महाराष्ट्र के आदिवासी समूह : पावरा और भुंजिया
-Dr.Dilip Girhe
पावरा आदिवासी:
महाराष्ट्र के भील
आदिवासी समूह की एक उपशाखा ‘पावरा’ है। धुले जिले में इनका क्षेत्र आक्रानी,
शहादा, शिरपूर, और तलोदा आदि है। तो जलगाँव जिले के रावेर, यावल एवं चोपड़ा तहसील
में इनकी जनसँख्या मिलती हैं। पावरा आदिवासी समूह के मूल रहने के स्थान को ‘पावागड़’
कहा जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि कुछ
पावरा परिवार के आदिवासी ‘मथला’ संस्था से आये हैं। इसी वजह से उनको वहाँ के
स्थानिक लोग ‘मथवाड़ी’ नाम से संबोधित करते हैं। इनका जीविकोपार्जन का मुख्य
व्यवसाय खेत मजदूरी एवं जंगलों में मिलने वाला काम आदि है। वे प्रकृति पूजक है। प्रकृति
के सानिध्य में जितने भी संसाधन होते हैं। उसकी वे पूजा करते हैं। इनका मुख्य पर्व
‘इंदल’ है। इसके बावजूद वे अपनी पारंपरिक पद्धति से होली, दशहरा, दिवाली आदि
त्योहार भी मनाते हैं। ‘नाग दिवाली’ पर्व बड़े ही हर्षोल्लास के साथ वे मनाते हैं।
उनकी बोली भाषा ‘पावरी’ है। इसी भाषा में वे आपस में संवाद साधते हैं। इस समूह में
दहेज़, घरदामाद, विधवा विवाह जैसी सामाजिक प्रथाओं का प्रचलन भी मिलता है। मालवा प्रदेश के निवासी भोयर या पवार कहे जाते हैं। १२ शताब्दी में जब मुहम्मद घोरी ने वर्चस्व स्थापित किया था।
तब वहाँ से पलायन करके नागपुर क्षेत्र में पैनगंगा नदी के किनारे आकर रहने लगे।
वर्तमान में यह समूह भंडारा, नागपुर, अमरावती और चंद्रपुर जिलों के कुछ हिस्सों
में मिलता हैं।
भुंजिया आदिवासी:
अमरावती जिले के
मेलघाट, गढ़चिरोली, केलापुर, सिरोंचा, वनी, यवतमाल आदि क्षेत्र में यह समूह
प्रमुखतः से पाया जाता है। जब सन् १९७१ में जनगणना हुई थी तब इनकी संख्या २३० ही
पाई गई थी। बावजूद इसके यह समूह ओरिसा और मध्यप्रदेश में भी पाया जाता है। इनमें ‘चंखुलिया’
और ‘चिंदा’ दो गुट मिलते हैं। छत्तीसगढ़ की हिंदी और बैगाओं की भाषाई मिश्रण से वे
अपनी भाषा बोलते हैं। खेती और मजदूरी इनका प्रमुख काम है। इस समूह के भर भुंजिया,
भड भुंजे, भूंजवा, भुजवा, परदेशी भुजवा लाग नजदीक के बाजार में जाकर दाल, चना, भुने
हुए फूटना, मुरमुरा को भुनकर बेचते हैं। और अपनी जीवनयापन चलाते हैं। यह समूह का
मूल स्थान उत्तरप्रदेश, दिल्ली, भोपाल, मथुरा माना जाता है। नागपुर जिले में इनकी
संख्या अधिक मात्रा में मौजूद है।
इस प्रकार से पावरा और भुंजिया आदिवासी समुदाय का सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक परिवेश को हम समझ
सकते हैं।
संदर्भ:
डॉ.गोविन्द
गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती
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