गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

महाराष्ट्र के आंध जनजाति की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

 

महाराष्ट्र के आंध जनजाति की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

-Dr.Dilip Girhe

'आंध' जनजाति महाराष्ट्र सरकार के ‘अनुसूचित जनजाति’ गझेट के प्रथम क्रमांक पर है। महाराष्ट्र की यह एक प्रमुख आदिवासी जनजाति है। 1981 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या प्रमुखतः परभणी (57593), नांदेड़ (40774), यवतमाल (77077) और अकोला (44204) जिलों में पाई जाती है। आंध्र प्रदेश के निकटवर्ती क्षेत्र से आने वाले तेलुगू भाषी लोगों का आंध जनजाति के लोगों पर काफी भारी मात्रा में प्रभाव रहा है। ‘आंध’ जनजति आंध्र प्रदेश की एक अनार्य जनजाति है। इनके नाम से ही ‘आंध’ नाम पड़ा है। ई. वी सन् के प्रारंभिक काल के दौरान आंध्र राजवंश के शासन का एक बड़ा क्षेत्र संपूर्ण दक्षिण भारत के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच फैला हुआ था। अभी भी इस क्षेत्र में बहुतांश आंध जनजाति के लोग पेंगांगा नदी के पार हैदराबाद क्षेत्र से आते हैं। कुछ विद्वान बताते हैं कि आंध जनजाति गोंड जनजाति की एक शाखा है। किन्तु इन संदर्भों पर शोध की आवश्यकता है। 

हालांकि आंध जनजाति गोंड जनजाति से अलग एवं स्वतंत्र है। इससे आदिवासियों की प्रमुख विशेषताएँ एवं अस्मिता दृष्टिगोचर होती हैं। आंध जनजाति को दो समूहों में विभाजित किया गया है। ‘वर्ताली’ और ‘खलताली’ उनमें से कई कबीले हैं।हालांकि वर्तमान समय फूले, शाहू और अम्बेडकर की विचारधारा के प्रभाव के चलते यह भेद न के बराबर रहा है। आज इन कबीलों में अन्तर्विवाह हो रहा है। आंध जनजाति के गोत्र एवं उनके गांवों के नाम जानवरों या पौधों के नामों से मिलते हैं। जैसे कि उन्होंने ‘रिंगानी’ (एक प्रकार का पेड़), ‘दुभोर’ (चींटियों की बस्ती), ‘सुअर’ (डुक्कर), ‘टिटवे’ (टिटवी-एक पक्षी), ‘वाघमारे’ (बाघ को मारने वाला) आदि। इनमें डुकरे, खोकले, बंसाले, देवकर, सरकुंडे, गव्हाड़े, गिऱ्हे, आम्ले, डवरे, साबळे, वानोळे, कुरकुटे, क-हाळे, बोडखे, मुरमुरे, फुपाटे, बोथिकर, नाईक, टार्फे, सातपुते, येळणे, गारोळे, शेळके, खुपसे, नांदे, राजने, कोकाटे, पाचपुते, काळे, मोघे, पाचपुते जैसे अनेक प्रकार के गोत्र शामिल हैं। इनके सरनेम को ही ‘गोत्र’ कहा जाता है। आंध जनजाति पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाली कृषक जनजाति है। इनके मुख्य खाद्य उत्पाद ज्वार, तुअर, उड़द, मूंग  वाल है। इनके घरों में  परात, लोटा, तम्बिया, गंज, थाली, गुड़ी, तवा, कटोरा, सूप, टोकरी, बाल्टी, कांगी आदि घरेलू बर्तन होते हैं। उनका घर साफ़-सुथरा होता है। वे समय-समय पर पशुओं का गोबर और मलमूत्र हटाकर पशुशालाओं को साफ रखते हैं। इन जनजाति घर मिटटी के सीधे-साधे होते हैं किन्तु काफी मजबूत होते हैं। जिनमें मिट्टी से पुती दीवारें, लकड़ी के दरवाजे, घास-फूस की छतें होती हैं। 

इस जनजाति के वयस्क पुरुष धोती, कुरता और पगोटे पहनते हैं। स्त्रियाँ नौवारी लुगड़ी चोली चोली पहनती है। पहले समय में लोग पारंपरिक ‘लाल पैगोट’ पहनते थे, परन्तु आज इसका स्थान टोपी और सफेद पैगोट, रूमाल ने ले लिया है। पुरुष हाथों में अंगूठियाँ और कुछ पुरुष कानों में बाली पहनते हैं। स्त्रियाँ चूड़ियाँ, पाटल्या, जोड़वी, मंगलसूत्र, एकदानी, साड़ी, गोट आदि पहनती हैं। महिलाएं अपने माथे पर ‘टैटू’ बनवाती हैं। ‘टैटू’ छोटी प्यारी महिलाएं बनाती हैं। 

आंध जनजाति में गर्भवती महिला का प्रसव कराने के लिए ‘दाई’ होती है। ‘दाई’ जन्मजात बच्चे की नाल काटती है और घर के बाहर गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ देती है। पंचमी के दिन पूजा की जाती है और दीपक जलाया जाता है। इस समय बच्चों को दाल का भोजन दिया जाता है। सात दिनों तक दाई बच्चे की देखभाल करती है। सातवें दिन वह बच्चे को नहलाती है। घर को साफ़ कर दिया जाता है। कपड़े साफ़ किये जाते हैं। एक दाई को 16 किलो ज्वार दिया जाता है। जन्म के 12वें दिन बच्चे का ‘नामकरण’ किया जाता है। जिसे ‘बारस’ कहते हैं। पाँच इत्र के दीपक जलाते हैं और बच्चे की ओर हाथ हिलाते हैं। पांच सप्ताह के बाद बच्चे के बाल काटकर बहते पानी में छोड़ दिये जाते हैं। 

विवाह व्यवस्था में एक ही कुल के लोगों के बीच भी चचेरे भाई-बहनों के बीच भी विवाह वर्जित माना गया है। लेकिन लड़की किसी रिश्तेदार से शादी कर सकती है। पहले के समय में लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में कर दी जाती थी और उनकी शादी उनके जन्म से पहले ही तय कर दी जाती थी। उनमें विवाह समारोह ‘कुनबी’ समुदाय के समान है। सगाई ‘अक्टूबर और दिसंबर’ के बीच होती है और शादी समारोह तीन से चार महीने बाद जनवरी अप्रैल-मई के बीच होता है। हालांकि वर्तमान में यह सभी परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी है। इन जनजाति में ‘बहुविवाह’ को मान्यता है। जिन लोगों की एक से अधिक पत्नियाँ होती हैं उन्हें ‘धनी’ माना जाता है। उनके साथ सम्मान से व्यवहार किया जाता है। विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति है। 

आंध जनजाति के मुख्य भोजन में ज्वार की रोटी, अरहर, वाल, मूंग और उड़द की भूसी और खेतों में उगने वाली सब्जियाँ शामिल होती हैं। यह जनजाति हिन्दू धर्म के संपर्क में आने के कारण वे खुद को हिन्दू मानते हैं। वे ‘मारुति’, ‘मरयई’, ‘माता’, ‘भीमसेन’, ‘वाघमई’, ‘खंडोबा’, ‘कान्होबा’ और ‘भवानी’ जैसे देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। ‘माता’ रोग का निदान करने वाली देवी मानी जाती है। वे मराठा और कुनबी समुदायों से बहुत प्रभावित हुए हैं। आंध जनजाति के लोग हिंदू रीति-रिवाज के विपरीत, मृतक व्यक्ति का सिर दक्षिण की ओर करके दफनाते हैं। वे हिंदुओं की तरह मरने वाले व्यक्ति के मुंह में पवित्र भोजन डालने के बजाय ‘चीनी’ डाल देते हैं। अंतिम समय में ‘रामनाम’ जपने की उन्हें कोई परवाह नहीं है। सूतक दस दिनों तक मनाया जाता है। यदि मृतक अविवाहित है तो सूतक केवल तीन दिनों तक मनाया जाता है। उनके पास पारंपरिक पंचायत प्रणाली है 'मुखिया' इसका नेता है। मुखिया का पद वंशानुगत नहीं होता। यह नेता जांच करता है और समझौते द्वारा समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करता है। जो इन समस्याओं को सुलझाता है उसे 'मास' भी कहा जाता है। उनके सहायक दो कार्यकर्ता होते हैं। जिन्हें ‘फोपतिया’ और ‘डुकरिया’ कहा जाता है। जब कोई अपराध होता है तो डुकरिया अपराधी को बुलाने जाता है।उसे सामुदायिक भोजन के दौरान उपयोग किए जाने वाले मिट्टी के बर्तन दिए जाते हैं, जबकि ‘फोपतिया’ को एक नया कपड़ा दिया जाता है। 'मोहतारिया या मुखिया' मामले का फैसला करने के लिए विभिन्न गांवों में जाते हैं। वसूले गए जुर्माने का एक हिस्सा उसे नकद या वस्तु के रूप में मिलता है। आंध जनजाति शैक्षणिक रूप से थोड़ी विकसित है। इस जनजाति ने पिछले 50 सालों में धीरे-धीरे प्रगति की हुई मिलती है। 1981 के जनगणना के अनुसार इनमें साक्षरता दर 18.85 पाया गया है। आंध जनजाति कृषि प्रधान जनजाति है। इनमें भूमिहीन मजदूरों का अनुपात अपेक्षाकृत कम है। इस जनजाति ने कृषि विकास के लिए विकास योजनाओं का लाभ अच्छे तरीके से उठाया है।

संदर्भ:

डॉ गोविंद गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती