मराठी आदिवासी कविता में संस्कृति व अस्मिता का चित्रण
-डॉ.दिलीप गिऱ्हे
भारतीय संस्कृति के तत्वार्थ में कहा गया है कि “अगर संस्कृति उन क्रियाओं, व्यापारों और अभिव्यक्तियों का नाम है जिन्हें कोई समाज साध्य या मूल्य के रूप में देखता है तो भारतीय संस्कृति को आध्यात्मपरक कहा जा सकता है। इसने आध्यात्म को जीवन के केंद्र में और आध्यात्मिक ज्ञान को जीवन के सर्वोपरि मूल्य के रूप में स्थापित किया है।”[1] आदिवासी संस्कृति के साध्य या मूल्यों की अभिव्यक्ति देखी जाए तो उनके लोकगीत, नृत्य, पर्व-त्योहार और प्राकृतिक संपदाओं का संरक्षण करना है। मराठी लेखक दामोदर मोरे अस्तित्व और अस्मिता के इतिहास के बारे में कहते हैं कि “किसी भी समाज की अस्मिता जब जगायी जाती है, तब उसमें कृतित्व एवं नव-निर्माण की प्रचंड ऊर्जा उभरकर आती है। मार्ग पर सदियों से खड़े अवरोध इसी ऊर्जा से ध्वस्त हो जाते हैं। अगर किसी समाज में अस्तित्व एवं अस्मिता की चेतना जगानी है, तो उसे इतिहास के दर्पण दिखाओ। उसके मन में तुरंत इतिहास और वर्तमान का तुलनात्मक विचार दौड़ने लगेगा। विचारों की चिंगारी उठने लगेगी।”[2] आदिवासियों ने भी अपने इतिहास के दर्पण देखे, तभी तो वे अपनी अस्मिता एवं संस्कृति के बारे में सजग होते हुए दिखाई दे रहे हैं। वर्तमान में आदिवासी संस्कृति के होते हुए पतन को देखकर डॉ. संजय लोहकरे कहते हैं कि “स्वातंत्र्याच्या पासष्ट-सहासष्ट वर्षांनंतर इथले आदिवासी आफ्रिकेतील गुलामासारखा विकला जातो. त्यांची समृद्धी, संस्कृती आणि नैसर्गिक कला ठेकेदारांच्या ताब्यात जाते. हे आमचं दुर्दैव!”[3] (स्वतंत्रता के साठ-पैंसठ साल होने के बाद भी यहाँ का आदिवासी अफ्रीका के गुलाम आदिवासियों जैसा बिक जा रहा है। उनकी समृद्धि, संस्कृति और नैसर्गिक कला ठेकेदारों के हाथों जाना यह हमारा दुर्दैव है।)
महाराष्ट्र के अमरावती जिले के कृष्णकुमार चांदेकर ने ‘संस्कृती’ कविता में आदिवासी संस्कृति के बारे में कहा है कि ‘हम आदिवासी संस्कृति में ज़ी रहे हैं हम इस बात का बहुत ही गर्व महसूस करते हैं।’ लेकिन आज मनुवादी वर्चस्व की व्यवस्था में आदिवासियों की स्थिति देखी जाए तो उनके पास न पहनने के लिए कपड़े हैं न रहने के लिए घर और न ही उनके पास पढ़ने के लिए पैसे हैं। आज गैर आदिवासी लोगों का देखने का नज़रिया भी बदल गया है उनकी दृष्टि में जो लोग नग्न या अर्धनग्न अवस्था में अपना जीवन ज़ी रहे हैं, वे ही आदिवासी हैं, यही उनकी संस्कृति है। इस बात को लेकर आदिवासी स्त्री और गैर आदिवासी स्त्री को देखने की दृष्टि क्या है, इसे कवि कृष्णकुमार चांदेकर ने ‘संस्कृती’ नामक कविता में इस प्रकार स्पष्ट किया है-
“गर्व करणाऱ्या संस्कृतीत
आम्ही जगत आहोत
त्यांच्याच मर्जीने मरत आहोत
परंतु...
जोशी बाईची मांडी दिसली तर
ती अब्रू ठरते
आणि मडावी बाईची मांडी दिसली तर
ती संस्कृती ठरते असे का?”[4]
गोंड आदिवासी समुदाय में पारी कुपार लिंगो को ‘कोया पुनेम’ संस्कृति का संस्थापक कहा जाता है। उनको धरती का प्रथम संगीत देव के रूप में भी माना जाता है। उदाहरण के रूप में देखा जाए तो इसी साल में 28 मार्च 2018 को छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के समरगाँव आबाबेडा में लिंगो देव की जतरा सम्पन्न हुई। इस जतरा में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओड़िसा, आंध्रप्रदेश, तेलंगना, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और मध्यप्रदेश राज्यों से कई पेन देवता समुदायों के आदिवासी लोग शामिल हुए थे। गोंड धर्म दर्शन के अनुसार प्रकृति का सबसे शक्तिशाली देव बड़ादेव हैं। इसी देव के कई नाम हैं जैसे- फड़ापेन, परसापेन, सिंगाबोंगा आदि। कवि विनोद कुमरे उनकी ‘कविता’ की पंक्तियों में जंगल, लिंगो व फड़ापेन का अर्थ बताते हैं कि-
“त्यांना कुठे माहीत
जंगल म्हणजे देव
लिंगो म्हणजे संगीत
फड़ापेन म्हणजे ढोल।”[5]
आदिवासी सभ्यता को लेकर आज बहुत ही चर्चा एवं परिसंवाद हो रहे हैं। लेकिन वास्तव में आदिवासी सभ्यता आज ख़तरे में दिखाई दे रही है। रावण, गोंड आदिवासियों के आराध्यदेव माने जाते हैं। परंतु आज उनके देवता को दशहरे के दिन जलाया जा रहा है। इससे यह समझा जा सकता है कि आदिवासी सभ्यता वर्तमान में किस स्थिति से गुज़र रही है। इस बात का कवि मारोती उईके ‘सभ्यता’ कविता में विरोध करते हैं और सभ्य समाज को चेतावनी देते हैं कि-
“सभ्य सभ्य म्हणत स्वतः ला
पुतळे तुझे जाळत असतात
एका राजाची विटंबना करून
कोणती सभ्यता पाळत असतात?”[6]
भारतीय कलाओं में ‘आदिवासी कला’ अति प्राचीन कला मानी जाती है। इस कला के तीन गुण प्रचलित माने जाते हैं, जिसमें जीवंतता, प्रामाणिकता और अनामिता। जिसके कारण इन कलाओं को ख्याति प्राप्त हुई है। आदिवासी कला अपनी लोकसंस्कृति से जुड़ी होने के कारण इन कलाओं में उनकी संस्कृति झलकती हुई दिखाई देती है। आदिवासी कला आदिवासी जीवन जीने के विविध पहलुओं से जुड़ी हुई है। यह कला लकड़ी पर, दीवारों पर, पत्थरों पर, शरीर पर, काग़जों और धातु पर की जाती है। कविता और कला की निर्मिती क्यों होती हैं, इसके बारे में डॉ. संजय लोहकरे कहते हैं कि “खरं तर कोणतीही कविता किंवा कलाकृती आपल्या स्मृती, कल्पना, संवेदना, जीवनमूल्यांचा प्रचार व प्रसार करण्यासाठी निर्माण होतात.”[7] (सच कहें तो कोई भी कविता या कलाकृति अपनी स्मृति, कल्पना, संवेदना, जीवन मूल्यों का प्रचार-प्रसार करने के लिए निर्माण होती है।) इन कलाओं की निर्मिती में झारखंड की जटोपेटीयन व सोहराई चित्रकला, महाराष्ट्र की वारली चित्रकला, सोनभद्र की जनजातीय चित्रकला, पिथौड़ा भित्तिचित्र कला ऐसी कई आदिवासी चित्रकलाएँ आदिवासी समुदायों में प्रचलित हैं। ‘गोंदण’ (टेटू) कला भी आदिवासी समुदायों की बहुचर्चित कला है। यह कला पुरुषों से ज्यादा महिलाओं के शरीर पर ज्यादा दिखाई देती है। इस गोंधण कला के माध्यम से आदिवासी अपने ‘कुलचिह्नों’ (गोत्र) से भी परिचित करवाते हैं। साथ ही साथ आदिवासी समुदाय अपना धार्मिक जीवन, संस्कृति, रूढ़ि-परंपरा और सामाजिक मूल्यों को भी प्रस्तुत करता है। इन्हीं कलाओं में से गोंदण कला पर डॉ. संजय लोहकरे अपनी ‘मायच्या आंगभर गोंदलेलं सुविचार’ कविता में बताते हैं कि अपनी माँ के शरीर पर किया हुआ गोंदण एक आदिवासियत की पहचान को दर्शाता है-
“मायच्या कपाळावं काळी चांदणी
दोन्ही चामखिळीवं रिंग बाय रिंगा
नाकावं फुली, कानावं डूली काळी
हातावं रानपाखरांचा नाच
दंडावं दंडार अन्
आंगभर सांस्कृतिक सुविचार।”[8]
दूसरी ओर मराठी की कवयित्री उषाकिरण आत्राम भी गोंदण करने वाली ओझारिन (आदिवासी स्त्री) को अपने शरीर पर गोंदण करने के लिए बुलाती हैं। वे गोंदण करने के लिए बहुत ही उत्साहित हैं क्योंकि उन्हें पता है कि आदिवासी कला को किस तरह से रेखांकित करके उस कला को किस तरह से जीवित रखना है। उनके शब्द ‘गोंदुण घ्यायचे मला’ कविता में इस प्रकार से अभिव्यक्त हुए हैं-
“संगोबाई ! गोंदुण घ्यायचे मला
कुणी बोलवा ओझारीणला
निरोप द्या ग तिला
संगोबाई ! गोंदुण घ्यायचे मला।”[9]
आदिवासी हज़ारों सालों से जंगलों के सानिध्य में रहते आए हैं। जंगलों के पेड़-पौधों का वे संरक्षण व संवर्धन करते आए हैं। कवि वसंत कनाके ‘वृक्ष’ कविता के माध्यम से बताना चाहते हैं कि वृक्ष ये आपके सगा-सोयरा (देवता) हैं। हमारी संस्कृति में हम उनकी पूजा करते हैं। आप है कि उन्हीं वृक्षों को काटकर जंगल नष्ट करने में लगे हुए हैं। वृक्ष बिना आसमान का सहारा लिए बहुत ही शान से सीना तानकर जीते हैं और बहुत ही शान से सभी को फल-फूल, छाँव और हवा देते हैं। वे कविता में कहते हैं कि-
“जगा झाडासारखे जगा
आभाळातला टेका
ताट मानेने जगा
झाडासारखे वागा
झाडासारखी फळे द्या
सावली आणि हवा
जगा आणि जगू द्या
हा मंत्र नाही नवा।”[10]
एक समय ऐसा था, जब प्रकृति बहुत ही हरी-भरी दिखाई देती थी। लेकिन समय के बदलते और बाहरी व्यापारी कंपनियों के आक्रमण ने प्रकृति को तहस-नहस कर दिया। इस प्रक्रिया के चलते आदिवासी जीवन भी बदल गया है। कवि वाहरु सोनवणे ‘हिरवाळ जंगलात (हरे जंगलों में)’ कविता का संदर्भ देकर बताना चाहते हैं कि इस हरे-भरे जंगलों का नक्शा अब बदल गया है। जिस तरह से साग वृक्षों के पत्ते झड़ते हैं, उसी तरह से आदिवासियों की झोपड़ियों की स्थिति बनी हुई दिख रही है। न जंगल में कंदमुले हैं न इस कंदमूलों को खाने वाले आदिवासी हैं। कवि के शब्दों में कहें तो-
“हिरवाळ जंगलात
गळून पडलेल्या
सागाच्या पानासारख्या
फाटक्या, त्या झोपड्या
जंगलातील जंगली माणसं
कंदमुळ खाणारी
पण कंद नाही तन मूळ नाहीत
ती केव्हाच संपून गेलीत
अफाट भुकेच्या खपाट पोटात।”[11]
इस प्रकार से हिंदी आदिवासी कविताओं के साथ-साथ मराठी आदिवासी कविताएँ भी आदिवासी संस्कृति व अस्मिता के विविध मुद्दों को स्पष्ट करती हैं।
इसे भी पढ़े--हिंदी मराठी आदिवासी कविता में जीवन संघर्ष
-------------------------------------------
[1] गुप्त, शिवकुमार. (सं.). (2015). भारतीय संस्कृति के मूलाधार. जयपुर : राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी. पृष्ठ संख्या. 5-6
[2] पाठक, डॉ. विनय कुमार. (2006). अम्बेडकरवादी सौन्दर्य-शास्त्र और दलित आदिवासी जनजातीय विमर्श. दिल्ली : नीरज बुक सेंटर (पहले फ्लैश पेज से)
[3] लोहकरे, डॉ. संजय. (सं.). (दिसंबर-2017). फड़की (मासिक पत्रिका). अमरावती : सरिता ग्राफिक्स एंड प्रिंटर्स. पृष्ठ संख्या. 21
[4] तुमराम, डॉ. विनायक. (सं.). (2003). शतकातील आदिवासी कविता. चंद्रपुर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 223
[5] कुमरे, विनोद. (2014). आगाजा. मुंबई : लोकवाङ्मय गृह. पृष्ठ संख्या. 63
[6] उईके, मारोती. (2010). गोंडवानातला आक्रंद. वर्धा : उलगुलान प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 69
[7] लोहकरे, डॉ. संजय. (सं.). (दिसंबर-2017). फड़की (मासिक पत्रिका). अमरावती : सरिता ग्राफिक्स एंड प्रिंटर्स. पृष्ठ संख्या, (बैक पेज से/मल पृष्ठ से)
[8] लोहकरे, डॉ, संजय. (2015). आदिवासींच्या लिलावाचा प्रजासत्ताक देश. पुणे : दिलीपराज प्रकाशन प्रा. लि. पृष्ठ संख्या. 202
[9] आत्राम, उषाकिरण. (2009). लेखणीच्या तलवारी. चंद्रपूर : हरिवंश प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 78
[10] कनाके, वसंत. (2002). सुक्का सुकूम. यवतमाळ : लोकायत प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 8
[11] सोनवणे, वाहरु. (2006). गोधड. पुणे : सुगावा प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें