महाराष्ट्र के आदिवासियों का सामाजिक एवं धार्मिक परिवेश
-Dr.Dilip Girhe
प्राकृतिक रीति-रिवाज:
भारतीय आदिवासी समुदाय के जितने भी रीति-रिवाज है वे प्रकृति के विविध घटकों से जुड़े हुए हैं। महाराष्ट्र के आदिवासियों के धार्मिक रीति-रिवाज भी ऐसे ही मिलते हैं। वे प्रकृति के हर एक रहस्यमयी घटक का आदर करते हैं। वे आकाश में चमकने वाली ‘बिजली’, या ‘सूर्य’, ‘चंद्रमा’, ‘तारे’, ‘बादल’, ‘विशाल वृक्ष’, ‘बाघ’, ‘शेर’, ‘सांप’, ‘बिच्छू’ जैसे प्राकृतिक सजीव-निर्जीव वस्तुओं और जानवरों की पूजा करते हैं। इनमें ‘हिरवा’, ‘हिमाई’, ‘पीरसापेन’, ‘बड़ादेव’, ‘वाघदेव’, ‘चीता’, ‘डोंगरदेव’, ‘वनदेव’, ‘गावदेव’, ‘कंसारी’, ‘धारतारी’ और ‘नारानदेव’ आदि उनके देवता पाए जाते हैं। आदिवासी अपने पूर्वजों एवं बुजुर्गों को देवता मानते हैं। कछु-कुछ आदिवासी समुदायों में अंधविश्वास दिखता है। वे कभी-कभी भूत-पिशाच को भी देवता मानने लगते हैं। इन्हें ‘छेदा’, ‘मुंजा’, ‘सुपाली’, ‘वीर’, ‘हड़ली’, ‘खैस’ आदि नामों से जाना जाता है। प्रत्येक गाँव के द्वार के बाहर पत्थर या लकड़ी के मुखौटों के साथ स्थापित देवता उनके पूर्वज माने जाते हैं।
देवी-देवता:
वर्तमान में हम पाते हैं कि कई आदिवासी समुदायों ने हिंदू देवी-देवताओं को अपना लिया है। वे ‘दत्तेश्वरी’, ‘मंत्रदेवी’, ‘लक्ष्मी’, ‘चामुंडा’, ‘महादेव’, ‘भैरोबा’, ‘खंडोबा’, ‘मारुति’ आदि देवताओं की पूजा करते हैं। उनमें से बहुतों का मानना है कि ‘देवी’ या ‘हैजा’ जैसी कोई बीमारी है तो वह राक्षसों के क्रोध के कारण होती है। यह बीमारी कैसे होती है, इसका इलाज क्या है, इसका पता लगाने के लिए गांव में एक 'भगत' होता है। आदिवासियों का मानना है कि ‘भगत’ भूतों को भगाने या बांधने की तकनीक जानते हैं। भोले-भाले आदिवासी ‘भगत’ द्वारा सुझाए गए उपायों का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं। जन्म, मृत्यु, विवाह, पंचायत, अतिथियों का सत्कार, देना-लेना, किसी अवसर पर एकत्र होना हो तो वे ‘हंडिया’ का सेवन करते हैं। महाराष्ट्र में आदिवासी जनजातियाँ हिंदू त्योहारों को बड़े उत्साह से मनाती हैं। आदिवासी समाज में बच्चे को जन्म देने वाली महिला को 'सूइन या सोयरिन' कहा जाता है। वह बच्चे के जन्म के समय गर्भनाल काटने का काम करती है। लोगों का यह भी मानना है कि अगर किसी गर्भवती महिला की मौत हो जाए तो वह 'हडल' बन जाती है। इसलिए लोग ऐसी महिला के शव को दफनाने की बजाय जला देते हैं।
गोटुल व्यवस्था:
माड़िया-गोंड आदिवासियों में 'गोटुल' की प्रथा है। ‘गोटूल’ का अर्थ है गांव के युवक-युवतियों का निवास स्थान। इस स्थान पर रात्रि भोज के बाद युवक-युवतियाँ एकत्रित होते हैं। उन्हें गाने और नृत्य की बुनियादी शिक्षा वहीं मिलती है। गीत और नृत्य आदिवासियों की विशेषता है। उनकी अपनी धार्मिक भावनाएँ भी हैं। अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग नृत्य किये जाते हैं। जनजातीय नृत्य तब शुरू होते हैं जब मानसून समाप्त होता है और फसल का मौसम आता है। दिवाली के बाद से एक महीने तक नृत्य आयोजित किये जाते हैं। आदिवासी 'तरपा’, ‘कामठी’, ‘छीर’, ‘ढोल’, ‘भवादा’, ‘करमा’, ‘भगोरिया’, ‘रेला’, ‘डंडार’, ‘होलीनाच’, ‘गौरीनाच’, ‘डुडक्या' जैसे कई प्रकार के नृत्य करने में लगे हुए हैं।
इस प्रकार से हम महाराष्ट्र के आदिवासियों का सामाजिक एवं धार्मिक परिवेश को संक्षेप में देख सकते हैं।
संदर्भ:
डॉ. गोविंद गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती
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