सामाजिक परिवर्तन का माध्यम :
लोकसाहित्य
-Dr. Dilip Girhe
समाज में परिवर्तन लाने के लिए लोकसाहित्य की अपनी अहम् भूमिका रही है। यह
परिवर्तन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं ऐतिहासिक माने
जाते हैं। आज
लोकसाहित्य के बगैर कौनसा भी साहित्य अधूरा माना जाता है। लोकसाहित्य को जनसाहित्य
भी कह सकते हैं क्योंकि लोगों के हितों के लिए यह साहित्य लिखा जाता है।
लोकसाहित्य इस विषय पर बात करने से पहले लोकसाहित्य का स्वरूप क्या हैं? यह देखना भी बहुत जरूरी है। लोकसाहित्य को अंग्रेजी में ‘फोक लिटरेचर’ कहा जाता
है। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ देखा जाए तो ‘लोगों का साहित्य’ होता है। इसमें
समाज की वास्तविक जीवन शैली दर्शाते हैं। तभी हम लोकसाहित्य को चारों बाजुओं से
देख सकते हैं और उसकी जाँच-पड़ताल कर सकते हैं। सामान्यत: हम लोकसाहित्य की
परिभाषा इस प्रकार कह सकते हैं ‘लोकसाहित्य यानी हजारों सालों से एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी तक चलने वाली प्रक्रिया ही लोकसाहित्य हैं इस प्रक्रिया में सण, उत्सव, रुढ़ी, प्रथा, परंपरा आदि का समावेश होता है।’ आज समाज के साथ-साथ देश बदल रहा है और देश
में जो बदलाव दिखाई दे रहे हैं इन सभी बदलावों ने आज साहित्य का रूप ले लिया हैं।
जो-जो बदलाव समाज में होते रहेंगे वह बदलाव लोकसाहित्य के रूप में धीरे-धीरे सामने
आ रहे हैं।
लोकसाहित्य का स्वरूप
लोकसाहित्य का संबंध समाज के हर हिस्से के साथ जुड़ा होने के कारण मेरे विचार
से लोकसाहित्य यानी ‘लोगों के दैनंदिन जीवन की अभिव्यक्ति जिस साहित्य में प्रकट
होती हैं उसे लोकसाहित्य कहा जाता हैं।’ 1990 के बाद लोकसाहित्य के मार्ग में बदल
दिखाई देता है। क्योंकि यह दौर भूमंडलीकरण का दौर होने के कारण इस समय से लोक जीवन
पर कुछ सकारात्मक परिणाम हुए तो कुछ नकारात्मक परिणाम हुए। लेकिन परिमाण जो भी हो
उसका सत्य लोकसाहित्य में दिखने लगा है। डॉ.सत्येन्द्र के अनुसार लोकसाहित्य यानी ‘लोक मनुष्य समाज का
वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से
शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।’ समाज की हर हलचल लोकसाहित्य
में होती हुई दिख रही है। यह साहित्य समाज प्रबोधन का काम करता है। सोया हुआ समाज
जगाने काम लोकसाहित्य करता है। लोकसाहित्य में सृजनशीलता को प्रधानता दी जाती है
क्योंकि प्राचीन काल से लेकर अबतक लोकसाहित्य ने अपनी भूमिका स्पष्ट की है। किसे
ने सच ही कहा था ‘कला कला के लिए होती है।’ लोकसाहित्य में लोकगीत, लोकनृत्य,
संगीत, मुहावरें, लोककथा
ऐसे कई प्रकार आते हैं। भारत यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण यहाँ अलग-अगल
धर्म के लोग रहते हैं इनका लोकसाहित्य विभिन्न प्रकार का है। इसमें संस्कृति,
भाषा है। भारत में हिंदू, मुस्लिम, शीख, इसाई ऐसे कई धर्म पाये जाने के बावजूद भी इन
सभी धर्मों का संबंध लोकसाहित्य से जुड़ा हुआ है। साहित्य में वर्तमान समय में जिस
विमर्श पर मुख्य रूप बातचीत चल रही हैं। वह विर्मश हैं स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यांक और पर्यावरणीय विमर्श। आज
लोकसाहित्य के रूप में जनजातीय साहित्य प्रखरता से सामने आ रहा है। लोकसाहित्य में
हर समाज की आवश्यकताएँ, आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ मौजूद होती
है। इन सब तत्त्वों को लोकसाहित्य प्रस्तुत करता हैं। लोकसाहित्य में लोक अपने-आप
को नायक बनाकर प्रस्तुत करते हैं। हिंदी साहित्य कोश के पहले भाग में लोकसाहित्य
की परिभाषा बताई गई है कि-‘लोकसाहित्य वह मौखिक अभिव्यक्ति है, जो भले ही किसी व्यक्ति ने गढ़ी हो, पर आज जिसे
सामान्य लोक-समूह अपना ही मानता है और जिसमें लोक की युग-युगीन वाणी साधना समाहित
रहती है, जिसमें लोक मानस प्रतिबिंबित रहता है।’ आज मौखिक लोकसाहित्य
लिखित रूप में सामने आ रहा है। जो लोकसाहित्य भले ही मौखिक हो लेकिन जब वह लिखित
रूप धारण करता है तो उस साहित्य को विश्वव्यापी स्वरूप प्राप्त हो जाता है। यह कथन
लोकसाहित्य के लिए बिल्कुल ही सटीक रूप में लागू होता है। लोकसाहित्य हर व्यक्ति
की जुबान हो सकता है। यह भाष्य लोकसाहित्य के वैशिष्ट्य को भी प्रकट करता है।
लोकसाहित्य के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए तीन मुद्दों को ध्यान में रखा जा सकता
हैं। जिसमें–
1) आदिम मानस के अवशेषों की उपलब्धता
2) परंपरागत मौखिक क्रम
3) लोकमानस के तत्त्वों की उपस्थिति
इन सभी विशेषताओं से लिखित
ऐसी रचना जो लोक अपने व्यक्तित्व की कृति स्वीकार करता हो उसे लोकसाहित्य कह सकते
हैं। लोकसाहित्य वह साहित्य होता हैं जिसमें लोक समूह की वार्ता की अभिव्यक्ति हुई
हो। लोकसाहित्य का स्त्रोत लोगों की बातचीत या वार्तालाप माना जाता है। लोकवार्ता
यह लोकसाहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता हैं। जिसमें लौकिक विश्वास, धार्मिक विश्वास, धर्मगाथाएं,
कथाएँ, कहावतें, पहेलियाँ, लोकोक्तियाँ, लोक कहानी, चुटकुले,
मंत्र, स्वांग, गीत,
अनुष्ठानिक गीत, पूजा, जागरण,
व्रत, और नौटंकी आदि का समावेश होने के कारण
लोकसाहित्य का क्षेत्र अधिक विस्तृत माना जाता है। डॉ.कृष्णदेव उपाध्याय अपनी
पुस्तक की भूमिका में लोकसाहित्य की व्याख्या देते हैं ‘लोकसाहित्य का विस्तार
अत्यंत व्यापक है। साधारण जनता जिन शब्दों में गाती हैं रोती हैं, हँसती हैं, खेलती हैं उन सब को लोकसाहित्य के
अंतर्गत रखा जा सकता हैं।’ अंत: लोकसाहित्य लोगों के सुख और दुःख का प्रतीक है। इसीलिए
इसको सामान्य जनता का साहित्य भी कहा जाता है। लोकसाहित्य को लिखित रूप में समाज
के सामने रखने के लिए लोकसाहित्य के पाँच विकसित रूप हुए हैं जिसके कारण आज
सामान्य जनता का साहित्य लोकसाहित्य बन सका। यह रूप इस प्रकार हैं-
1) लोकगीत
2) लोकगाथा
3) लोककथा
4) लोकनाट्य
5) लोक सुभाषित
इन्ही रूपों को सामने रखकर
लोकसाहित्य विकसित होता गया। लिखित लोकसाहित्य वह होता हैं जो विशिष्ट लिपि के
माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। उसमें लिपि का स्थान महत्त्वपूर्ण होता है। उससे
लोकसाहित्य की विशेषता बढ़ती है। लोकगाथा के लिए अंग्रेजी में ‘बैलेड’ शब्द प्रचलित
है। यह ग्रामगीत या लोकगीत का ही एक रूप है। लोकगीत यह विशिष्ट त्योहार में गाये जाते
हैं। यह उनका ख़ुशी का दिन होता है। लोकगाथा को मानवी समाज का आदिम साहित्यिक रूप
माना जाता है। जैसे कि हिंदी की प्रमुख लोकगाथा इस प्रकार हैं ‘लोरिकायन’, ‘सोरठी’, ‘विजयमाल’,
‘भरथरी’, ‘गोपीचंद’ आदि। लोकसाहित्य की
अवधारणा को समझाना हैं तो उन परिस्थितियों का भी अध्ययन करना होगा जिन
परिस्थितियों के कारण लोकसाहित्य अस्तित्व में आया है। लोक का लोक के द्वारा लोक
के लिए जो साहित्य प्रयुक्त होता है उसे ‘लोकसाहित्य’ कहा जाता है। इस बात से स्पष्ट
हो जाता हैं कि आदिम जीवन लोकसाहित्य की मूल आधारभूमि रही है। आदिकाल से आजतक का विवरण लोकसाहित्य में मौजूद है। इस साहित्य
में लोक का जीवन संघर्ष उनके साहित्य को प्रभावित करता है। अंत: एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी तक ज्ञान संचार होता है। इस संचार से जो साहित्य अर्जित होता है उसे
लोकसाहित्य कहते हैं। इस प्रकार से लोकसाहित्य का जन्म मनुष्य की कल्पना शक्ति की
तीव्रता और आत्मरक्षा से जुड़ी प्रखर जिजीविषा से ही माना जाता है। जब-जब जीवन जीने
की उम्मीदे बरक़रार रखी गई तब-तब लोकसाहित्य एक प्रखर रूप लेता गया।
लोक जीवन बनाम लोकसाहित्य
भारतीय लोक जीवन और
लोकसाहित्य का बहुत गहरा संबंध है। लोगों के जीवन पर ही लोकसाहित्य रचा जाता है।
मनुष्य जिस परिवेश में रहता है वह वहाँ की हर चीज को समझ जाता है वही उसकी पहचान
होती है। लोकसाहित्य में भी हर व्यक्ति की पहचान उनके जीवन दर्शन से होती है। लोक
जीवन में मुख्य रूप से दो तरह का जीवन दिखाई देता है। 1) ग्रामीण जीवन और दूसरा 2) शहरी जीवन यह दोनों जीवन पद्धतियाँ अलग-अलग हैं। लोकसाहित्य ज्यादातर
ग्रामीण परिवेश जुड़ा होने के कारण ग्रामीण संस्कृति की पहचान इस साहित्य में होती
है। हर समाज अपनी संस्कृति दर्शाता है इसमें लोकसाहित्य भी अपना स्थान बना चुका है।
लोकसाहित्य लोक संस्कृति से जन्म लेता हैं। इसी कारण हर लोक की संस्कृति की पहचान होती
है। इसका आधार जनजीवन ही माना जाता है। मनुष्य की संवेदना को जीवित रखने के लिए
लोकसाहित्य की महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। भारतीय लोक जीवन में लोकगीत है तो उसके
साथ लोक वाद्य और संगीत भी हैं, नाटक के साथ स्वांग, जतरा तमाशा और नौटंकी हैं। नृत्य है तो उसके साथ उनके विविध रूप भी मौजूद
होते हैं। यह सभी लोकसाहित्य के रूप मनुष्य की संस्कृति को दर्शाती हैं।
लोकसाहित्य में एक ही व्यक्ति का योगदान नहीं रहता बल्कि समूचे समाज समवेत योगदान
होता हैं। इसका मतलब लोकसाहित्य पर किसी एक व्यक्ति की छाप न होकर लोक की छाप होती
है।
लोकसाहित्य का महत्त्व
आज का दौर
मनुष्य की विचार क्रांति का दौर है। इसीलिए समय के साथ-साथ विचार भी बदल रहे हैं और
विचार के साथ-साथ लोकसाहित्य ने भी अपना कदम समाज की वैचारिकी से जोड़ा है। 21 वीं शताब्दी विज्ञान और तकनीकी की होने के
कारण यह युग यंत्र युग माना जा रहा हैं। लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति समाज के दो
व्यापक पहलू है। और वह पहलू समय के साथ-साथ बदल रहे हैं। इन दो अंगों में नए-नएपरिवर्तन
होते हुए दिखाई दे रहे हैं। जब-जब सामाजिक समस्याओं को लेकर साहित्य लिखा जाएगा तब-तब
लोकसाहित्य विकसित होता जायेंगा। आज का समय मानव विकास के इतिहास में सबसे गतिशील
समय है इस कारण समय को ध्यान में रखकर जो साहित्य लिखा जा रहा है। वह आधुनिक
परिवर्तनवादी लोकसाहित्य है। समाज से जुड़े हुए हर जन समुदाय का खुद का साहित्य हैं।
लोकसाहित्य का सबसे बड़ा परिवर्तन वैश्वीकरण, बाजारीकरण और औद्योगिकीकरण
है। इस बदलाव ने सामाजिक बंधनों में दूरियाँ पैदा की है और समाज में सूचना क्रांति
लाई है। हर व्यक्ति अपने निजी जीवन को ध्यान में रखकर ही लिख-बोल-कार्य कर रहा है।
इसी कारण लोकसाहित्य में लोक की वास्तविकता नष्ट होती हुई दिखाई दे रही हैं। लोगों
के रहन-सहन में बदलाव होते जा रहे हैं। कभी-कभी लोकसाहित्य के लिए ‘ग्राम साहित्य’
शब्द का प्रयोग किया जाता है। किंतु ‘ग्रामसाहित्य’ अलग है और ‘लोकसाहित्य’ अलग है।
ग्रामसाहित्य में पूरे गाँव प्रतिबिंब चित्रित होता है तो लोकसाहित्य में गाँव और
शहर दोनों की आंचलिकता का समावेश होता है। वर्तमान समय में लोकसाहित्य के लिए
‘जातिय साहित्य’ का प्रयोग किया जा रहा है। क्योंकि हर जाति की अपनी संस्कृति है,
अस्मिता है। जैसे कि दलित और आदिवासी साहित्य। लोकसाहित्य ने
धीरे-धीरे विमर्श का रूप धारण किया है। जिसके कारण वह जनता का लोकप्रिय साहित्य बनता
जा रहा है।
संदर्भ
1) मोरजे, डॉ. गंगाधर.(2002).लोकसाहित्य: सिध्दान्त आणि
रचनाप्रकारबंध. पुणे : पद्मगंधा प्रकाशन
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