महाराष्ट्र
के वारली आदिवासी समुदाय की जीवन संघर्ष की गाथा: जेव्हा माणूस जागा होतो-गोदावरी परुळेकर
-Dr.Dilip Girhe
प्रस्तावना:
मराठी आदिवासी साहित्य आत्मकथा विधा ने आदिवासियों
के जीवन की व्यथा को बताया है। इसमें गोदावरी परुळेकर की ‘जेव्हा माणूस जागा होतो’, सुधीर फड़के की ‘कोठे
अणि कधीतरी’, शंकर विनायक ठकार और पार्वतीबाई ठकार की ‘जागतो संयमी तिथे’, अनुताई
बाघ की ‘कोसबाड़च्या टेकडीवरून’,
सिंधुताई सपकाळ की ‘मी वनवासी’, बाबाराव मडावी की ‘आकांत’ जैसी आत्मकथा है।
इन आत्मकथाओं में आदिवासी की मूल जीवनशैली, अस्मिता, भाषा, संस्कृति जैसे विषय
मिलते हैं। इन आत्मकथाओं का लेखन काल प्रमुखतः १९५० से लेकर २००० तक रहा है।
विषय
एवं क्षेत्र
आदिवासी जीवन सघर्ष पर आधरित मराठी आत्मकथा
में ‘जेव्हा माणूस जागा होतो-गोदावरी
परुळेकर’ की आत्मकथा का नाम प्रमुखता लिया जाता है। इस
आत्मकथा में महाराष्ट्र के वारली आदिवासी जीवन संघर्ष का मौलिक चित्रण मिलता है।
यह पुस्तक सन् १९७० में मौज प्रकाशन मुबई से प्रकाशित हुई है। वास्तविक रूप में इस
पुस्तक को ‘संघर्ष कथन’, ‘संघर्ष कहानी’ या ‘निवेदन’ कहना ही सटीक है। क्योंकि
इसमें वर्णन इस मुद्दे को लेकर किया गया है। वारली आदिवासी समुदाय के संघर्ष की
जीवन गाथा के नजरिये से पाठक वर्ग इस पुस्तक को पढ़ता –पढ़ाता है। पूंजीपति वर्ग और
वारली समुदाय के बीच की संघर्ष गाथा इसमें रेखांकित है। गोदावरी ने जो देखा, सहा,
अनुभव किया इसका वास्तविक चित्रण किया है। साथ ही तत्कालीन सरकारी नीति ने
आदिवासियों कैसे सताया है इसका भी जिक्र मिलता है। इस सरकारी नीतियों को ओडिट के
माध्यम से शामराव परुलेकर ने प्रतिकार किया और वारली आदिवासियों को न्याय दिलाने
के लिए कोशिश की। जंगलों -पहाड़ों में बसे वारली आदिवासी का जीवन, उनका सीधा-साधा रहन-सहन,
श्रेष्ट संस्कृति को बढ़ावा देने वाले आचार-विचार है। अनेक वर्षों से चल रहा उनका
विस्थापन का दर्द, पलायन जैसे कई मुद्दों को गोदावरी परुलेकर ने अपने ‘आत्मकथा’ का
विषय बनाया है। उन्होंने आत्मकथा के प्रस्ताविक में ही कहा है कि उस आदिवासी खेड़े
गाँव में साहूकारों एवं जमींदारों ने आदिवासियों का शोषण किया। उनको सुबह की घंटा
बजते ही काम पर जाना पड़ता था और लगातार दोपहर काम करना पड़ता था। इसमें महिला और
पुरुष दोनों थे। दोपहर को थोड़ा धान देते थे। उसी धान से वे चालव बनाकर खाते थे।
फिर घंटा बज गया की काम पर हजर होना पड़ता था। सिर्फ एक मुट्ठी भर चावल पर ही उनको
काम करना पड़ता था। शाम को पूरा दिन ढल जाने के बाद ही छुट्टी होती थी। ना त्योहार
ना सुख दुःख। बेजुबान जानवरों की तरह सुबह उठकर उनको काम पर लगाया जाता था। एक
मुट्ठी भर चावल पेट में और कमर टूटने तक उनको काम का बोझ दिया जाता था। ऐसे ही
दिनचर्या वारली आदिवासियों की जीवन की थी। जैसे किसी जानवरों को मारा जाता है और
वह कुछ भी नहीं कहता है। ऐसा ही बर्ताव उनके साथ होता था। ऐसे अनेक परिस्थितियों
का चित्रण गोदावरी परुलेकर ने देखा। और उसे अपने आत्मकथा में व्यतीत किया। परुलेकर
ने वार्लियो की गरीबी, उनका रहन-सहन अपनी आँखों से देखा। अतः में उन्होंने कुछ
परिवर्तन वारली आदिवासियों देखे। सामाजिक संगठन के माध्यम से वारली आदिवासियों ने अपने
हक़ अधिकार मांगने शुरू किये। वे अपनी अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष करते रहे हैं।
उनके मन आत्मविश्वास की भावना पैदा हुई। धीरे-धीरे उनको राजनीति समझ में आने लगी।
भाषा परिवर्तन पाए गए। पूंजीपतियों के अन्याय-अत्याचार का प्रतिरोध वारली
आदिवासियों ने किया।
निष्कर्ष:
इस प्रकार से वारली
आदिवासियों के जीवन के अनेक पहलुओं को ‘जेव्हा माणूस जागा होतो’ आत्मकथा में
अभिव्यक्त किया है। निश्चित रूप से आदिवासियों के पूर्वजों ने जो अपना हक़ पाने के
लिए जो संघर्ष किये हैं। इसका वास्तविक चित्रण इसमें देखने को मिलता है।
संदर्भ:
1.परुळेकर, गोदावरी.जेव्हा माणूस जागा होतो: मौज प्रकाशन.मुंबई
2.तुमराम, विनायक.आदिवासी साहित्य दिशा आणि दर्शन: स्वरूप प्रकाशन, औरंगाबाद
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