गोंडवाना
भू-प्रदेश का इतिहास
-Dr. Dilip Girhe
आदिवासियों के इतिहास की पहचान उनकी
सभ्यता एवं संस्कृति कराती है। इसलिए आज का आदिवासी साहित्य आदिवासियत एवं उसके
इतिहास का गवाह है। आदिवासी साहित्य पर चिंतन करने वाली लेखिका रमणिका गुप्ता कहती
हैं कि ‘इतिहास लेखन को लेकर समय-समय पर सहमतियाँ व असहमतियाँ दर्ज की जाती रही
हैं। कई बार वे व्यक्ति, समुदाय, संघर्ष, प्रतिवाद हाशिए पर रह जाते हैं या नेपथ्य
में चले जाते हैं जिन्होंने समय के नुकीले प्रहार सहे होते हैं। इसलिए कहा जाता है
कि इतिहास समय एवं काल के अनुसार बदलता रहता है। जिसके कारण इतिहास का पुनर्पाठ
होता है। जब इतिहास पर सहमति या असहमति की बात की जाती है तब इतिहास आलोचना में
तब्दील हो जाता है।’
गोंडवाना
महाद्वीप का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इस इतिहास लेखन में आचार्य मोतीरावण
कंगाली, मंसाराम कुमरे, चंद्रलेखा कंगाली, डॉ.रामसिया सिंह, व्यंकटेश आत्राम आदि
इतिहासकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ‘नवभारत’ समाचार पत्र में प्रकाशित एक
खोज में सोवियत भूगर्भ शास्त्रियों ने यह प्रमाणित किया कि गोंडवाना दो करोड़ वर्ष
पूर्व दक्षिणी ध्रुव तक फैला हुआ था। यहाँ के प्रमाणों से निष्कर्ष सामने आए हैं
कि ‘इंडियन पेनिनसुला’ प्रदेश का ही गोंडवाना नाम पड़ा है। इस प्रदेश में भारत, अफ्रीका,
दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिंका, आस्ट्रेलिया आदि देश हैं। आस्ट्रेलियन भूगर्भ
शास्त्री ऐडवर्ड स्वेस का मानना है कि ‘आदिम जनजाति ‘गोंड’ के शासनकाल से इस
प्रदेश का नाम ‘गोंडवाना’ पड़ा है। उनका यह भी मानना है कि ‘पृथ्वी के आधे भाग को
गोंडवाना कहा जाता है।’
भारतवर्ष
में आज भी कई जंगलों एवं पहाड़ों में गोंड समुदाय बसा हुआ है। और उनका कई
शताब्दियों से प्रकृति के साथ गहरा संबंध हैं। प्रकृति ही उनके जीवन जीने की
आधारशिला है। ‘गोंड’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में प्रो. स्टीफ़न हिस्लाप कहते हैं
कि “गोंड शब्द तेलुगु भाषा के ‘कोंड’ शब्द से आया है।”[1] तेलुगु
भाषा में ‘कोंड’ का अर्थ ‘पहाड़ी’ होता है। जो समुदाय मैदानी भागों में रहते आए हैं
वे अपना परिचय ‘कोयतुर’ नाम से कराते हैं। यही नाम आगे चलकर ‘कोया पुनेम’ संस्कृति
से जुड़ा। श्रीमती चन्द्रलेखा कंगाली गोंडवाना महाद्वीप के बारे में कहती हैं कि “गोंडवाना
एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे उसके गोंड्जिओं की उत्पत्ति एवं विकास की प्रक्रिया से,
उनकी भाषा, संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के वास्तविक आधार थे उनके भौगोलिक आवासीय
परिवेश तथा उनकी प्राचीन कोप, कोट, गोंडोला और गुरडा है।”[2]
उषाकिरण आत्राम गोंडवाना के प्राचीन का संदर्भ देती है कि “गोंडवाना यह प्राचीन
विशाल भूभाग है। यहाँ पर रहनेवाले सभी गोंडीयन संस्कृति के वारिस है।”[3] गोंडो
के धर्म गुरु पारी कुपार लिंगो हैं जिन्होंने ‘कोया धर्म’ की स्थापना की है। इस
धर्म में ‘परसापेन’ तथा ‘बड़ादेव’ उनके अराध्य देवता हैं। गोंड जनजाति के सांस्कृतिक
इतिहास में गोंदिया जिले के महत्त्व को भूला नहीं जा सकता क्योंकि सालेकसा दरेकस
के नजदीक बसे हुए कचारगढ़ की गुफाओं का सीधा संबंध गोंड संस्कृति से है। ये गुफाएँ एशिया
की सबसे बड़ी जनजातीय गुफाएँ मानी जाती हैं। जिसके कारण गोंडी संस्कृति की पहचान
बनी। कचारगढ़ भूमि की प्राचीनता पर लिखा है “कचारगढ़ अतिप्राचीन पवित्र भूमि और
लिंगो बाबा का महानकार्य, आदिवासी समाज की प्रथा पूरे देश और दुनिया को दी हुई
बहुत बड़ी देन हैं।”[4]
कोया धर्म में आदि देवताओं को चार, पांच, छह, सात सगाओं में विभक्त किया गया है।
इन्हीं गोत्रों के आधार पर गुरु 'पारी कुपार लिंगो' ने सगाओं की स्थापना की है। ये
गोत्र ‘टोटेमिस्म’ (totemism) के आधार पर बने हैं। ‘टोटेम’ यानी कि जो आदिवासी
समुदाय प्रकृति के सानिध्य में रहकर ईश्वर को प्राप्त करने के लिए प्रकृति सानिध्य
के विविध घटक पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, जीव-जंतु, नदी, पहाड़-पर्वत की पूजा करते हैं,
इसे ही ‘टोटम’ कहा जाता है। सन् 1791 में जे. लांज ने ‘टोटम’ शब्द पर अनुसंधान
किया। इसके अतिरिक्त जे. एफ. मैकमिलन ने ‘टोटमवाद’ को आदिम सामाजिक संस्था के रूप
में स्वीकार किया। “आदिवसियों के बीच टोटेमवादी गोत्र प्रणाली एक विशिष्ट गोत्र
समुदाय की एकता को मजबूत करता है और इसके साथ ही अन्य गोत्र समुदायों के अंतर्गत
इनकी गोत्र नियमों के माध्यम से एकता का निर्माण करता है।”[5]
बहुभाषीय
राष्ट्र भारत में आदिवासियों की स्वतंत्र भाषाएँ हैं। गोंडी लिपि प्राचीनतम लिपि
मानी जाती है। यह लिपि द्रविड़ियन भाषाई परिवार की है। सिंधु घाटी सभ्यता, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो
में जो भाषाई अवशेष प्राप्त हुए हैं, इन्हीं अवशेषों को कई इतिहासकारों ने ‘आदिम
गोंडी लिपि’ कहा है। ‘गोंड’ शब्द जातिवाचक न होकर समूहवाचक है। ये समूह गोंडवाना
भूप्रदेश में रहते हैं। गोंड जनजाति के शंकशेख ‘शिव’ माने जाते हैं। परंतु आज
बहुतांश जगहों पर आर्यों ने ‘शिव’ को अपना देव बना लिया है। गोंडवाना के इतिहास
में शिव के बारे कहा गया है कि “शिवलिंग या लिंग-पिंडम् जंगल के रहिवासी मानवों के
द्वारा की जाने वाली अतिप्राचीन पूजा की एक प्रथा है। आर्य आगमन के पूर्व से ही
गोंड लोग गुरु पारी कुपार लिंगों के स्मारक स्वरूप शिवलिंग की पूजा करते थे।”[6] गोंडवाना
के इतिहासकार कहते हैं कि भारत में 12 ज्योतिर्लिंग जो हैं वे वास्तव में गोंडी
धर्म के 12 धर्म गुरुओं के स्मारकों का स्वरूप है। गोंडी भाषा में इन्हीं
ज्योतिर्लिंगों को ‘परिड लिंगों’ कहा जाता है। लेकिन वर्तमान की बात की जाए तो
इन्हीं लिंगों पर ब्राह्मणों ने अपना अधिपत्य बनाया हुआ है। भारत में आदिवासियों
के बीच गोंड जनजाति की जनसंख्या लगभग 42% है। यह समुदाय महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और उड़ीसा आदि राज्यों में पाया जाता हैं। यह जनजाति ‘आस्ट्रेलाईट’
नस्ल की है।
[1]
कुमरे, मंसाराम. (2014). गोंडवंश का इतिहास एवं संस्कृति.
नागपुर : विश्वभारती प्रकाशन. पृ. 5
[2] कुमरे,
मंसाराम. (2014). गोंडवंश का इतिहास एवं संस्कृति. नागपुर : विश्वभारती प्रकाशन.
पृ. 2
[3] आत्राम उषाकिरण व ताराम, सुन्हेरसिंह. (2018). गोंडवाना में कचारगढ़ पवित्र
भूमि. रायपुर : वैभव प्रकाशन.पृ. 99
[4] आत्राम
उषाकिरण व ताराम, सुन्हेरसिंह. (2018). गोंडवाना में कचारगढ़ पवित्र भूमि. रायपुर :
वैभव प्रकाशन.पृ. 29
[5] विकास्पेडिया.(2020). आदिवासी चिन्ह एवं प्रतीक
विकास्पेडिया https://hi.vikaspedia.in/social-welfare/92d93e930924-915940-91c92891c93e92493f92f93e901/90692693f93593e938940-93890293894d91594392493f-914930-92a93092e94d92a93093e/90692693f93593e938940-91a93f92894d939-90f935902-92a94d930924940915. 2 फरवरी 2021 को देखा गया.
[6]
कुमरे, मंसाराम. (2014). गोंडवंश का इतिहास एवं संस्कृति.
नागपुर : विश्वभारती प्रकाशन. पृ. 80
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