गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

आदिवासी कौन? जानिए विविध मत प्रवाह- Aadiwasi Koun? Janiye Vividh Matpravah


 आदिवासी कौन? जानिए विविध मत प्रवाह.....

-Dr.Dilip Girhe

आज पूरे भारत में आदिवासियों की नस्ल और उनके धर्म को लेकर कई मतभेद मिलते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि आदिवासियों का कोई धर्म नहीं होता। कुछ कहते हैं कि आदिवासियों का प्रकृति धर्म है। तो कुछ लोग आदिवासी धर्म को 'गोंडी धर्म' कहते हैं। कुछ आदिवासी कहते हैं कि हमारा ‘कोयाधर्म’ है तो कुछ आदिवासी कहते हैं कि ‘बिरसाई’ धर्म है। कई लोग कहते हैं कि आदिवासियों में हिंदू धर्म का प्रचलन है। तो हम ऐसी विविध मतप्रवाहों पर इस लेख के माध्यम से चर्चा करने वाले हैं। 

16 मार्च 2001 के दैनिक लोकमत अखबार में "आदिवासी अस्मिता जागरसम्मेलन" विषय पर एक समाचार था। इसमें डॉ. विनायक तुमराम ने अपने स्वागत भाषण में आदिवासी भाइयों को संबोधित करते हुए कहा कि "आदिवासी मूल रूप से किसी धर्म के नहीं हैं। आदिवासियों का अपना अति प्राचीन पारंपरिक ‘प्राकृतिक मूल धर्म’ है। यह धर्म इस भूमि का है और इसके अधिक आधार भी मौजूद है। आदिवासियों द्वारा प्राकुतिक धर्म को पुनर्जीवित और आरंभ किया जाना चाहिए।" धर्म का एक लिखित दर्शन होना चाहिए। वह प्रकृतिवादी होनी चाहिए। उस धर्म को भारतीय संविधान में दर्ज किया जाना चाहिए और तभी आदिवासी आत्म-सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।

डॉ.विनायक तुमराम के इस भाषण में विसंगति है। क्योंकि पहले तो वे कहते हैं, "आदिवासी मूलतः किसी धर्म के नहीं होते।" तुरंत वे कहते हैं, "आदिवासियों का अपना अत्यंत प्राचीन पारंपरिक ‘प्रकृतिवादी’ मूल धर्म है। यह धर्म इस भूमि का है और सभी का आधार है। इसलिए आदिवासी धर्म को पुनर्जीवित करके और दीक्षा समारोह का आयोजन करके सामुदायिक दीक्षा आयोजित की जानी चाहिए।"

इस कथन गोकुलदास मेश्राम लिखते हैं कि डॉ. तुमराम के मन में आदिवासी प्राचीन प्रकृतिवादी और वैज्ञानिक पारंपरिक मूल बौद्ध धर्म ही रहा होगा। क्योंकि आदिवासियों का प्रकृतिवादी मूल धर्म बौद्ध धर्म ही था। आदिवासी मूलतः बौद्ध हैं, यह बात कई पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों से सिद्ध होती है।

उनके इस कथन से आदिवासियों ने कौन सा धर्म अपनाना है, कौन सा धर्म आरंभ करना है या कौन सा धर्म स्थापित करना है, क्या वे अपना धर्म चुनने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसे प्रश्नों पर गोकुलदास मेश्राम ने ‘आदिवासी सिन्धुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म’ शोध पुस्तक के माध्यम से केवल इस तथ्य को सिद्ध करना चाहा है। 'महास्मा संस्कृति की नागवंशीय जनजातियां पहले बौद्ध थीं, अर्थात् बुद्ध, मौर्य-अशोक, सातवाहन काल के दौरान, नागवंशीय आदिवासी बौद्ध अनुयायियों ने ही भारत और उसके बाहर बौद्ध धर्म का प्रसार और प्रचार किया था। इसके अनेक सन्दर्भ उन्होंने अपने पुस्तक में दिए हैं।

डॉ. अम्बेडकर ने कहा है कि महार ‘नाग’ जाति के लोग हैं, मानवशास्त्र के आधार पर दो जातियाँ ‘महार’ और ‘मराठा’ सगे भाई हैं और वे एक ही जाति के हैं। यह महारों और मराठों के बारे में उनका शोध है। लेकिन वे शोध, पुरातत्व और ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह साबित नहीं कर पाए हैं कि 'महार' बिल्कुल भी आदिवासी नहीं हैं। अम्बेडकर का शोध वैदिक काल के वैदिक साहित्य के आधार पर ही प्रमाणित हुआ। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खोज में आदिवासी सभ्यता से जुडी हुई है। इसी प्रकार भारत में बौद्ध संस्कृति के उत्खनन से प्राप्त अवशेष अम्बेडकरोत्तर काल में प्राप्त हुए हैं। इसलिए मानव जाति की संस्कृति के बारे में अम्बेडकर के निष्कर्ष काफी हद तक अधूरे हैं। वैदिक साहित्य के साक्ष्यों के आधार पर उन्होंने कहा कि “आर्य भारत के बाहर से नहीं आए, वे भारत के मूलनिवासी हैं।” लेकिन आगे डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं बनारस विश्वविद्यालय में अपने भाषण में कहा था कि आर्य भारत के बाहर के हैं, वे भारत के मूलनिवासी नहीं हैं।

आदिवासी कौन हैं? उनका धर्म क्या था? 'आदिवासी' शब्द कब गढ़ा गया? भारत के मूल निवासी कौन हैं? क्या इसमें अन्य पिछड़ा वर्ग, अति शूद्र-महार, मांग, चाम्भार, भंगी शामिल नहीं हैं? ‘आदिवासी’ आदिवासी ही हैं और अतिशूद्र यानी महार, मांग, चाम्भार, भंगी, भटके भी आदिवासी हैं, तो 'अतिशूद्रों' को 'आदिवासी' नहीं माना जा सकता? महार-मराठा भाई-भाई हैं, लेकिन आदिवासी-महार भाई-भाई नहीं हैं? महार-आदिवासी भाई-भाई हैं, तो मराठा-महार-आदिवासी-घुमंतू भाई-भाई नहीं हैं? हमने यहां इन सभी प्रश्नों को क्रम से हल करने का प्रयास किया है।

यह पहले ही स्थापित हो चुका है कि ‘महार’ नाग हैं। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर, एच. एल कोसारे आदि शोधकर्ताओं एवं विद्वानों ने इसे सिद्ध किया है। यहां तक कि आदिवासी बौद्ध हैं। महार नाग हैं। तो फिर यह नहीं कहा जा सकता कि महार और आदिवासी एक ही जाति से विरासत में मिले हैं? तब यह सिद्ध हो गया कि महार भी पिछड़ी जनजातियाँ अर्थात् सिन्धु संस्कृति की उत्तराधिकारी अर्थात् भारत की मूलनिवासी हैं। इसके कई पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं।

सिंधु संस्कृति की पुरातात्विक खुदाई से भारत में संस्कृति के विकास का पता लगाना आसान हो गया है। सिंधु संस्कृति नामों की संस्कृति थी, उन्हें ‘एविड्स’ कहा जाता है और वे नाग परिवार से संबंधित थे। पुरातात्विक अनुसंधानों से यह ज्ञात होता है कि भारत में नवपाषाणिक, ताम्रपाषाणिक तथा लौह युगीन-महाशम (मेगालिथिक) संस्कृति का विकास हुआ। जो सांस्कृतिक विकास हुआ वह उस काल के एविडियन संस्कृति के लोगों अर्थात नागाओं द्वारा किया गया है।

'महार-आदिवासी' अनार्य नाग संस्कृति है जिसने ऐतिहासिक युग को जन्म दिया। बुद्ध के समय में महार और नागा दोनों जनजातियाँ बौद्ध थीं। महार और आदिवासी शब्द बाद के शब्द हैं। इन सम्बोधनों को लागू करने का कार्य आर्यों का है। कई विद्वान, इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता यह सिद्ध कर चुके हैं कि भारत के मूलनिवासी ‘नाग’ ही हैं। लेकिन कोई भी प्रमाण सहित यह साबित नहीं कर पाया कि बुद्ध, मौर्य-अशोक, सातवाहन के काल में भारतीय जनजातियाँ बौद्ध थीं। गोकुलदास मेश्राम ने इसे कभी भी एक अलग पुस्तक या पुस्तक के रूप में लिखा हुआ नहीं देखा है, एक थीसिस लिखी है कि ‘महासमा संस्कृति’ की नागवंशीय जनजातियाँ पहले बौद्ध थीं।

इस मामले में - (1) नागा जनजाति के आदिवासी लोग कब और कैसे बौद्ध बने? (2) क्या नागा नदी के तट पर स्थित नागपुर शहर के आसपास बौद्ध धम्म के अनुयायी नागा, जिन्हें बुद्ध ने प्रवेश से वंचित कर दिया था, एक ही हैं या अलग? (3) बुद्ध के विनयपिटक से यह पता चलता है कि आदिवासियों को संघ में प्रवेश नहीं दिया गया था, जिसने भिक्षु-नन संघ की मदद से सामाजिक क्रांति लायी थी, जिससे छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गुलामी की जाति व्यवस्था का अंत हुआ था।  

इस प्रकार से आदिवासी कौन? इस पर वर्तमान में अनेक आलोचना के पुस्तकें उपलब्ध हैं। इनके माध्यम से आदिवासी कौन? इस प्रश्न का वास्तविक जवाब मिल सकता है। इन सभी सवालों के जवाब निश्चित ही वर्तमान में चल रहे आदिवासी विमर्श के शोध माध्यम से खोजे जा सकते हैं।


संदर्भ:

गोकुलदास मेश्राम-आदिवासी सिन्धुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म.


1 टिप्पणी:

Sukanya D. Girhe ने कहा…

Bahut achhi jankari di sir ji👌🏻👍🏻