शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

झारखंड के शबर आदिवासी समुदाय की महत्वपूर्ण जानकारी !! JHARKHAND KE SHABAR AADIWASI SAMUDAY KI MAHATPVPURN JANKARI



झारखंड के शबर आदिवासी समुदाय की महत्वपूर्ण जानकारी 

-Dr.Dilip Girhe 

विषय एवं क्षेत्र 
    शबर आदिम आदिवासी समूह झारखंड के अल्पसंख्यक में आता है। इस समूह का इतिहास प्राचीनतम एवं गौरवशाली है। पौराणिक संदर्भों की पड़ताल की जाये तो त्रेता युग में शबर जाति का अस्तित्व पाया गया है। वेद ग्रंथों में भी शबर जाति के संदर्भ मिलते हैं। इनके जीवनयापन पर चर्चा की जाये तो रहने के लिए कुटियों की झोपड़ी, उसे बांस से बनी टोकरियाँ, तीर-धनुष्य उनके साथ होता है। रामायण काल में शबरों का अस्तित्व चुनार के जंगलों से लेकर मध्यप्रदेश के चम्बल तक फैला था। यह समूह खेती नहीं करता था। कंदमूल, फल एवं मधु इनका मुख्य आहार कहा जाता है। शबर और हिल खड़िया आदिवासी के बीच विवाद है। डॉ. व्ही. एस. उपाध्याय ने अपनी में कुछ संदर्भ बताते हैं कि इस समूह की जनसंख्या घटने बढ़ने के कारण कई विमर्श, तर्क वितर्क सामने आये हैं। हिल खड़िया शबर एवं शबेर एक ही जनजाति के है जो की खड़िया जनजाति के तीन उपवर्गों में से एक है। जो हिल खड़िया आदिवासी समुदाय है वह अपने सरनेम शबर रखते हैं। 
    मानव वैज्ञानिकों ने माना है कि शबर आदिवासी हिल खड़िया, शबर या पहाड़ी खड़िया की ही एक समूह है। यह उनकी अस्मिता से पता चलता है। झारखंड के पूर्वी सिंहभूम क्षेत्र में यह समुदाय बसा हुआ है। सन् १९३१ में टी.सी. दास ने इनको धालभूम के जंगली खड़ियानाम से संबोधित किया है। इस समूह का क्षेत्र सिंहभूम, मिदनापुर, मयूरगंज, बेनाई, क्योंझर, धेनकनाल तक फ़ैल हुआ है। इसमें से कुछ क्षेत्र पश्चिम बंगाल और उड़िया राज्य में भी आते हैं। शबर आदिवासी समुदाय की बोली भाषा मुंडारी समूह की ही है। परंतु धालभूम मंडल के आदिवासी कुछ हद तक अपनी भाषा भूल चुके हैं। वे थोड़ी बहुत उड़िया शब्द मिलकर बंगला बोलते हैं। घाटशिला क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समहू मुंडा, हो, संताल लोगों पर बंगला भाषा का प्रभाव पड़ने के कारण वे बंगला ही बोलते हैं। परंतु शबरों के बोलचाल में मयूरभंज क्षेत्र के उड़िया शब्द उनके बोलचाल में दिखते हैं।  
शबर आदिवासी की सामाजिक गतिविधियाँ:

    वैसे तो शबर आदिवासी चार भागों में विभक्त के संदर्भ मिलते हैं। किंतु तीन नामों से ही वे प्रचलित हैं। जैसे कि-जाहरा, बासु और ज्यतापति। जाहरा समूह धालभूम अनुमंडल में रहता है। बाकि समूह मयूरभंज उड़ीसा में पाए जाते हैं। इनकी विवाह प्रथा सजातीय है। इनमें गोत्र मिले हैं। इसी वजह से विवाह रिश्तेदारी से होते हैं। मातृपक्ष को महत्त्व दिया है। कहींकहीं जगह पर बाल विवाह भी मिलते हैं। शादी के बाद कन्या दो दिनों के बाद अपने पिता के घर लौटती है। विवाह का प्रस्ताव लड़के वालो से होता है। फागुन और बैशाख माह में इनके विवाह संपन्न होते हैं।

    इस प्रकार से शबर आदिवासी समुदाय के सामाजिक व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों हम बात कर सकते हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं: