बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जानिए कुछ आदिवासी अस्मिता के बदलते संदर्भ-Janiye Kuch Aadiwasi Asmita Ke Badalate Sandarbh



आदिवासी अस्मिता के बदलते संदर्भ

-Dr. Dilip Girhe

प्रस्तावना:

विश्व में भारत का उल्लेख सर्वाधिक जनजातीय घनत्व वाले देश के रूप में किया जाता है। आज भारत में 635 आदिवासी जनजातियाँ निवास करती हैं। देश की कुल आबादी का 8.08 फीसदी हिस्सा आदिवासियों का है। जनसंख्या की दृष्टिकोण से इस भूमि पर 10 करोड़ से भी अधिक आदिवासी लोग रहते हैं। आप भारत के किसी भी कोने में चले जाकर क्षेत्र भ्रमण करिए, आपको आदिवासी समुदाय के लोग दिख ही जायेंगे। पहाड़ पर, पहाड़ की तलहटी में, घाटीयों में, गिरीकंदरों में रहते हुए यह समाज सदियों से अपना अस्तित्व बनाए हुए मिलता है। आज भी यह समाज अपनी अस्मिता एवं अस्तित्व बचने के लिए संघर्ष कर रहा है। यह समाज प्रकृति के हर एक नैसर्गिक का सामना कर रहा है। जैसे कि गर्मी, हवा, बारिश, जलधाराओं और समय के क्रूर प्रहारों को सहते हुए अपने तरीके से अपना जीवन जी रहा है। यह कहना मुश्किल है कि इस समाज की जीवन यात्रा कहां से शुरू हुई। किंतु उन्होंने जो संघर्ष किया है वह बहुत कठिन रहा है।

आदिवासी और आधुनिकता:

आदिवासी आदमी भारतवर्ष के चाहे कौनसी भी दिशा का रहनेवाला क्यों न हो उसकी अपनी खास विशेषताएं रही है। का हो या पश्चिम का, उत्तर का हो या दक्षिण का, उसमें कुछ खास विशेषताएं देखने को मिलती हैं। यह व्यक्ति स्वभाव से सरल-सीधा, ईमानदार, शुद्ध और निश्छल और मेहनती हैबढ़ रहा है। वह प्रकृति के सान्निध्य में प्रकृति की भाँति पवित्र जीवन जीता है। वह आधुनिक दुनिया के किसी व्यक्ति की तरह पद, धन और प्रतिष्ठा का आनंद नहीं लेता है। इस आदमी के पास हाथ से पत्ते तोड़ने और खाने तथा प्रकृति के सानिध्य में जी भर कर जीवन का आनंद लेने के अलावा कोई बड़ा सपना नहीं है। यह आदमी बिल्कुल हानिरहित है। आधुनिक समाज में पाई जाने वाली बुराइयाँ जैसे आक्रामकता, अहंकार, अथाह धन का संचय, शोषण, क्रूर रणनीति, कपटपूर्ण लूटपाट, स्वार्थ, हिंसा आदि आदिवासी समाज में अनुपस्थित हैं। इस समाज की अपनी सामाजिक व्यवस्था है जो प्राचीन काल से चली आ रही है। एक संस्कृति है. इसकी एक अलग पहचान है-पहचान. लेकिन दुर्भाग्य से आदिवासियों की इस शुद्ध और पवित्र पहचान को समय के साथ कई बार कुचला गया है। आज आदिवासी शब्द और कथित सभ्य समाज का अपमान हो गया है। तो आप पहचान के साथ क्या करते हैं?

बार-बार अस्मिता में बदलाव:

आदिवासी पहचान पर विचार करते समय, यह विचार करना महत्वपूर्ण है कि क्या आदिवासी लोग समझते हैं कि उनकी पहचान क्या है? नब्बे के दशक में अमरावती में महाराष्ट्र आदिवासी साहित्य परिषद की बैठक हुई थी। आदिवासियों की पहचान क्या है, इस पर चर्चा हुई। चर्चा शुरू होने से पहले, कई लोगों ने पहचान शब्द का अर्थ पूछा। उस समय यह अहसास हुआ कि एक पढ़ा-लिखा आदिवासी व्यक्ति पहचान शब्द का मतलब नहीं जानता। फिर पहचान की तलाश और उसके लिए संघर्ष तो दूर की बात है। इसलिए, पहचान क्या है और आदिवासी पहचान कैसे बदली है, इस संबंध में इस बिंदु पर थोड़ी चर्चा करना आवश्यक लगता है। साथ ही चेकिंग भी की जा रही है।पहचान को 'पहचान' 'अस्मिता' जैसे सरल शब्द में परिभाषित किया जा सकता है। लेकिन जब यह शब्द हाशिये पर पड़े समाज पर लागू होता है, तो इसका अर्थ निश्चित रूप से व्यापक हो जाता है। जैसे कि एक समाज अपने लंबे अस्तित्व के बाद अपने रीति-रिवाजों, परंपराओं, भाषा, कला, संस्कृति, धर्म, विचार, सामाजिक संगठन, पोशाक, रीति-रिवाज, संस्कार आदि के माध्यम से अपनी पहचान की एक अलग पहचान बनाता है और यही उसकी 'पहचान' है। समाज में हमने हजारों वर्षों से अपनी जीवन शैली से एक अलग पहचान बनाई है, जैसे ही हम किसी कला को देखते हैं, हमारे मुंह से निकल जाता है, 'ओह! यह आदिवासी कला है।' इसलिए आंध, गोंड, भील, परधान, माड़िया या किसी भी जनजाति की पहचान उसकी कला, संस्कृति, अस्मिता या अस्तित्व के विविध पहलू है। इसलिए आदिवासी को 'आदिवासी' या 'वनवासी' कहना यह उनकी पहचान पर एक प्रकार का अस्मितावादी संकट ही कह सकते हैं।
इस प्रकार से वर्तमान में आदिवासी अस्मिता के विविध संदर्भ बदलते जा रहे हैं। इनमें से कुछ तथ्य उपरोक्त बातों से समझ सकते हैं। 
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संदर्भ:
प्रा.माधव सरकुंडे-आदिवासी अस्मितेचा शोध

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