पाटनुर जंगल सत्याग्रह के प्रवर्तक: संभाजी नखाते आंध
-.Dilip Girhe
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में देश के हर एक कोने-कोने से आदिवासियों ने ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ़ आंदोलन एवं सत्याग्रह किए हैं। इसी में एक सत्याग्रह महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले में ‘पाटनुर सत्याग्रह’ हुआ है। सन् 1947 में संभाजी नखाते, गुणाजी राघोजी खुपसे और पुंजाजी भवानजी खुपसे तिरकसवाड़ी ने पाटनुर के वन मंजूरी सत्याग्रह में भाग लिया। साथ ही मुदखेड स्वतंत्रता सेनानी भी देश की आजादी के लक्ष्य से प्रेरित थे और उन्होंने भी पाटनुर के वनों की कटाई सत्याग्रह में भाग लिया। उस समय उन्होंने निज़ामी सेना के साथ संघर्ष में बड़ी उपलब्धि हासिल की। संभाजी नखाते आंध को पाटनुर में गोली मार दी गई। इसमें वह शहीद हो गये। गुनाजी खुपसे और पुंजाजी खुपसे को गिरफ्तार कर लिया गया और मुदखेड इलाके में ले जाकर उनको भी गोली मार दी गई। उसमें वह शहीद हो गये। इन तीनों स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान आदिवासी समाज के लिए गौरव का विषय है। संभाजीराव नखाते का जन्म सन् 1907 में नांदेड़ जिले के पाटनुर गांव में आंध आदिवासी समुदाय के एक किसान परिवार में हुआ था। वे 1947 में भारत की आज़ादी के लिए शहीद हो गये। आदिवासी आंदोलन के इतिहास के पन्ने को खोजा जाए तो उनका संघर्ष ‘पाटनुर का जंगल सत्याग्रह’ के नाम से उल्लेखित है। लेकिन इसके लिखित दस्तावेज़ बहुत ही कम मात्रा में मिलते हैं। इसी वजह से प्रस्तुत लेख को लिखने का उद्देश्य रहा है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का अंतिम चरण जब शुरू हुआ। तब विभिन्न इलाकों में आदिवासियों द्वारा जंगल सत्याग्रह चल रहे थे। महाराष्ट्र के नांदेड़ इलाके में जंगल सत्याग्रह का माहौल काफी गरम था। तेलकी, डोरली, कांडली, बारड, पाटनुर चिदगिरि में जंगल सत्याग्रहों ने जन आंदोलन के नये मानदंड स्थापित किये थे। इस आंदोलन में सैकड़ों महिलाओं की भागीदारी बढ़-चढ़कर रही है। आदिवासी इतिहास में पाटनुर के जंगल सत्याग्रह को एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में दर्ज करना आवश्यक होगा। तभी नई पीढीयों को अपने इतिहास का पता चलेगा। इसमें आंध समुदाय के महिला-पुरुषों की बड़ी भागीदारी रही। जंगल सत्याग्रह आंदोलन की आलोचना करने से पहले हमें जंगल सत्याग्रह के पीछे की भूमिका को समझना आवश्यक होगा। हैदराबाद राज्य में ‘शिंदी’ और ‘ताड़’ के पेड़ों से उत्पादित शहद से सरकार को काफी राजस्व मिलता है। इसलिए पूरे निज़ाम राज्य में इन पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी गई थी। यहाँ तक कि निजी खेतों में लगे शिंदी के पेड़ भी नहीं काटे जा सकते थे। ऐसा ही एक बड़ा ‘शिंदीबन’ अभ्यारण्य पाटनुर क्षेत्र में था। यह सत्याग्रह यहाँ के शिंदी वनों बचाने के लिए किया गया था। फिर भी इस जन आंदोलन ने इतना हिंसक रूप ले लिया कि यहाँ के आरक्षित वन में से हजारों पेड़ काट दिए गए।
इस पेड़ो को बचाने के लिए मुदखेड क्षेत्र की एक हजार-बारह मंडली, जिनमें ज्यादातर किसान और खेतिहर मजदूर थे, वे अपने परंपरागत हत्यारों के साथ पाटनुर के जंगल में एकत्र हुए। पुलिस को पता था कि जंगल सत्याग्रह होगा। पाटनुर का संपूर्ण जंगली इलाका स्टेट कांग्रेस जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा। संभाजीराव गंगाराम नखाते जो इस सत्याग्रह में सबसे आगे थे, जो की पुलिस गोलीबारी में मारे गये। उन्होंने आजादी के लिए बलिदान दिया। इसके अलावा इस सत्याग्रह में भाग लेने वाले पुंजाजी भवानजी खुपसे और गुनाजी राघोजी खुपसे को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तिरकसवाड़ी तालुका मुदखेड के क्षेत्र में ले जाया गया और 19 जून, 1947 को उनको मार दिया गया। वे शहीद हो गए। आंध आदिवासी समुदाय के इन तीन स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान आंध समुदाय के शौर्यगाथाओं में लिखा जायेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है। इस आंदोलन में सामाजिक कार्यकर्ता एकनाथ बर्कुले ने भी अपना सहयोग दिया है। आंध आदिवासी समुदाय के संभाजीराव नखाते को 40 वर्ष की आयु में भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। यह प्रेरणादायक संघर्ष की आंध समुदाय के समाज के लिए प्रेरणादायक एवं स्वाभिमानपूर्ण है। इससे पता चलता है कि आंध आदिवासी समुदाय के क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम को अधिक महत्त्व दिया।
इसी वजह से आंध समुदाय ने अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए हजारों वर्षों से अपनी-अपनी बस्तियों में स्वतंत्र जीवन व्यतीत किया हैं। आज भी पाटनुर क्षेत्र में आंध जनजाति के शहीदों के स्मारक मौजूद है। अन्य शहीदों पुंजाजी भवानजी खुपसे और गनोजी राघोजी खुपसे (शेष तिरकसवाड़ी जिला मुदखेड़ जिला नादेड़) के साथ-साथ निवघा (मुदखेड़ जिला नादेड़) के दस शहीदों को भी भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। उनके नाम ‘निवघा’ के शहीद स्मारक पर भी रेखांकित हैं। इसके अलावा, सावरगांव, लोहा और कई अन्य गांवों के कई आंध आदिवासी के पुरुष और महिलाएं भारत की आजादी के संघर्ष में सबसे आगे थे। इससे सिद्ध होता है कि आंध आदिवासी समुदाय भारत को आजादी दिलाने में सक्रिय रूप से शामिल था। ‘संभाजीराव नखाते शहीद स्मृति समारोह’ का आयोजन 9 अगस्त 1981 रविवार को उनके पुत्र ‘अप्पा नखाते' के द्वारा उद्घाटन का सम्मान दिया गया। इस कार्यक्रम के अध्यक्ष जिला परिषद नांदेड़ के तत्कालीन अध्यक्ष गंगाधरराव कुंतुरकर देशमुख थे। साथ ही इस कार्यक्रम के लिए अनुरोध स्वरूप तत्कालीन कलेक्टर आर. गोपाल ने किया था।
शहीद संभाजीराव गंगाराम नखाते ने स्वाधीनता में बलिदान दिया। इस कार्य को देखते हुए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाचसाहेव भोसले द्वारा हस्ताक्षरित प्रमाण पत्र से 9 अगस्त 1982 को उनके बेटे ‘अप्पा संभाजीराव नखाते’ को सम्मानित किया गया था। यह उल्लेख किया गया है कि सम्मान प्रमाणपत्र केवल शैक्षणिक रियायत के लिए पात्र है। लेकिन संभाजीराव नखाते के 73 वर्षीय बेटे और बहू ने बेहद लाचार होकर कहा कि सरकार ने आज तक उनके उत्तराधिकारियों को इस प्रमाणपत्र का लाभ नहीं दिया है। लेकिन आज भी उनके परिवार को इस प्रमाणपत्र का लाभ नहीं मिला। इससे आदिवासी विकास की स्थिति को भी समझा जा सकता है। यदि भारत की आजादी के लिए अपना बलिदान देने वाले शहीदों के उत्तराधिकारियों को इतना असहाय और वंचित जीवन जीना पड़ा, तो यह स्पष्ट हो गया कि आंध जनजाति के आदमी की असहायता और अभाव की गंभीरता कितनी भयानक है। इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि आजादी के सत्तर वर्षों में प्रशासन और सरकार ने आंध जनजाति की कितनी उपेक्षा की। हर साल 17 सितंबर को तहसीलदार सरकार के प्रतिनिधि के रूप में पाटनुर में शहीद स्मारक पर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होते हैं। ढाई एकड़ की भव्य जगह पर शहीद स्मारक बना हुआ है। स्मारक का रखरखाव न्यूनतम है। स्मारक के आसपास लगभग दो एकड़ जमीन खाली पड़ी है। पहले कुछ वर्षों के लिए उक्त भूमि शहीदों के उत्तराधिकारी उनके पुत्र अप्पा को दी गई। अब उन्हें कुछ नहीं दिया जाता। उनके बेटे और बहू ने हमें बताया कि हमें अभी तक एक भी आश्रय नहीं मिला है, कई लोगों ने शहीद संभाजीराव और हमारे बारे में हमसे जानकारी ली है, लेकिन अफसोस और दुख व्यक्त किया है कि उन्हें सरकार की किसी भी बड़ी योजना का लाभ नहीं मिला है। जनजाति के शहीदों के वारिस को आज सरकारी लाभों से असहाय और वंचित रखा गया हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत की स्वतंत्रता के लिए आंध जनजाति का बलिदान और स्वाभिमान इस समुदाय को जागृत करने में अमूल्य होगा। इसके लिए आंध जनजाति के संघर्षपूर्ण इतिहास को संपूर्ण भारतवर्ष के लोगों तक पहुंचाना हम सभी का कर्तव्य है। इस प्रकार से आंध आदिवासी समुदाय के संभाजी नखाते आंध पाटनुर जंगल में सन् 1947 में शहीद हो गए।
संदर्भ:
तुकाराम भिसे-आंध जमातीचा प्राचीन वांशिक व राजकीय इतिहास
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