महाराष्ट्र का भील समुदाय और उनकी सांस्कृतिक विरासत
-Dr.Dilip Girhe
प्रस्तावना:
महाराष्ट्र आदिवासी बहुल प्रदेश में अनेक समूह अपना जीवनयापन करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण आदिवासी समूह में से भील आदिवासी महाराष्ट्र का प्रमुख समूह माना जाता है। इस समुदाय के अनेक पर्व-त्योहार एवं सामाजिक प्रथाएं प्रचलित हैं। इस पर्वों एवं त्योहारों में होली, गांडी दिवाली एवं भगोरिया महत्वपूर्ण हैं। साथ ही उनकी पंचायत व्यवस्था भी काफी मजबूत मिलती है।यह पर्व त्योहार और उनकी व्यवस्था उनकी सांस्कृतिक विरासत की पहचान है। इन सभी संदर्भों एवं तथ्थों की जानकारी हम प्रस्तुत लेख के माध्यम से जानने की कोशिश करेंगे।
होली पर्व:
महाराष्ट्र के भील आदिवासी का होली पर्व कुछ अनोखे रूप से मनाया जाता है। यह पर्व आने के पूर्व ही उनके मन में इस पर्व की धूम मच जाती है, वे एक माह पहले ही पहाड़ों पर चले जाते हैं और 'होली' तोड़कर गांव में ले आते हैं। लड़के-लड़कियाँ मैदान, जंगल या जहाँ भी जा रहे हों, गाने गाते-जाते रहते हैं। रात में वे ढोल बजाते हैं बजाकर नृत्य करते हैं। लड़के और लड़कियाँ एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नाचते-गाते हैं। जैसे-जैसे होली नजदीक आती है, वैसे-वैसे उनका उत्साह बढ़ने लगता है। महिलाएं अपनी टोलियां बनाकर गांव-गांव जाकर ‘फाग’ मांगती हैं, पुरुष भी होली से पहले ‘गेर’ बनवाते हैं। वे अलग तरह के कपड़े पहनते हैं। वे एक गांव से दूसरे गांव जाकर खाना मांगते हैं, नाचते हैं, कूदते हैं और आनंदित होते हैं। वे होली के दौरान हर दिन नृत्य करते हैं, किन्तु थकते नहीं। इस पर्व में वे इतने धुंधले हो जाते हैं कि उनका दिन कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता।
होली से दो सप्ताह पहले लगने वाले साप्ताहिक बाजार को 'गुलल्या' बाजार कहा जाता है। इस बाजार में जवान लड़के-लड़कियां एक-दूसरे का मजाक उड़ाते हैं। उसमें कुछ भी ग़लत नहीं माना जाता क्योंकि यह पर्व हर्षोल्लास का होता है। साथ ही भील आदिवासी समुदाय के संस्कृति का हिस्सा माना जाता है। 'गुलल्या' बाजार को देखने लोग दूर-दूर से आते हैं, दिन भर आनंद महसूस करके शाम को युवा लड़के-लड़कियां कब घर पहुंच जाते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता। 'गुलल्या' बाजार के बाद जो बाजार लगता है, उसे 'भगोरिया' बाजार कहा जाता है। भील गाँव से ढोल और विभिन्न वाद्ययंत्र इस बाज़ार में लाते हैं। हर गांव की अलग-अलग लोग यहाँ आते हैं। प्रत्येक गाँव का मुखिया उस गाँव का ‘पुलिस पाटिल’ होता है। उस बाजार में मेला लगता है। ढोल के आसपास लोगों की भारी भीड़ लगी रहती है। पुरुष और महिलाएं लड़के-लड़कियां और बूढ़े लोग अलग-अलग रंग-बिरंगी पोशाकें पहनकर इसे सजाते हैं। वे बस खुश हैं। वे ढोल की थाप पर नाचते हैं। जैसे देखने वाले देखते रह जाते हैं। वे भी उसमें एक सुखद आनंद पाते हैं। जैसे-जैसे होली नजदीक आती है, इस लोगों का उत्साह असहनीय हो जाता है। वे बेहोश हो जाते हैं और होली के दिन होली के आसपास तरह-तरह के वाद्ययंत्र बजाते हैं और पूरी रात नाचते हैं। होली प्रातःकाल जलाई जाती है। होली की पूजा के बाद मीठा भोजन बनाया जाता है और पांचवें दिन बकरे और मुर्गियों बलि चढ़ाई जाती है। भील आदिवासी समुदाय इस में ‘हंडिया’ का सेवन करते हैं।
गांडी दिवाली पर्व :
भीलों का एक और त्यौहार है 'गांडी दिवाली'। आदिवासियों की दिवाली रात को दरवाजे पर माला लटकाकर पटाखे जलाना दिवाली नहीं है। राजापना-गंडा ठाकुर और रानी काजल के नाम पर 'गांडी दिवाली' दिवाली देवी-देवताओं के नाम पर इस दिवाली के दौरान आदिवासी रात भर पारंपरिक नाटक करते हैं। ये दिवाली सुबह की है। हर गांव में अलग-अलग दिन दिवाली मनाई जाती है। इनमें बकरियों और मुर्गियों को खरीदने की लागत का भुगतान गांव के लोगों द्वारा चंदा इकट्ठा करके किया जाता है। हाल ही में इस दिवाली का स्वरूप बदल गया है। पहले आदिवासी लोग आस-पास के गाँवों में प्रस्तुत करते थे। ये आदिवासी बोली में प्रस्तुत किये जाते थे। नाटक के माध्यम से वे अपनी कला को दिखाते थे। अब हमें नाटक लाने के लिए पैसे देने पड़ते हैं। बेशक ये बेशक ही नाटक आदिवासियों की भाषा और संस्कृति के वाहक है। इन नाटकों को हजारों लोग रात भर देखते हैं। ठंड के दिन होने पर भी उन्हें नहीं लगता कि ठंड है। इस दिवाली को देखने के लिए लोग दूर-दूर से पैदल या बैलगाड़ी से आते हैं। जब यह तय हो गया कि उनके गांव में दिवाली अमुक दिन है, तो गांव के सबसे गरीब आदिवासी दिवाली मनाने के लिए अपना बजट तैयार करने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं। दिवाली के दिन उनके घर अलग-अलग गांवों से रिश्तेदार आते हैं। वे उनके लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार आदिवासी अपने पसंदीदा त्योहारों में गहराई से शामिल होते हैं। उनकी हर हरकत में त्योहार का उत्साह झलकता है।
भगोरिया पर्व:
संपूर्ण भारतवर्ष में होली अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है। आदिवासी समुदाय भी यह पर्व अपने संस्कृति के अनुसार मनाता है। होली के अवसर पर 'भगोरिया' मेला बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। यह मेला होली से पांच दिन पहले शुरू होता है और होली के पांच दिन बाद तक चलता है। यह मेला हर गांव में बाजार के दिन लगता है। सप्ताह में एक बार लगने वाला बाजार ‘भगोरिया’ के दिन अलग ही रूप धारण कर लेता है। पूरा वातावरण रंग-बिरंगे लोगों से भर जाता है। बांसुरी और ढोल की ध्वनि बजने लगती है। इस पर्व में आदिवासी लड़के-लड़कियाँ अपना जीवन साथी चुनते हैं। भगोरी शब्द का अर्थ 'भाग के ले जाना' है। कई उत्साही लड़के-लड़कियाँ अपने गाँव के साथियों के साथ बस, बैलगाड़ी या पैदल चलकर ‘भगोरिया’ के बाज़ार पहुँचते हैं। वे अपने पास मौजूद सबसे अच्छे कपड़े पहनकर आते हैं और बैलों को भीड़ से कुछ दूरी पर खुला छोड़ देते हैं। लड़के-लड़कियों को गुलाल लगाकर परेड कराई जाती है, लड़का अपनी पसंद की लड़की को गुलाल लगाता है। अगर किसी लड़की को कोई लड़का पसंद आता है, तो वह जीवन साथी बनने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर वे दोनों एक-दूसरे से बात करते हैं और वह यह सुनिश्चित करते हैं कि क्या वह उसे पसंद करती है। बांसुरी की धुन और ढोल की थाप पर नाचते-गाते हैं। शाम तक नाच-गाना चलता रहता है। शाम को जैसे ही होली जलती है, सभी पुरुष हाथों में तलवारें लेकर नाचते हुए, उछलते हुए आते हैं। एक आदमी जोर-जोर से ढोल बजाता है।
भील पंचायत व्यवस्था:
आमतौर पर पंचायतें स्थापित करने की प्रथा उन गाँवों में प्रचलित है जहाँ भील आदिवासी समुदाय बहुसंख्यक मात्रा में जीवनयापन करता हैं। यदि गाँव में किसी व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ हो, या दो व्यक्तियों में झगड़ा हो गया हो और बात बढ़ गई हो, तो जिस व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ है, वह अपने गाँव के प्रमुख व्यक्तियों को थाने में बुलाता है। ऐसे समय में पुलिस पाटिल, सरपंच, डायला (कार्यपालक) और कुछ प्रमुख व्यक्ति एक साथ इकट्ठा होते हैं, और दोनों विवादास्पद व्यक्तियों को बुलाया जाता है। दोनों पक्षों को सुनने के बाद सभी न्यायाधीशों के समक्ष अपराध की प्रकृति के अनुसार सजा की घोषणा करते हैं। पंच गठित करने के पीछे के कारणों में कृषि विवाद, शराब का दुरुपयोग, विवाहित महिला से छेड़छाड़, गैर-आपराधिक हमला, कृषि फसलों को नुकसान, मवेशियों को नुकसान, वैवाहिक टूटने की स्थिति में तलाक, झगड़े को तोड़ना या मामले में समझौता करना शामिल है। विभिन्न कारणों से होने वाले अन्याय का समाधान इस पंचायत का मुखिया करता है।
इस प्रकार महाराष्ट्र के भील आदिवासी समुदाय के विभिन्न पर्व एवं उनकी पंचायत व्यवस्था के कुछ संदर्भ यहाँ पर हम देख सकते हैं।
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महाराष्ट्र के आदिवासी समूह वारली आदिवासी
संदर्भ:
गोविंद गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती
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