भारत में आदिवासी राजनीति के संदर्भ लगभग १९२१ से मिलते हैं।
इस राजनीति ने २०२१ में पूरे सौ साल हुए। इस बात का चिंतन करती हुई अश्विनी कुमार
पंकज की ‘भारत में आदिवासी राजनीति के सौ साल संदर्भ: दुलु मानकी और रेव, जेजेएम
निकोल्स रॉय (१९२१) से छोटूभाई बसवा और हेमंत सोरेन २०२४ तक’। इस पुस्तक के मुख्य
विषय राजनितिक हत्या, घात-प्रतिघात और विश्वासघात के खिलाफ आदिवासी संघर्ष की कहानी
इस पुस्तक की मुख्य संवेदनशीलता है।
भारत में १९२१ से विधायी एवं संसदीय प्रणाली की शुरू हुई है।
पहले इस चुनावी संदर्भ भारत के दो आदिवासियों-चाईबासा, झारखंड के दुलु मानकी और
शिलांग, मेघालय के रैव, रेजेएम निकोल्स रोय ने जीत हासिल की है। इसके बाद से ही सेंकडों
आदिवासियों ने संसदीय सदनों में पैसे जमाये हैं। इन आदिवासियों ने सिर्फ राजनीति
में ही प्रवेश नहीं किया बल्कि सामाजिक दायित्व व सामाजिक योगदान भी निभाए हैं
संसदीय शासन प्रणाली को लोकतान्त्रिक बनाने के लिए
प्रयास...
हर सांसद-विधायक ने संसदीय शासन प्रणाली को मजबूत आधार रूप
प्रदान करने का काम किया। परन्तु राजनीति में इतिहास और अवदान के साथ-साथ,
घात-प्रतिघात भी देखने को मिलते हैं। इस पुस्तक के लेखक अश्वनी कुमार पंकज ने पहली
बार इन सभी कहानियों को इस पुस्तक में चित्रित किया है। आदिवासियों द्वारा
लोकतंत्र को बचाने के लिए किया गया संघर्ष भी इसमें है। साथ ही मुख्य रूप से
भविष्य में आदिवासी राजनीति की दशा और दिशा कैसी रहेगी। इसका रेखांकन प्रस्तुत
पुस्तक का केंद्र है।
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