सोमवार, 1 अप्रैल 2024

भारत की आदिम जनजातियाँ || BHARAT KI AADIM JANJATIYAN



 भारत की आदिम जनजातियाँ

                                              -Dr.Dilip Girhe

भारत में मुख्य रूप से कुछ आदिम जनजातियों की संख्या भी पाई गई हैं। जिसमें झारखंड में असुर, बिरजिया, बिरहोड़, कोरवा, परहैया, माल महाड़ीया, सैरिया पहाड़िया और शबर आदि हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अबुज माड़िया, बैगा, भैर, पहाड़ी कोरवा, सहारिया और कामर आदि हैं। आंध्र प्रदेश में बोड़ो गडाबा, बोड़ो पोरोजा, गूरोब गड़ावा, खोंड परोजा, थोटी, डोंगरिया खोंड, कोंडा सवारस, कुटिया खोंड, चेंचू, कोलाम एवं कोंडा रेड्डी हैं। गुजरात में कथोडी, सिद्दीस, कोलघा, कोट्वालिया और पाधर हैं। महाराष्ट्र में माड़िया गोंड, ककटीया और कोलाम आदि हैं। उड़ीसा में बिरहोर, दिदियी, मनकिदिया, लोधा, बोंडा, डोंगरिया कोंध, कुटिया कोंध, लांजिया सौरास, पौदी मुआन, सौरा, खड़िया, जुआंग आदि हैं। राजस्थान, त्रिपुरा और  मणिपुर में क्रमशः सहरिया, रियंग और मरम नागा हैं। पश्चिम बंगाल में बिरहोर, टोटा, लोधा हैं। उत्तर प्रदेश में राजी और बुक्स तो कर्नाटक में जेनू करुबा और कोरागा जनजातियाँ हैं। केरल में किलानाईकन, कादर, कुरुम्बा और कट्टनाईकल हैं। तमिलनाडु में किलानाईकन, कोटा, टोड आदि हैं। अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों में ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग, सेंटेंलिस, शाम्पेन आदि हैं। आदिम जनजातियों के बारे में रणेंद्र कहते हैं कि “जिनके जीवनयापन के तरीके अभी कृषि-पूर्व अवस्था में ही हो या जिनके बीच साक्षरता दर अत्यंत न्यून स्थिति में हो या जिनका जन्म दर कुपोषण एवं जैनेटिक कारणों से ठिठक गया हों या मृत्यु दर से कम हों।”[1] भारत में जितनी भी आदिम जनजातियाँ हैं वे सब की सब कृषि पूर्व अवस्था से ही दूर हैं। साथ ही साथ ये जनजातीय समूह तथाकथित मुख्यधारा से कट जाने के कारण रोटी-कपड़ा-मकान और शिक्षा से बेहद दूर हैं। अतः वे ज्यादा से ज्यादा कुपोषण का शिकार होते हुए दिखाई पड़ते हैं। भारत की कुछ मुख्य आदिम जनजातियों का विश्लेषण इस प्रकार हैं:-

असुर जनजाति : 

झारखंड के प्रमुख आठ आदिम जनजातीय समूहों में ‘असुर जनजाति’ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। प्रागैतिहासिक काल से आज तक असुर जनजाति का विकास कुछ भी नहीं हुआ। इस जनजाति की तीन उपजातियाँ हैं। वीर असुर, बिरजिया असुर और अगरिया असुर। यहाँ पर ‘वीर’ शब्द का अर्थ ‘जंगल’ बताया गया है। इतिहासकारों का कहना है कि यह जनजाति घने जंगलों में निवास करती है। इसलिए उनका ‘वीर असुर’ नाम पड़ा है। उनकी ‘असुरी भाषा’ है। वे इसी भाषा में संवाद करते हैं। यह भाषा आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की है। वे सिंगबोंगा, मरांग बोंगा आदि देवताओं पर अपनी आस्था रखते हैं। उनके मुख्य पर्व एवं त्योहार सोहराय, सरहुल, करमा, फुगुआ, नवाखाई, कथडेली, सरसी एवं कुरासी आदि महत्वपूर्ण हैं।

वर्तमान में ‘असुर जनजाति’ झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में वास करती है। झारखंड में मुख्यतः गुमला, लोहाहेरदगा, पलामू और लातेहार जिलों में यह जनजाति निवास करती है। समाजविज्ञानी के. के. ल्युबा के अनुसार-“वर्तमान असुर महाभारत कालीन असुर के ही वंशज हैं।”[2] इस जनजाति के तीन वर्ग हैं-वीर, विरजिया और अगरिया। इनका इतिहास ‘सोसोबोंगा’ लोकगाथाओं में मिलता है। यह जनजाति ‘प्रोटो-आस्ट्रेलाइड’ भाषा समूह के अंतर्गत आती है। प्रागैतिहासिक संदर्भों में सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा कालीन संस्कृति में असुरों का इतिहास मिलता है। डॉ. मजूमदार कहते हैं कि “असुर साम्राज्य का अंत आर्यों के साथ संघर्ष में हो गया।”[3] इस जनजाति की संख्या बढ़ने के बदले घटती जा रही है। सन् 1981 की जनगणना के अनुसार उनकी संख्या 9100 थी। सन् 1991 के जनगणना के अनुसार 10712 हो गई थी। 2003 में यह संख्या 7793 हो गई और वर्तमान में इनकी संख्या 301 से भी कम बची हुई हैं। दिन-ब-दिन इस जनजाति की संख्या कम होती जा रही है। बड़ी-बड़ी कारपोरेट कंपनियों के कारण उन्हें मजबूरन बेदखल होना पड़ रहा है।

माड़िया  गोंड जनजाति : 

यह जनजाति महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में पाई जाती है। इस जनजाति को ‘मरिया गोंड’ भी कहा जाता है। महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरोली के जिलों में यह जनजातीय समूह निवास करता है तो छत्तीसगढ़ के बस्तर (अबूझमाड़) क्षेत्र में भी यह जनजाति रहती है। उनकी बोली भाषा गोंडी बोली की उपभाषा ‘माड़िया’ है। इस जनजाति को दो उपभागों में बाँटा गया है एक ‘अबूझमाड़िया’ दूसरा ‘बाइसन हॉर्न माड़िया’। ‘माड़िया’ शब्द की निर्मिती ‘माड़’ वृक्ष से हुई है। क्योंकि जनजाति समूह जिस क्षेत्र में अधिक मात्रा में रहते हैं वहाँ पर माड़ वृक्ष की संख्या अधिक है। बस्तर के क्षेत्र में ‘मूर’ वृक्ष अधिक हैं। इसलिए वहाँ पर यह जनजाति ‘मुरिया गोंड’ नाम से भी जानी जाती है। इन जनजातियों का ‘कोया धर्म’ है इसलिए उन्हें ‘कोयतूर’ भी कहा जाता है। कोयतूर गोंडी भाषा का शब्द है। उनका महत्वपूर्ण त्योहार ‘नोवापंडूम’ है। गोंडी भाषा में नोवा को ‘नवीन’ कहा जाता है। जब खेत से फसल कटाई के बाद घर में लाई जाती है तब उस फ़सल की पूजा की जाती है और उसी फ़सल का भोज बनाकर ‘नोवापंडूम’ त्योहार या उत्सव मनाया जाता है। इस समुदाय का ‘रेलानृत्य’ है। इसी नृत्य के माध्यम से वे अपनी सांस्कृतिक पहचान कराते हैं।

जारवा जनजाति : 

यह जनजाति अंडमान एवं निकोबार के द्वीप समूहों के साथ तिब्बत प्रांत से बहने वाली जार नदी के किनारे यह जनजाति निवास करती है। श्री एस. एल सागर कहते हैं कि “आर्यांनी या लोकांना सिंधू खोऱ्यातून हाकलून दिले. तेव्हापासून हे तिबेटमध्ये राहू लागले.[4] (आर्यों ने इन लोगों को सिंधु घाटी शहरों से खदेड़ दिया तब से ये लोग तिब्बत में रहने लगें।) हजारों सालों से यह जनजाति यहाँ पर रहती आ रही है। वर्तमान दौर में यह जनजातीय समूह विकसित अवस्था में आने की कोशिश पर है किंतु वह विकास की दृष्टि से जाता रहा है। उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषा ‘जारवा’ है। इसी भाषा में वे आपस में संवाद साधते हैं। उनकी भाषा का ज्ञान मुख्यधारा के सभ्य समाज को न होने के कारण उन्हें मुख्यधारा के प्रवाह में लाना कठिन कार्य है। आज भी वे अपना जीवनयापन जंगल के विविध संसाधनीय वस्तुओं से करते हैं। उन्हें आधुनिक कैसे कहा जाए? इसका जरा सा भी अंदाजा नहीं है। जारवा आदिवासी समुदाय के बारे में कहा गया है कि “जारवा आदिवासियों को मुख्यधारा में जोड़ना उनके वजूद के लिए खतरा है और उन्हें उसी हाल में छोड़ना भी।”[5] जारवा आदिवासी जब मुख्यधारा में आएगा तब भी उनकी अस्मिता एवं संस्कृति को खतरा है। अगर वे उसी स्थिति में रहेगा तब भी उनके विकास के लिए खतरा है। इसीलिए वर्तमान दौर में आदिवासियों को अपनी अस्मिता भी बचानी है और अपना विकास भी करना है। इससे आज आदिवासियों का जीवन संघर्षपूर्ण दिखाई देता है। वर्तमान में इस जनजाति के 400 से भी कम लोग बचे हैं। सवाईवल इंटरनेशनल समूह का कहना है कि “इस द्वीप समूह में जारवा आदिवासियों का ‘ह्यूमन सफारी’ के लिए इस्तेमाल होता है।”[6] आज विश्व के कई देशों से यहाँ पर पर्यटक आकर उनके साथ ‘चिड़ियाघर के जानवर’ जैसा बर्ताव करते हैं। आज आदिवासी केवल देखने का नजरिया बन गया है। केवल देखने एवं शोध कार्य करने से आदिवासियों का विकास नहीं होने वाला है। बल्कि उन आदिवासियों के क्या प्रश्न हैं? क्या भाषा है? उनकी विविध समस्याएँ क्या हैं? उनके साथ कैसे संपर्क किया जा सकता है? उनकी संस्कृति एवं अस्मिता को बचाकर उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? इन सभी प्रश्नों पर ध्यान देना होगा तभी इस आदिवासी समुदाय का विकास संभव है।


[1] रणेन्द्र. (सं.). (2008). झारखंड एन्साइक्लोपीडिया मांदर की धमक और गुलईची की खुशबू (खंड-4). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृ. 41     

[2] मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया. (11:19, 26 दिसम्बर 2021).असुर (आदिवासी) https://hi.wikipedia.org/wiki/असुर_(आदिवासी). 14 मई 2021 को देखा गया.

[3] मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया. (11:19, 26 दिसम्बर 2021).असुर (आदिवासी) https://hi.wikipedia.org/wiki/असुर_(आदिवासी). 17  मई 2021 को देखा गया.

 [4] मेश्राम, गोकुळदास. (2006). आदिवासी सिंधुसंस्कृतीचे वारसदार व त्यांचा धम्म. पुणे : सुगावा प्रकाशन. पृ. 206   

[5] वर्मा, पवन.(15 मार्च 2016) जारवा आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ना उनके वजूद के लिए खतरा है और उन्हें उनके हाल पर छोड़ना भी https://satyagrah.scroll.in/article/8499/how-to-save-jarawas-of-andaman. 02 नवम्बर 2017 को देखा गया.   

[6] वर्मा, पवन. (21 अक्टूबर 2015).क्यों जारवा आदिवासियों को बचाने की कोशिश उन्हें मिटा सकती है https://satyagrah.scroll.in/article/19533/jarwa-tribe-extinction-challenges. 02 नवम्बर 2017 को देखा गया.   

1 टिप्पणी:

Nikeah pralhadrao kurkute ने कहा…

काफ़ी गहरी सोच