मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

हिंदी एवं मराठी आदिवासी काव्य की पृष्ठभूमि || HINDI EVAM MARATHI ADIWASI KAVYA KI PRISHTHBHUMI

 


   

हिंदी एवं मराठी आदिवासी काव्य की पृष्ठभूमि

-Dr.Dilip Girhe

आदिवासी सभ्यता, संस्कृति और उनके अस्तित्व का इतिहास प्राचीनतम है। यह इतिहास आर्य-अनार्य इन दो संस्कृतियों के टकराव का द्वोतक है। इन्हीं दो संस्कृतियों में प्राचीनतम काल से आज तक संघर्ष जारी हैं। इस कारण आदिवासियों का गौरवशाली इतिहास संघर्षात्मक रहा है। आदिवासी जीवन-संघर्ष की पद्धति को जानने-समझने के लिए एक दृष्टि उनके इतिहास पर भी डालनी ज़रूरी है। आदिवासियों के गौरवशाली इतिहास के बारे में लिखा हैं कि “भारत पर आर्यों, तुर्कों, मंगोलों, हूणों, पारसियों, फ्रांसीसियों, मुसलमानों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने आक्रमण किया पर आदिवासियों ने कभी इसकी दासता स्वीकारी नहीं वे अपने देश और समाज की रक्षा के लिए मर मिटे पर झुके नहीं।”[1] तो दूसरी तरफ आदिवासी कवयित्री उषाकिरण आत्राम मराठी भाषा में आदिवासी का प्राचीन इतिहास व संस्कृति के बारे में लिखती हैं कि “आजचा भारत हा आदिवासींचा प्राचीन शंभुद्वीप आहे. शंभुद्विपात हजारों वर्षापासून वास्तव्य करणारे या भूमीचे मूळवंशज, मूळ वारसदार, मूळचे मालक म्हणजेच मूळनिवासी होय. शंभुद्विपातील मूळच्या आदिवासींची अतिप्रगत संस्कृती होती. त्यांची मूळची भाषा होती. त्यांचा लौकिक असा इतिहास होता. त्यांचा धर्म व संस्कृती स्वयंपूर्ण व निसर्ग परिक्रमावर आधारित निसर्गवादी होती. संघटन, सामाजिकहित, समता, बंधुता, न्यायप्रियता, सत्यवादी, एकवचनी, इमानदारी, परोपकारी समाजहित, समाजसुरक्षितता, निसर्गवादी वस्तुनिष्ठता वास्तववादी विचार व आदर्श तत्वज्ञान तसेच मातृशक्ती पूजक समाजव्यवस्था होती[2] (आज का भारत आदिवासियों का प्राचीन शम्भूद्विप है। शम्भूद्विप में हजारों वर्षों से निवास करने वाले इसी भूमि के मूलवंशी, मूल वारिसदार व मालिक यानि मूलनिवासी हैं। शम्भूद्विप के मूलनिवासियों की प्रगतशील संस्कृति थी। उनकी मूल मातृभाषा थी। उनका गौरवशाली इतिहास था। उनका धर्म व संस्कृति स्वयंपूर्ण व प्रकृति पर निर्भर प्राकृतिक थी। संगठन, सामाजिक हित, समाज सुरक्षितता, प्रकृति सहचरवादी विचार, आदर्श तत्वज्ञान और मातृशक्ति पूजक समाज व्यवस्था थी।) इन सभी बातों से स्पष्ट होता है कि आदिवासियों का प्राचीन काल से लेकर आज तक का इतिहास अपने आप में गौरवशाली है। इस इतिहास का अपना अलग-सा संघर्ष है। यह संघर्ष ही आदिवासियों की अस्मिता, संस्कृति, अस्तित्व और जल-जंगल-ज़मीन बचाने की लड़ाई है। प्रस्तुत शोध के दूसरे अध्याय में हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं का संक्षेप में परिचय के बाद इन कविताओं की प्रवृतियों के आधार पर आदिवासी जीवन संघर्ष प्रस्तुत किया है। इन्हीं प्रवृतियों में- आदिवासी अस्मिता पर संकट, बाहरी घुसपैठ, आदिवासी संस्कृति पर आक्रमण, आदिवासियों का प्रतिरोध और आदिवासी महिलाओं की स्थिति आदि महत्वपूर्ण हैं। ये सभी हिंदी-मराठी आदिवासी कविताओं की प्रवृतियाँ एक दूसरे पर परस्परावलंबी हैं। इन्हीं मुख्य प्रवृतियों को प्रस्तुत शोध के अध्याय एवं उप अध्यायों के रूप में आधार बनाकर स्पष्ट किया गया है।

भारतीय संस्कृतियों के पुनर्लेखन में अस्मिताओं के संघर्ष के इतिहास की अलग-सी पहचान है। इस संदर्भ में दिलीप मंडल लिखते हैं कि “भारत का लगभग साढ़े तीन साल हजार का इतिहास वर्ण तथा जाति संघर्ष, वर्चस्व और उनके ख़िलाफ़ विद्रोह का इतिहास रहा है। भारतीय इतिहास का केंद्रीय आख्यान यानि मैटा-नैरेटिव जाति और वर्ण है। इतिहास में होने वाली तमाम घटनाओं और सामाजिक जीवन और व्यवस्थाओं को जाति के इस महाआख्यान के आसपास देखा जा सकता है। इस मामले में भारत का इतिहास सरल और एकरेखीय यानि लीनियर भी है। सिंधु घाटी की विकसित शहरी सभ्यता में सामूहिकता के उत्सव (वे लोग सार्वजनिक स्नानागर में साथ नहाते थे और अनाज समूहिक भंडारण करते थे!) के अच्छे दिनों के बाद इस देश में जो कुछ हुआ, उसके केंद्र में आप जाति संघर्ष को एक निरंतरता में पा सकते हैं।”[3] इन बातों से समझ सकते हैं कि भारतीय अस्मिताओं का इतिहास कौनसा भी क्यों न हो इस इतिहास में शोषित व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का आवाज बुलंद रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता के विनाश के बाद अबतक जो भी अस्मिताओं के संघर्ष देखे गए हैं, उसमें आदिवासी अस्मिता का संघर्ष निरंतर चलता हुआ दिखाई देता है। बावजूद इसके हजारों वर्षों के प्रतिकार और संघर्ष के बाद भी आज आदिवासी साहित्य या इतिहास एक विज्ञान के स्वतंत्र विषय के रूप में दिखाई दे रहा है। आज आदिवासी साहित्य की मूल वैचारिकी और अवधारणा को समझने के लिए क्यों मुश्किलें आ रही हैं। इस कथन पर कवयित्री वंदना टेटे कहती हैं कि “आदिवासी समाज की तरह आदिवासी साहित्य का संघर्ष अब भी जारी है। एक स्वायत्त और स्वतंत्र विषय के रूप में स्थापित होने के क्रम उसे वैसे साहित्य का सामना करना पड़ रहा है, जिसका विषय तो आदिवासी है, पर साहित्य दर्शन और संस्कृति के अनुरूप नहीं है। सीधे शब्दों में कहे तो जिस आदिवासी साहित्य में आदिवासी दर्शन नहीं है। जिन्हें साहित्य कह कर प्रचारित, वाचित और पाठित किया जा रहा है। इनमें अधिकांश मूलतः और प्रथमतः आदिवासी लेखन नहीं है जिसके कारण आदिवासी साहित्य की सुस्पष्ट अवधारणा और वैचारिकी समझने में मुश्किलें आ रही हैं।”[4] मूलतः जिस आदिवासी साहित्य में आदिवासी जीवन संघर्ष की वैचारिकी, आदिवासी दर्शन, आदिवासी संस्कृति, आदिवासी अस्मिता संघर्ष, आदिवासियत की अवधारणा नहीं हैं उस साहित्य को हम आदिवासी साहित्य कैसे मान सकेंगे? यह प्रश्न भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की आज के दौर में आदिवासी साहित्य की महत्ता है। आदिवासी संस्कृति अपने जीवन में घटित विविध पहलुओं को स्पर्श तो करती हैं। संस्कृति एक जटिल इकाई है। इस पर ई. वी. टेलर कहते हैं कि “संस्कृति वह जटिल इकाई है जिसके अंतर्गत आचार-विचार, विश्वास, रीति-रिवाज, विधि-विधान एवं परम्पराएँ आती हैं। इसके अंतर्गत सभी समतायें एवं आदतें शामिल हैं।”[5] आदिवासी संस्कृति में जाति समानता, लिंग समानता, सहयोगिता, भाईचारा, सहभागिता, सामूहिकता और सबसे महत्वपूर्ण बात प्रकृति के साथ नज़दीकी संबंध और उसके प्रति आत्मसमर्पण है। इस संस्कृति की विशिष्टता उपयोगितावादी है तो उसकी वैचारिकी ‘जियो और जीने दो’ वाली है। इस संदर्भ में लिखा हैं कि “उपयोगिता के साथ-साथ इनकी कार्य योजना सामूहिक सहयोगिता एवं अनुशासन पर टिकी हुई है। प्रकृति का नियम है कि ऐसी व्यवस्था जातीय मानसिक एवं स्वाभाविक गठन को प्रभावित करती है। आदिवासी चेतना के अंतर्भाव में प्रकृति के नियम के अंतर्गत संग्रह की अपेक्षा त्याग, प्रतिशोध की अपेक्षा दया, क्षमा आदि का महत्वपूर्ण स्थान है।”[6]

कवि भुजंग मेश्राम सन् 1967 में हुए आदिवासी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय व्यक्तव्य पर भाषण देते हुए कहते हैं कि “महाराष्ट्रातील आदिवासी कविता आपल्या भाषेसाठी अजूनही संघर्ष करते आहे.”[7] (महाराष्ट्र की आदिवासी कविता अपनी भाषा के लिए आज भी संघर्ष कर रही है।) किसी भी साहित्य की भाषा उस साहित्य की पहचान होती है। उसी भाषा के माध्यम से ही संस्कृति के विविधता के दर्शन होते हैं। आदिवासी कविता की अभिव्यक्ति संघर्षशील है। इस पर डॉ. सुधाकर बोथीकर लिखते हैं कि “ज्याप्रमाणे आदिवासी कविता क्रांतीची आहे. तशीत ती संघर्षशील आहे. आदिवासी जंगलात, निसर्गात राहत असताना त्याला अनेक वेगवेगळ्या संकटांना सामोरे जावे लागले. त्यांचा संघर्ष भाकरीसाठी, आरोग्यासाठी, डोक्यावरील छत्रासाठी आहे. त्यांच्या प्राथमिक गरजा पूर्ण करण्यासाठी आणि माणुसकीसाठी, स्वातंत्र्यासाठी आहे.[8] (जिस तरह से आदिवासी कविता विद्रोही है। उसी तरह से वह संघर्षशील भी है। आदिवासी जंगलों एवं प्रकृति के सानिध्यों में रहते समय उनको अनेक संकटों का सामना करना पड़ा है। उनका संघर्ष जीवनयापन के विविध संसाधनों, उनकी प्राथमिक ज़रूरतें  पूरी करने के लिए इंसानियत और स्वतंत्रता के लिए रहा है।) इसी प्रकार से हिंदी और मराठी की आदिवासी कविताएँ ‘आदिवासियत’ के हर एक विविधताओं को प्रस्तुत करने में कामयाब होती हुई दिखाई दे रही है। कविता की परिभाषा ‘कविता’ में देने वाली कवयित्री निर्मला पुतुल लिखती हैं-

“कविता अभिव्यक्ति का माध्यम है

कविता थके-हारे आदमी का

एकांतालाप है,

कविता एक विरह गीत है

कविता यात्रा का एक पड़ाव है

कविता एक नदी है जिसमें कवि

अपना दुःख प्रवाहित करता है।

कविता एकांत का वह बंद कमरा है

जिसकी चाबी गुम हो गई है

कविता दर्दनिवारक टिकिया है

जिससे वक्त-बेवक्त राहत मिलती है

कविता भाषा की थकी-हारी यात्रा है

जिसमें हर कवि यात्रा करता है

लेकिन मंजिल तक पहुँच नहीं पाता है।”[9]

उपर्युक्त निर्मला पुतुल की कविता की पक्तियों पर कविता महाजन कहती हैं कि “स्वतःचे विचार, स्वतःच्या भावना, स्वतःची अभिव्यक्तीची तऱ्हा आम्ही वेगाने विसरत चाललो आहोत. आम्ही काय आहोत, आम्ही कसं असायला हवं हे आमची उपयुक्तता जोखून बाजार ठरवतो आहे. बदलाचा हा काळ संभ्रम वाढवणारा आहे. अशा काळात काही मुलभूत मूल्यव्यवस्था मांडणारे तत्त्वज्ञान फक्त आम्हांला तगवू शकेल, जे अजूनही आदिवासी जमाती कडे साबूत आहे.[10] (खुद के विचार, खुद की भावनाएँ, खुद की अभिव्यक्तियों की पद्धतियों को हम गति से भूतले जा रहे हैं। हम कौन हैं, हमें कैसे होना चाहिए यह हमें हमारी उपयुक्तता से समझना हैं। बदलता समय संभ्रमित करने वाला है। इसी समय में कुछ बुनियादी मूल्यों की स्थापना करने वाला दर्शन ही हमें बचा सकता हैं जो कि आज भी आदिवासी जनजातियों के पास हैं।)

आदिवासी की मूल दार्शनिक सांस्कृतिक पहचान की अवधारणा पर हिंदी के प्रथम आदिवासी विमर्शकार हेरोल्ड सैमसन तोपनो (सामू) कहते हैं कि “गैर आदिवासी समाज अपनी सांस्कृतिक अवधारणा में समन्वयवादी दृष्टिकोण की बात तो करता है पर यथार्थ में उनकी दृष्टि कई बिंदुओं पर बिलगाव की रही है। हमारी सांस्कृतिक अवधारणा में आदिवासी समाज के प्रति यह जो अलगाववादी और भ्रांत धारणा रही है, उसके कारण आदिवासियों का हमेशा से शोषण होता रहा है और आज तो शोषण का यह क्रम कई-कई रूपों में और कई-कई स्तरों पर मौजूद है।”[11] प्राचीन काल से आदिवासियों के साथ नस्लीय दृष्टि का भेदभाव होने के कारण उनको असभ्य, जंगली, बर्बर, राक्षस, वनवासी, दानव, असुर, पिछड़े हिंदू ऐसे कई नामों से उनकी पहचान इसिहास में की गई हैं। यह धारणा आधुनिक मूलनिवासियों के दिलों और दिमागों में जड़ जमाये बैठने के कारण मूलनिवासियों को उनकी सांस्कृतिक पहचान क्या है, यह पता ही नहीं है। इस कारण वे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता ख़ुद ही भूलते जा रहे हैं। मूलनिवासियों को असभ्य और जंगली कहना कितना तथ्यपूर्ण है, इस संदर्भ में कई यूरोपीय इतिहासकारों का यह कथन हैं कि “आर्यों के आगमन के पहले भारत के मूलनिवासी केवल असभ्य और जंगली थे, अधिकांश में भ्रमात्मक और निस्सार है।”[12]

आदिवासियों के साथ हो रही नस्लीय घृणा, उत्पीड़ित और भेदभाव पर हेरोल्ड सैमसन तोपनो ने अपनी ऐतिहासिक ख़ोज में ऋवैदिक समाज से लेकर वर्तमान समाज तक के विकासक्रम का अध्ययन किया है। इन अध्ययन परीक्षण के दौरान उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला है, उसे बताते हैं “कैसे कुछ लोगों ने और उनकी तथाकथित सभ्यता ने आर्थिक लाभ और वर्चस्व के लिए आदिवासियों पर हमले किए तथा उन्हें पूरी तरह से नेस्तनाबूद कर देने के लिए सांस्कृतिक जनसंहार की प्रक्रिया लगातार चलाते रहें। दर्शन, इतिहास, शिक्षा, कला-साहित्य आदि के सभी आयामों का उन्होंने अपने ढ़ंग से इस्तेमाल किया और उसे तोड़ा-मरोड़ा। इतिहास, संस्कृति और दुनियाभर के लोक व उसकी ज्ञान परंपरा को समझने-जानने व साझा करने का अभियान था।”[13] आज विश्व के किसी भी कोने में आदिवासी क्षेत्रों का अध्ययन किया जाए तो उस अध्ययन से यह साबित होता है कि आदिवासियों को जब-जब उपनिवेश बनाया गया है तब-तब उनको अपनी अस्मिता, संस्कृति और अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष या प्रतिरोध करना पड़ा। इस संघर्ष में जीतनी पुरुषों की भागीदारी थीं उतनी ही महिलाओं की भी भागीदारी थीं। जैसे-आस्ट्रेलिया के लगभग सभी आदिवासी समुदायों ने, उत्तर अमेरिका के पुयेब्रो आदिवासियों ने, न्यूजीलैंड के माऊरी आदिवासियों ने प्रतिरोध किया हैं। कवयित्री वंदना टेटे आदिवासी साहित्य से तात्पर्य बताती हैं कि “आदिवासियों का जीवन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ है।”[14] अगर साहित्य आदिवासी समुदायों की जीवन पद्धति, संस्कृति, अस्मिता  एवं उनके अस्तित्व के अनुसार नहीं है तो इसे हम आदिवासी साहित्य नहीं कह सकते हैं। आदिवासी कविता की अभिव्यक्ति पर डॉ. सुधाकर बोधीकर लिखते हैं कि “आदिवासी कविता ही वेदाची नसून वेदनेची आहे. आदिवासींच्या सुख-दु:खाचे संदर्भ वेगळे आहेत, म्हणून आदिवासी कवितेचा प्रवाह इतर कवितांच्या प्रवाहाच्या तुलनेत वेगळा ठरतो आदिम जाणीव, दुखणे घेऊन येतो. या व्यथा-वेदनांची अभिव्यक्ती सुरुवातीला प्राथमिक स्वरुपात व विखुरलेपणाने निर्माण झालेली दिसते.[15] (आदिवासी कविता यह वेदों की नहीं बल्कि वेदनाओं (दर्द) की हैं। आदिवासियों के सुख-दुखों के संदर्भ कुछ अलग ही हैं। इसलिए आदिवासी कविताओं का प्रवाह अन्य कविताओं की प्रवाहों की तुलना में अलग होकर वह आदिम एहसासों एवं दुखों को लेकर आता है। यह दर्द एवं दुखों की अभिव्यक्ति की कहानी शुरुआती दौर से प्राथमिक रूप में बिख़री हुई दिखाई दे रही है।) इस प्रकार हिंदी-मराठी आदिवासी काव्य में आदिवासी जीवन संघर्ष को जानने-समझने से पूर्व उपर्युक्त सभी बिंदुओं का अध्ययन करना ज़रूरी समझा हैं।



[1] सागर, एस, एल. (1977). आदिनिवासी और उनका संघर्ष. मैनपुरी, उत्तरप्रदेश : सागर प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 11

[2] मुनघाटे, डॉ, प्रमोद. (सं.). (2007). आदिवासी मराठी साहित्य स्वरूप आणि समस्या. पुणे : प्रतिभा प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 67 

[3] कठेरिया, कमल किशोर. (2015). भारतीय संस्कृति का पुनर्लेखन अस्मिताओं का संघर्ष. नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. (प्राक्कथन से)

[4] टेटे, वंदना. (सं.). (2016). आदिवासी दर्शन और साहित्य. दिल्ली : विकल्प प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 9

[5] गुप्ता, रमणिका. (सं.). (2008). आदिवासी कौन. नयी दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 37

[6] गुप्ता, रमणिका. (सं.). (2008). आदिवासी कौन. नयी दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 38

[7] रोंगटे, तुकाराम. (2011). आदिवासी आयकॉन्स. पुणे : संस्कृती प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 234

[8] बोथीकर, डॉ. सुधाकर पंडितराव. (2013). आदिवासी कविता रूप आणि बंध. औरंगाबाद : किर्ती प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 136

[9] पुतुल, निर्मला. (2014). बेघर सपने. पंचकूला, हरियाणा : आधार प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 25 

[10] तुमराम, डॉ. विनायक. (2015). गिरीकुहरातील अग्निप्रश्न. नागपूर : ऋचा प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 180

[11] पंकज, अश्विनी कुमार. (सं.). (2015). उपनिवेशवाद और आदिवासी संघर्ष. दिल्ली : विकल्प प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 15

[12] बोधानंद, भिक्खु. (2009). मूल भारतवासी और आर्य. नई दिल्ली : सम्यक प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 93

[13] पंकज, अश्विनी कुमार. (सं.). (2015). उपनिवेशवाद और आदिवासी संघर्ष. दिल्ली : विकल्प प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 16

[14] टेटे, वंदना. (सं.). (2016). आदिवासी दर्शन और साहित्य. दिल्ली : विकल्प प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 10

[15] बोथीकर, डॉ. सुधाकर पंडितराव. (2013). आदिवासी कविता रूप आणि बंध. औरंगाबाद : किर्ती प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 145

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