बुधवार, 3 अप्रैल 2024

झारखंड का बैगा आदिवासी समुदाय। JHARKHAND KA BAIGA AADIWASI SAMUDAY


 

झारखंड का बैगा आदिवासी समुदाय

-Dr.Dilip Girhe 

झारखंड में बैगा आदिवासियों का निवास क्षेत्र रांची, हजारीबाग एवं पलामू है। भुइयाँ आदिवासियों की एक शाखा बैगा आदिवासी है। छोटानागपुर के प्रदेश में पाए जाने वाले भुइयाँ आदिवासी पुजारी के रूप में कार्य करते हैं। कई मानव वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि बिहार राज्य में पाए जाने वाले आदिवासी लोग बहुत कम मात्रा में मिलते हैं। रिजले का कहना हैं कि बैगा आदिवासियों के पास तांत्रिक व वैद्यकीय विद्या होती है। छोटा नागपुर में पाए जाने वाले खरवार आदिवासी समुदाय का यह एक टायटल भी है। छोटा नागपुर एवं मिर्जापुर के भुइयाँ आदिवासी सामान्यतः समाज दिखाई देते हैं। उन्हें ही 'बैगा आदिवासी' कहा जाता है। प्राकृतिक देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बैगा आदिवासी प्रकृति की पूजा करते हैं। गोंड, खरवार, घासिमा आदिवासियों जैसे ही इनका धार्मिक जीवन होता है। इनके गाँव का एक प्रमुख मुखिया भी होता है। वर्तमान संदर्भों पर बात की जाए तो बैगा आदिवासी अपनी मूल भाषा लगभग भूल गए हैं। कुछ बुजुर्ग लोगों ने उनकी भाषा को जीवित रखा है। परिणामस्वरूप यह आदिवासी समुदाय पहाड़ियों के संपर्क में आने की वजह से उनकी ही भाषा बोलते हैं। 

भरोटीया, नरोटीया, राम मैना, बिंझवार, कोंड़मान, कठमैना तथा गोंड़ या बैना इन सात प्रमुख शाखाओं में बैगा आदिवासी समुदाय बंटा हुआ है।  परन्तु इनमें से बिंझवार, नरोटीया और भरोटीया इन तीन समूह के ही संदर्भ मिलते हैं। वर्तमान प्राप्त संदर्भ से ज्ञात होता है कि बिंझवार आदिवासी लगभग गैर-आदिवासी लोगों के संपर्क में आए हैं। जिसका परिणाम यह दिखता है कि 'अस्मिताई संकट'। बिंझवार-नरोटीया-भरोटीया समुदायों रोटी-बेटी संबंध चलते हैं। बैगा आदिवासियों की शरीर कृष्ण वर्णीय और शरीर रूढ़ होते हैं। इन समुदाय में अपने सिर के बाल काटने की परंपरा नहीं है। वे बहुत दिनों तक बालों को बढ़ाते हैं और उसकी चोटी बनाते हैं। वर्ष में कुछ गिने-चुने अवसरों पर ही वे अपने बाल काटते हैं। इनके गाँव सघन वन वन क्षेत्रों में -छोटे समूह में बसे हुए होते हैं। वे दैनंदिन जीवन में कंदमूल, मोटे-मोटे अनाज और मांस खाते हैं। कुछ खास पर्व-त्योहार के अवसर पर सूअरों की बलि चढाने की परंपरा है। उनके प्रमुख भोजन पदार्थों में चावल, ज्वार, और मक्का आदि है। 

बैगा आदिवासी समुदाय खेती जोतते समय हल का प्रयोग नही करते हैं। क्योंकि उनका कहना है कि जमीन पर हल चलाने से धरनी माता के छाती पर घाव होता है और उससे धरनी माता दुखी होती है। इनकी खेती 'बैवार कृषि' के नाम से प्रचलित है। वे समतल वृक्षों पर छोटे-छोटे पेड़ को काटकर खेती लायक जमीन तैयार करते हैं। कुछ दिनों बाद उन वृक्षों को जलाकर खेती लायक समतल मैदान तैयार करते हैं। बाद में उस जमीन पर मक्का, बाजरा, चावल जैसे मोटे अनाज बीज बोए जाते हैं। बैगा आदिवासियों की विवाह व्यवस्था देखी जाए तो विधवा विवाह, हठ विवाह, लयसेना विवाह की परम्पराएं प्रचलित हैं। यह आदिवासी समहू जंगली, पहाड़ी प्रदेशों के नजदीक ही अपने छोटे-छोटे कस्बे बनाते हैं। जिससे उनको खेती करने के लिए सुविधाजनक होता है। १९९१ के प्राप्त जनगणना के आंकडें हमें ज्ञात कराते हैं कि उनकी आबादी ३५५१ है। इसमें पुरुष १७९४ और महिलाएं १७५७ है। जो की कुछ आदिवासी समुदाय की आबादी के ०.०७ प्रतिशत कह सकते हैं। 

इस प्रकार से बैगा आदिवासी समुदाय के बहुत से सांस्कृतिक पड़ाव है। जिसको एक शोध के माध्यम से खोजा जा सकता है।   

संदर्भ-झारखंड एन्साइक्लोपीडिया खंड-४    

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