आदिवासी पत्रिका का संपादन ९४ साल बाद फिर से.....
आदिवासी साहित्य परंपरा, लोक संस्कृति पर केंद्रित देश भर
से अनेक आदिवासी पत्रिकाएं निकलती है। उन पत्रिकाओं के माध्यम से आदिवासी समाज का वास्तविक
चेहरा दिखाया जाता है। संन् 1990 के पहले की बात की जाये तो पहले आदिवासी साहित्य
मौखिक रूप में ज्यादा था, किन्तु आज साहित्य ने लिखित रूप प्राप्त किया हुआ दिखता
है। आदिवासी गीत-संगीत, कहानियां, इतिहास, संस्कृति, मुहावरों को पत्रिकाओं आज जगह
दी है। कुलमिलाकर वाचिक परंपरा को लिखित रूप दे दिया है। इसी कड़ी में ‘आदिवासी’
पत्रिका ने अपनी अहम् भूमिका निभाई है।
जानिए आदिवासी का इतिहास...
सन् १९२० में इस प्रत्रिका का संपादन का प्रथम प्रयास हुआ
था। आदिवासीयों के द्वारा ‘आदिवासी’ पत्रिका का संपादन बिहार के छोटानागपुर प्रदेश
से हुआ था। बाद में यह पत्रिका बंद हो गई। स्वाधीनता के बाद सन् १९४७ में बिहार के
जनसंपर्क विभाग ने फिर से इस पत्रिका को जारी रखा। इस पत्रिका को मासिक पत्रिका के
रूप में प्रसारित करने का काम हाथ में ले लिया। फिर नब्बे के दशक में यह पत्रिका
बंद हुई।
कौन थे पत्रिका के संपादक?
छोटानागपुर के आदिवासी समाज की उन्नति के लिए आदिवासी पत्रिका
को चलाने वाली ‘जुलियस तिग्गा’ आदिवासी पत्रिका के सम्पादक थे। तत्कालीन समय में आदिवासी
भाषाओँ में इस पत्रिका में साहित्य छपता था। जुएल लकड़ा जैसे अनेक उस समय के
आदिवासी साहित्यिक इस पत्रिका में लेखन कार्य करते थे। जुलियस तिग्गा के इस कार्य
से आदिवासी की सामाजिक सांस्कृतिक पहचान पत्रिका के माध्यम से जागृत हुई। फिर बाद
में यह पत्रिका आदिवासी महासभा का मुखपत्र के नाम से जाने लगी। सन् १९३९ को जुलियस
को एक कविता छपने से जेल भी जाना पड़ा था। यह झारखंड के पहले आदिवासी पत्रकार थे।
संपादन का जिम्मा महिलाओं ने लिया हाथ में...
आदिवासी रचनाकारों को प्राथमिकता मिलने के लिए अब आदिवासी
महिलाओं ने इस पत्रिका को चलने का जिम्मा हाथ में ले लिया है। जिसमें उल्लेखनीय
सुनीता धान, ईशा खंडेलवाल और वंदना टेटे का नाम प्रमुख है। हालांकि इस पत्रिका का
मुख्य उद्देश्य आदिवासी साहित्य का प्रचार-प्रसार करना रहा है।
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