आदिवासी हिंदी कविता का संक्षिप्त परिचय
-Dr. Dilip Girhe
समकालीन साहित्य में आदिवासी साहित्य बहुत ही
महत्वपूर्ण है। इस साहित्य में कविता विधा का एक अलग-सा स्थान है। आदिवासी साहित्य
में कविता विधा पर सबसे अधिक लेखन होने के कारण यह विधा आदिवासी साहित्य की सबसे
लोकप्रिय विधा मानी जाती है। सन् 1990 के बाद हिंदी आदिवासी साहित्य सबसे ज्यादा
उभरकर सामने आया है। यह दौर भूमंडलीकरण और उदारीकरण का है। इसी दौर में
पूंजीपतियों, जमींदारों, साहूकारों ने ‘विकास की नीति’
के नाम पर आदिवासियों को
विस्थापित करना शुरू कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि आदिवासियों के सामने कई
चुनौतियाँ खड़ी हो गईं, जिसका परिणाम वे आज भी भोग रहे हैं। जब
आदिवासियों के सामने कई समस्याएँ और चुनौतियाँ खड़ी हुईं तो अपनी समस्याओं को
अभिव्यक्त करने के लिए ‘कविता में अभिव्यक्ति’ का मार्ग अपनाकर वे अपनी दुःख-पीड़ा, समस्याएँ, उनके विविध प्रश्न, उनकी संवेदनाओं और भावनाओं
को अभिव्यक्त करने लगे। इसके कारण ही ‘आदिवासी कविता’ का जन्म हुआ है। प्रस्तुत शोध विषय में 21 वीं सदी की हिंदी-मराठी
कविताओं को (2000 से 2015 तक) अध्ययन के दायरे में रखा गया है। आदिवासी कविताओं
में सहजता का होना ही उनकी कविताओं का एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता है। मराठी के
आदिवासी लेखक डॉ. विनायक तुमराम भुजंग मेश्राम की कविताओं के बारे में लिखते हैं
कि “भुजंग मेश्राम की कविताएँ आदिवासियों के वर्तमान
जीवन व्यथा-वेदना को व्यक्त करने वाली हैं। परिवर्तन इन कविताओं का स्वप्न है, इसीलिए आदिवासियों के सांस्कृतिक और सामाजिक दोषों के प्रति वह
क्षमाशील नहीं हैं। परंपरा और अंधविश्वास में बहाने वाली आदिम मानसिकता को नए
वातावरण की तरफ़ ले जाने वाली कविता है। आदिवासियों के स्वप्न को अंदर तक हिलाकर
छोड़ देने वाली और उन्हें क्रांतिकारी बनाने वाली एक सामाजिक आशय की कविता के रूप
में ही उसे देखना चाहिए।”[1]
हिंदी आदिवासी कविता की विकास यात्रा की
शुरुआत तीस के दशक से मानी जाती है। आदिवासी साहित्य में कविता विधा पर प्रथम कलम
चलाने वाली कवयित्री सुशीला सामद थी। सन् 1935 में प्रकाशित उनका प्रथम हिंदी आदिवासी कविता
संग्रह ‘प्रलाप’ है। वे ‘चाँदनी’ पत्रिका का संपादन करती
थीं,
इसीलिए
उनको हिंदी की प्रथम आदिवासी महिला संपादक भी कहा जाता है। जब समकालीन कविता का
दौर शुरू हुआ,
तब
इस दौर में आदिवासी जीवन पर आदिवासी और गैर आदिवासी कवियों द्वारा कविताएँ लिखना
शुरू हुआ। सन् 1990
के
दौर में सर्वप्रथम आदिवासी जीवन पर बलदेव मुंडा और रामदयाल मुंडा ने कविता लिखना
शुरू किया था। बलदेव मुंडा का काव्य संग्रह ‘सपनों की दुनिया’ 1986 में प्रकाशित हुआ था। रामदयाल
मुंडा का काव्य संग्रह ‘वापसी, पुनर्मिलन तथा अन्य गीत’ प्रकाशित हुआ था। डॉ.
रामदयाल मुंडा के बारे में कहा जाता है कि “वे अपनी चार-पांच पंक्तियों की छोटी-छोटी
कविताओं के माध्यम से आदिवासी मन की ऐसी बातें कह जाते हैं, जिसके लिए अन्य रचनाकार को
शायद दर्जनों पृष्ठ रंगने पड़े।”[2]
सन् 2000 से 2015 के बीच प्रकाशित हिंदी आदिवासी कविता पर लेखन
करने वाले कवियों एवं लेखकों में डॉ. रामदयाल मुंडा, महादेव टोप्पो, निर्मला पुतुल,
हरिराम मीणा, वंदना टेटे, डॉ. भगवान गव्हाड़े, ग्रेस कुजूर,
सरिता सिंह बड़ाईक, ओली मिंज, अनुज लुगुन, जसिंता केरकेट्टा, ग्लेड्सन डुंगडुंग, शिशिर टुडू, शिवलाल किस्कू,
आदित्य कुमार मांडी आदि
प्रमुख माने जाते हैं। इनके हिंदी काव्य संग्रहों में सरिता सिंह बड़ाईक का ‘नन्हें सपनों का सुख (2013)’, निर्मला
पुतुल का ‘बेघर सपने (2014)’, वंदना
टेटे का ‘कोनजोगा (2015)’, रमणिका
गुप्ता द्वारा संपादित ‘कलम को तीर होने दो (2015)’, डॉ. भगवान गव्हाड़े का ‘आदिवासी मोर्चा (2015)’, आदित्य कुमार मांडी के ‘पहाड़ पर हूल फूल (2015)’ व ‘जंगल महल की पुकार (2015)’, हरिराम मीणा द्वारा संपादित ‘समकालीन आदिवासी कविता
(2015)’, ओली मिंज का ‘सरई (2011) आदि कविता
संकलन महत्वपूर्ण हैं।
इस प्रकार से आदिवासी कविता आदिवासी के विविध
पक्षों का अध्ययन करती है। जिसके जरिये हम आदिवासी कविता की मूल संवदेनशीलता को
सूक्ष्म परिक्षण से जान सकते हैं।
[1] गुप्ता, रमणिका. (सं.). (2008).
आदिवासी साहित्य यात्रा. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 54-55
[2] मीणा, गंगा सहाय. (2017).
आदिवासी चिंतन की भूमिका. दिल्ली : अनन्य प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 51
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