सोमवार, 15 अप्रैल 2024

भूमंडलीकरण और आम आदमी

 


भूमंडलीकरण और आम आदमी

-Dr.Dilip Girhe

विश्व के इतिहास में सन् 1990 के बाद जो विश्वरूपी परिवर्तन आए जिसके कारण हर देश के चहरे पर एक नई सूचना क्रांति आई उस क्रांति का नाम है भूमंडलीकरण। आज के दौर में भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण को समझाना मुश्किल साबित हो रहा है। क्योंकि इसी दौर से संचार क्रांति ने जन्म लिया है लेकिन इसके परिणाम कैसे रहे यह देखना और समझाना महत्त्वपूर्ण है। सामान्य जनता से लेकर बिज़नेश मैन तक इस घटना का किस तरह परिणाम हुआ यह देखना भी एक अध्ययन कर्ता का काम है। सन् 1990 से लेकर आजतक यानी कि 26 साल में जो कुछ बदलाव हुए हैं यह भूमंडलीकरण के बदलाव है। आज सामान्य जनता के अनेक प्रश्न हैं देश में बढ़ती हुई गरीबी, बढ़ती हुई नाइंसाफी और अमानवीयता के कारण मनुष्य-मनुष्य में दूरियां निर्माण हुई है और हो रही है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? ग्रामीण परिवेश पर बात की जाए तो किसान और मजदूरों की समस्या ज्यादा दिखाई देती है। उनके जमीनों पर बड़ी-बड़ी खदाने तैयार की गई जिसका फायदा व्यापारी वर्ग ही ले सका। किसान और मजदूर तो इसमें फिसता गया। उनपर भुखमरी का समय आ गया उन्हें अपना पेट भरने के लिए मजबूरन शहर में जाना पड़ रहा है शहर में जाकर भी वह अनपढ़ होने के कारण शहर का व्यापारी वर्ग उनका दुगना शोषण करके उनसे काम ले रहा है। एक तरफ एक व्यक्ति के लिए दस-दस बंगले हैं तो दूसरी तरफ हजारों चेहरे फुटपात पर सोये हुए दिखाई देंगे। एक व्यक्ति कार में जा रहा है तो दूसरा व्यक्ति बिना चपल के पैदल चल रहा है। एक व्यक्ति भरपेट खाना खाकर फेक दे रहा है दूसरा व्यक्ति वहीं फेका हुआ खाना खा रहा है। इस दुनिया में क्या-क्या देखने को मिल रहा है । भाषणों में समानता के मुद्दों पर हमेशा बातें होती रहती है। क्या यही समानता है? पढ़ा हुआ आदमी अनपढ़ आदमी का शोषण कर रहा है। देश-विदेश की कंपनियों ने दुनिया को दो हिस्सों में बाँट डाला हैं। एक तरफ वह दुनिया का हिस्सा जो कि पूरा विकसित यानी भूमंडलीकृत हो गया और दूसरा हिस्सा वह जो कि इस प्रक्रिया के चपेट में लोकतंत्र के इस देश में भूमंडलीकरण के आयामों को देखा जाये तो यह आयाम तकनीक, निवेश और नई दृष्टि निर्माण तक ही सीमित होकर युद्ध, आक्रमण, नरसंहार और विनाश आदि तक फ़ैल गए हैं। वर्तमान समय में वैश्वीकरण का मुख्य आधार राजनीति बन चूका है।

भूमंडलीकरण बनाम विकास-विमर्श

भारत 21 वीं सदी में आर्थिक महासत्ता बनने के सपने सजाए बैठा है।  देश में हो रहे बदलाओं में अच्छे स्कूल, अस्पताल, हवाई अड्डे, होटल, और वातानुकूलित बहुमंजिली बाजार, विशाल और भव्य सरकारी दफ्तरें, संसद तथा विधानसभा भवन, महानगरों को जोड़ती आधुनिक सड़के, तेज रफ़्तार वाली मेट्रो ट्रेन, भव्य डिजिटल सिनेमाघर, उच्च शिक्षा और अनुसंधान के संस्थान, फेशन शो, पैन्ट और जूते बेचने के विज्ञापन और शो-रूम इन जैसी सुविधाओं को देखकर ऐसा लगता हैं कि हम अमरिका के कंधो-पर-कंधा रखकर चल रहे हैं। परंतु यह सब सुविधाओं का लाभ कौनसा वर्ग ले रहा है। यह किसी ने सोचा? इन सभी सुविधाओं का फायदा वही वर्ग ले रहा हैं जिनके पास अगीनत पैसा हो। आम आदमी के लिए यह सब सुविधाओं का क्या फायदा जिसका उपभोग लेने के लिए उसके पास पैसा ही ना हो। जो मंजिले हमने तय की है उस मंजिल पर सामान्य जनता ही चल नहीं सकती तो उस रास्ते का क्या फायदा जिसने बड़ी-बड़ी मंजिले तैयार की हैं। डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम (मिसाइल मैन) का सपना था कि  2020 तक भारत दुनिया का सबसे बड़ा विकसित राष्ट्र बनेगा। क्या यह सपना सच होने के संकेत दिखाई दे रहे हैं? जब तक भारत देश ‘आर्थिक महासत्ता’ नहीं बन सकता तब तक सामान्य जनता का विकास नहीं हो पाएगा। इस देश में अमीर लोगों से ज्यादा भीख मांगने वालों की संख्या अधिक हैं। क्या उन लोगों का भविष्य, उनके बच्चों का भविष्य ही इस देश को एक मजबूत विकास प्रदान करेगा।

भूमंडलीकरण बनाम आदिवासी विमर्श

देश के सबसे पिछड़े वर्ग का समाज आज का आदिवासी समाज माना जाता है। आज आदिवासी विमर्श सिर्फ शोध का विषय बन गया हैं। वास्तव में विश्व में जितनी भी जनजातियाँ निवास करती हैं वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक रूप में सक्षम हैं? इस प्रश्न का उत्तर को जब हम खोजते हैं तो नहीं मिल जाता है। मनुष्य की प्रारंभिक आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान की मानी जाती है। जिस मनुष्य के पास यह सुविधाएँ हैं। वह खुद का जीवन जिने में संतुष्टि महसूस करता है। ऐसा कहने में कोई संदेह वाली बात नहीं है। फिर भी आदिवासियों के पास खाने के लिए रोटी नहीं है। तो उस समाज का विकास कैसे संभव हो सकता है? कैसे शिक्षा ले पाएगा? आदिवासी समाज में आज सबसे ज्यादा बच्चे कुपोषण का शिकार बने हुए दिखाई देते हैं। सरकार ने आदिवासियों के जंगलों को काटकर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बनाई है। जिसके कारण वह बेघर हो गए हैं। इन सभी परिस्थितियों का अध्ययन कर कर प्रसिद्ध आदिवासी लेखिका निर्मला पुतुल ने ‘बेघर सपने’ कविता संग्रह लिखा। ‘आखिर कब तक’ कविता संकेत करती है कि-

‘आखिर कब तक

होता रहेगा यह सब

चलती रहेगी कब तक

झूठी नौटंकी और स्वार्थपूर्ण राजनीति

आखिर कब तक?

कब तक हमारे हिस्से का समुद्र लीलकर

बुझाते रहेंगे अपनी-अपनी प्यास

और चढाते रहेंगे निर्दोष मासूमों की बलि

उनके हिस्से का अनाज छिनकर

आखिर कब तक?

बेबस मौन व्रत रखे लोग

अन्दर ही अन्दर गलते,बहते रहेंगे

मवाद की तरह

आखिर कब तक?

इस कविता के शब्दों से यह साबित होता है कि आखिर कब तक इस देश का आदिवासी अन्याय-अत्याचार का शिकार बनता जायेगा कब तक यह राजनीति की नौटंकी चलेगी एक तरफ आदिवासी भूमंडलीकरण के चपेट में और दूसरी तरफ घटियाँ राजनीति दोनों परिस्थितियों का सामना आदिवासी समाज कर रहा हैं।

भूमंडलीकरण बनाम किसान एवं मजदूर वर्ग

नेगरी और हडर्ट ने कहा था कि-“राज्य राष्ट्रीय मुक्ति की प्रक्रिया का ही एक जहरीला फोहफा है।जिस देश में प्राचीन काल से गुलामी चलती आ रही है उस देश का भविष्य क्या होगा? आज का विज्ञापन किसानों को सलाह देता हैं कि कृषि में ज्यादा माल निकलना हैं तो कृषि आधुनिक पद्धति से करें? जब वैश्वीकरण ने पर्यावरण का सारा संतुलन ही बिघाड डाला हैं तो आधुनिक कृषि करने से क्या फायदा। आज समय पर वर्षा नहीं हो रही है इसका कारण क्या है। अगर समय पर बारिश ही नहीं हुई तो बेचारा किसान क्या करेंगा? किसान दिन भर काम करता हैं और चार महीने बाद अनाज को अपने झोली में लेता हैं वह भी प्रकृति के भरोसे और व्यापारी वर्ग एक ही दिन में किसानों का सारा माल हड़प करता है उस माल को अच्छी किंमत मिलनी चाहिए वह भी नहीं मिलती। और इसी माल से वह दुगना पैसा कमाता है। यही सब हाल मजदूर वर्ग का भी है। बड़े-बड़े खदानों में मजदूरों को उनके मेहनत के एक दिन के ज्यादा से ज्यादा 200 रूपए मिलते हैं लेकिन उसकी अंग मेहनत का मोल क्या? यह कोई भी नहीं जानता जो मजदूर यह सब काम करता हैं उसी को पत्ता हैं की खदान या बड़े-बड़े दूषित कारखानों में काम करना यह किसी भी भीमारी को दावत देना है। यह वर्ग पेट भरने के लिए अपनी खुद की जान की पर्वा भी नहीं करता। सरकारी एजेंट आज भी नौकरशाही पाबंदियों का लाभ उठाकर गाँव के गरीबों, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में रोजी-रोटी सामान्य मजदूर वर्ग एवं किसान वर्ग को लुटकर लाखों रूपयों की रिश्वतें खा रहे हैं इसके कारण आज देश में भ्रष्टाचार, हिंसा और अपराधियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही हैं। जिसकी सबसे ज्यादा शिकार आर्थिक दृष्टि असक्षम महिलाएँ ही बन गई है।

भूमंडलीकरण बनाम लोकतंत्र

लोकतंत्र यानी लोगों के कल्याण के लिए जहाँ पर बातचीत होती हैं उसे लोकतंत्र कहाँ जाता हैं। जनता को सरकार चुनने का तो अधिकार दिया है लेकिन जनता के हित या अहित के लिए जो भी निर्णय लेना है वह अधिकार सरकार को हैं। आज के दिन में मोदी सरकार पर बातचीत की जाए तो ‘मोदी सरकार’ ने 500 रुपये और 1000 रुपये के चलनी नोट बंद करकर 500 रुपये और 2000 रुपये के नोट चलन में लाए हैं। सरकार ने काला धन को पकड़ने के लिए यह कदम उठाया है ऐसा सरकार का कहना है। जिसके कारण आम आदमी को बहुत दिकतों का सामना करना पड़ रहा है। अपना अनमोल समय बिताकर पैसे निकलने के लिए लाइनों में खड़ा रहना पड़ रहा हैं। क्या यह निर्णय लोकतंत्र के पक्ष में है या उनके विपक्ष में है? क्या कालाधन मजदूर, किसान, सब्जी बेचने वाले गरीब, ऑटोरिक्शा, किराना दुकान, विद्यार्थी, शिक्षक, जैसे आम जनता के पास हैं। कालाधन जिन-जिन बिजिनेस मेन लोंगों के पास हैं उनका तो सरकार ने कर्जा भी माफ़ कर दिया। खैर 26 वर्षों में जो भी बदल हुए वह बहुत तेज़ी के साथ हुए। इन सब बातों से देश की गरीबी तो कम नहीं होने वाली है। किंतु सरकारी गतिविधियों का प्रस्तुतिकरण जरूर दिखने में आ रहा है। जब-तक सरकार जन हितों पर नहीं सोचेगी तब-तक आम जनता का विकास नहीं होगा।

अतः इतना उचित रहेगा कि भूमंडलीकरण के दौर में आम आदमी की पहचान के असली चेहर किस-किस प्रकार सामने आए हैं यह इस सभी बातों स्पष्ट होता है। और उनके जीवन पर किस तरह से भूमंडलीकरण का प्रभाव पड़ा है। यह भी देखा गया है। हम ऐसा भी कह नहीं सकते की इसका प्रभाव आम जनता पर नकारात्मक पड़ा है या सकारात्मक पड़ा है। अपितु मेरे विचार से मैंने नकारात्मक तरीके से स्पष्ट करने की कोशिश की है। इसीलिए इस प्रक्रिया में ‘नवीनता’ के गुण विद्यमान है। इस गुण विशेषताओं को हम नजरंदाज भी नहीं कर सकते हैं। नवीनता के गुणों पर हुईसेन अपनी बात रखते हुए कहते हैं कि-‘नवीन के प्रति हमारे आकर्षण का प्रभाव हमेशा पहले ही मंद हो जाता है। नए के भीतर ही उसका अंत समाविष्ट दिखता है। उसके प्रकट होने के क्षण में ही उसकी व्यर्थता का पूर्व-बोध निहित है। यही कारण है कि नवीन का जीवन-काल घटते-घटते अंतिम क्षण के नजदीक चला जाता है।’ कौनसी भी चीज नई होने पर उसके प्रति किसी की दृष्टि आकर्षित होती हैं। किंतु जब वह पुराणी बन जाती है तो उस वस्तू या चीज के प्रति देखने का नजरंदाज भी बदल जाता है।

इसे भी पढ़ें- आदिवासी कविताओं में भूमंडलीकरण की असली शक्लें 


संदर्भ

1.     दुबे, अजय कुमार.(सं).(2013).भारत का भूमंडलीकरण. नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन.

2.     काबरा, कमल नयन.(2005).भूमंडलीकरण के भंवर में भारत. नई दिल्ली : प्रकाशन संस्थान.

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