द्रोणाचार्याचा शिष्य आहे.”[4](मैं निषादराज हिरण्यधनू का पुत्र हूँ और द्रोणाचार्य का शिष्य हूँ।) सभी कौरव एवं पांडव देख रहें थे। तब अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहते हैं कि ये दूसरा एकलव्य शिष्य कैसे हो गया? तब द्रोणाचार्य कुछ समय रुककर एकलव्य की ओर जाते हैं तब एकलव्य बड़ा ही खुश होकर गुरु द्रोणाचार्य से कहते हैं कि मैं शिष्य होने के नाते आपको क्या दे सकता हूँ। मेरे गुरु को ऐसी कोई चीज नहीं है कि मैं ना दे सकूँ। द्रोणाचार्य मन ही मन सोचते हैं कि एकलव्य तो कौरवों और पांडवों से भी धनुर्विद्या में आगे निकला है। एकलव्य धनुर्विद्या में तीर-धनुष न चला पाए इसलिए गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य को अंगूठा मांगने का सोचा और एकलव्य से कहें कि तुम मुझे बाये हाथ का अंगूठा काटकर दे दो तब एकलव्य ने निस्वार्थ भाव से उसी समय बाये हाथ का अंगूठा काटकर उनके पैरों पर रख दिया।

इतना सब होने के बाद भी एकलव्य धनुर्विद्या में तब भी आगे ही थे लेकिन पहले से कम तीर-धनुष चला पाते थे। जब कौरवों और पांडवों का युद्ध हुआ तब एकलव्य पांडवों की ओर से युद्ध में खड़े होकर कौरवों के विरोध में अपनी धनुर्विद्या चलाने लगे। और वे जरासंध की सेना पर (मथुरा) आक्रमण करते रहकर उनकी सेना को तहस-नहस कर देते हैं। ये देखकर यादवों के सेना प्रमुख श्रीकृष्ण चिंता में पड़ जाते हैं। और यदुवंशीय को बचाने के बहाने एकलव्य का चक्र से सर काटकर वध कर देते हैं। एकलव्य के बाद उनका ही पुत्र केतुभान भी महाभारत युद्ध में भीम के हाथों वीरगति मरन प्राप्त करते हैं।

आदिवासियों की वेदना, दुःख एवं तिरस्कारों पर पुरानों में बहुत से संदर्भ मिलते हैं। भील जनजाति के एकलव्य के कारण ही आज आदिवासियों के पास तीर-धनुष चलाने की विद्या अवगत हैं। आज भी हमें द्रोणाचार्य-एकलव्य जैसे गुरु-शिष्य मिलते है। जो अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। जिस तरह से महाभारत में द्रोणाचार्य, कौरव और पांडव ये शासक जमात के प्रतिनिधि थे और धनुर्धारी एकलव्य यह शोषित जमात का प्रतिनिधि था। उसी तरह एकलव्य इस कथा का सांस्कृतिक संघर्ष देखने के बाद भी वर्तमान में अभिजनवादी व्यवस्था आदिवासियों का शोषण कर रही  हैं।


[1] साळुंके, आ. ह.(2010). एकलव्य, शम्बूक आणि झलकारीबाई. सातारा : लोकायन प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 7

[2] निकम, प्रा. गौतम.(2011). एकलव्य आणि भिल्ल आदिवासी. चालीसगांव : विमलकीर्ती प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 18

[3] देशपांडे, स्वाती.(2009). शंबुक, एकलव्य यांच्या दुःखाना ब्राह्मण जबाबदार आहेत काय?. पुणे : पुष्पक प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 32  

[4] देशपांडे, स्वाती.(2009). शंबुक, एकलव्य यांच्या दुःखाना ब्राह्मण जबाबदार आहेत काय?. पुणे : पुष्पक प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 32   

1 टिप्पणी:

Himachal ने कहा…

काफ़ी जानकारी बढ़ती हैं सर आपके ब्लॉग को पड़कर... प्