झारखंड/रांची
आदिवासी समुदाय का मुख्य पर्व के रूप में सरहुल पर्व को आज बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। यह पर्व बैशाख या जेष्ठ महीने में मनाया जाता है। बैगा, तृतीया, पंचमी या फिर सप्तमी इन दिनों में से कोई भी दिन इस पर्व को मनाने के लिए तय किया जाता है। सरहुल शब्द को दो भागों में बांटा जाए तो सर एवं हूल ऐसा होता है। अर्थात् ‘सर’ का मतलब झारखंड में सरई या सखुआ वृक्षों की अधिक है। ‘हूल’ का अर्थ क्रांति, आंदोलन, प्रतिकार होता है। यह दोनों संताली और मुण्डारी भाषा के है। इस भाषा में सरहुल को ‘बाहा पोरोब’ भी कहा जाता है। इसी दिन शगुन विचार और आशीष का पानी छिड़काव होता है।
आदिवासी
समुदाय सरना स्थल के बीच गाँव के सभी लोगों के उपस्थिति में साल वृक्ष की पूजा की
करते हैं। इस पर्व की शुरुआत से ही झारखंड आदिवासी नए साल की शुरुआत करते हैं। साल
वृक्ष को ‘पाहन’ नामक पुजारी पूजा करते हैं। और इस साल में कितनी बारिश हो सकती है
इसकी भविष्यवाणी बताते हैं। इस दौरान मुर्गे की बलि दी जाती है। और सुख एवं
समृद्धि के लिए दुआ की जाती है। १५१ बार साल वृक्षों के चारों ओर सफ़ेद धागे को
लपेटते हैं। उसके बाद साल वृक्ष की पूजा करते हैं। सभी आदिवासी महिलाएं चावल, तेल,
नमक और हंडियां लेकर वृक्ष के पास आती हैं। आदिवासी रीति-रिवाजों के अनुसार गुंदली
चावल को साल वृक्ष पर सिर के ऊपर से पीछे की ओर से प्रसाद के रूप में देती हैं। और
फिर बाद में घर के सभी सदस्यों को प्रसाद के रूप में बाँट देती है। इस पूजा विधि
के बाद बैगा को कंधे पर बिठाकर एवं उसकी पत्नी को महिलाएं पीठ में बांध देती है और
उसके बाद बसेरा के यहाँ ले जाती हैं। सभी आदिवासी इस समय प्रकृति देवता को वर्षभर
में फसल अच्छी आने की कामना करते हैं। इसके बाद अखड़ा आदिवासी सांस्कृतिक नृत्य
प्रस्तुत होते हैं। इस प्रकार आज संपूर्ण आदिवासी बहुल झारखंड प्रदेश में सरहुल
त्योहार मनाया जा रहा है।
-Dr. Dilip Girhe
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