गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

विविध विद्वानों के अनुसार आदिवासी की परिभाषा क्या है VIVIDH VIDVANON KE ANUSAR AADIWASI KI PARIBHASHA KYA HAI

             


 आदिवासी की विविध परिभाषा : अर्थ व स्वरूप 

                                                -Dr.Dilip Girhe 

इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इंडिया’ के अनुसार- “जनजाति समान नाम धारण करने वाले परिवारों का एक संकलन है, जो समान बोली बोलते हों, एक ही भूखंड पर अधिकार करने का दावा करते हों अथवा दखल रखते हों जो साधारणत: अन्तर्विवाही न हों यद्यपि मूल रूप में चाहे वैसे रह रहे हों।”[1] भारत के समस्त जनजातीय समूहों की अलग-अलग बोली-भाषा है। भाषा ही उनके अस्तित्व की पहचान है। वे भौगोलिक दृष्टि से पिछड़े इलाकों में बसे हुए हैं। भारत में जनजातीय लोग मुख्यतः तीन भाषाई परिवारों में वर्गीकृत किए गए हैं, जिसमें द्रविड़, आस्ट्रिक और तिब्बती-चीनी परिवार आदि। गिलिन और गिलिन ने अपनी रचना ‘कल्चरल एँथ्रोपोलोजी’ में जनजातीय समाज की परिभाषा इस प्रकार दी है- “एका विशिष्ट भू-प्रदेशावर राहणारा, समान बोली भाषा बोलणारा व समान सांस्कृतिक जीवन जगणारा पण अक्षर ओळख नसलेल्या स्थानीय गटांच्या समुच्ययाला ‘आदिवासी समाज’ म्हणतात.”[2] (एक विशिष्ट भूप्रदेश पर रहने वाला, समान बोली भाषा बोलने वाला व समान सांस्कृतिक जीवन जीने वाला परंतु शिक्षा से दूर स्थानीय समूह को ‘आदिवासी समाज’ कहा जाता है।) आज आदिवासी समुदाय जंगलों, पहाड़ों में बसा होने के कारण शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहा है। साथ ही साथ उनकी बोली भाषा गैर-आदिवासी समाज से अलग होने के कारण उन्हें उचित शिक्षा नहीं मिल रही है। डॉ. मजूमदार कहते हैं कि “कोई जनजाति, परिवारों तथा वर्गों का ऐसा समूह है, जिनका सामान्य नाम है तथा विवाह व्यवसाय के विषयों में कुछ निषेधाज्ञाओं का पालन करते हैं, जिन्होंने आदान-प्रदान संबंधी तथा पारस्परिक कर्तव्य विषयक एक निश्चित व्यवस्था का विकास कर लिया हो।”[3] जनजातीय समूहों में विशिष्ट विवाह पद्धति होती है। जैसे गोटुल विवाह संस्था के माध्यम से उन्हें वर-वधु चुनने का मौका मिलता है। इस विवाह पद्धति में विशिष्ट नृत्य, गीत-संगीत, नाट्य कला के माध्यम से आदिवासी अपनी सांस्कृतिक पहचान कराते हैं। डब्लू. जे. पेरी के अनुसार “a trible is group speaking a common dialect and inhabiting a common territory”[4] भाषा संवाद का एक सशक्त माध्यम है। इसीलिए कहा गया है कि अगर माध्यम नहीं होगा तो संवाद भी नहीं होगा। आदिवासी समाज में भी संवाद का माध्यम उनकी भाषा है। प्रत्येक आदिवासी समुदाय का विशिष्ट भाषाई क्षेत्र होता है। जैसे आग्नेय भाषा परिवार में हो, संताल और खड़िया आदिवासी जनजातियाँ आती हैं। हर एक क्षेत्र की एक समान भाषा होती है। ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष में ‘आदिवासी’ की परिभाषा इस प्रकार दी है- “जनजाति विकास के आदिम अथवा बर्बर आचरण में लोगों का समूह है जो एक मुखिया की सत्ता स्वीकारते हों तथा साधारणतः अपना एक समान पूर्वज मानते हों।”[5] जनजातीय संस्कृति बहुत ही प्राचीन है। इस संस्कृति में पुरखों या पूर्वजों को बहुत ही आदरसूचक स्थान दिया जाता है। आदिवासी साहित्य निर्माण में पूर्वजों का स्थान महत्वपूर्ण है। हर जनजातीय समूह में एक मुखिया रहता है जो कि उस समाज की समस्याओं पर विचार-विमर्श करके उन समस्याओं का हल करने में प्रयासरत रहता है। राल्फ लिंटन कहते हैं कि “सरलतम रूप में जनजाति ऐसी टोलियों का समूह है, जिसका एक सानिध्य वाले भूखंड अथवा भूखंडों पर अधिकार हो और सामुदायिक हितों में समानता उत्पन्न हुई हों।”[6] जार्ज पीटर मर्डक के अनुसार- “जनजाति एक सामाजिक समूह होता है, जिसके अंतर्गत अनेक गोत्र, भ्रमणकारी झुंड, ग्राम तथा उपसमूह होते हैं। इस समूह के पास एक भौगोलिक क्षेत्र, एक पृथक भाषा, एक भिन्न संस्कृति तथा एक आम राजनीतिक संगठन होता है।”[7] 

भारत में 700 से भी अधिक आदिवासी समूह पाए जाते हैं। यह समूह मुख्य रूप से चार प्रमुख क्षेत्रों में रहते हैं। जिसमें उत्तरपूर्वीय क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र एवं दक्षिणी क्षेत्र हैं। उत्तरपूर्वीय क्षेत्र में मुख्य रूप से ब्रह्मपुत्र एवं यमुना नदी के पहाड़ी प्रदेशों में गुरूंग, लेपचा, आका, गारो, खासी, कुकी, लिम्बू, डाफका, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंग्पी, मिकिर, कवारी, नाग, लुशाई, चकमा आदि जनजातियाँ उल्लेखनीय हैं। मध्य क्षेत्र में संताल, गोंड, मुंडा, उराँव, हो, भूमिज, खड़िया, बिरहोर, जुआंग, खोंड, सवरा, कमार, भील, आंध, बैगा, कोरकू आदि प्रमुख हैं। पश्चिमी क्षेत्र में भील, कातकरी और ठाकुर समूह रहते हैं। दक्षिण भाग गोदावरी से कन्याकुमारी के क्षेत्रों में चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगोंड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूम्बा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, उराली, मुशुवन, कनिकर आदि जनजातीय समूह रहते हैं। इन सभी जनजातियों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ-साथ उनके छोटे-बड़े अलग-अलग संगठन भी हैं। बोगार्ड्स ने आदिवासी समूहों का आधार सुरक्षा की आवश्यकता माना है।

इस प्रकार से विविध विद्वानों ने आदिवासी की विविध परिभाषाओं को रेखांकित किया है जिसके माध्यम से आदिवासी सांस्कृतिक पहचान दिखाई देती है

[1] हसनैन, नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृ. 10

[2] नाडगोंडे, गुरुनाथ. (2012). भारतीय आदिवासी. पुणे : कॉन्टिनेंटल प्रकाशन. पृ. 3 

[3] पालीवाल, चंद्रमोहन. (1986). आदिवासी हरिजन आर्थिक विकास : बस्तर के संदर्भ में. नई दिल्ली : नार्दन बुक सेंटर. पृ. 2

[4] नाडगोंडे, गुरुनाथ. (2012). भारतीय आदिवासी.  पुणे : कॉन्टिनेंटल प्रकाशन. पृ. 3

[5] हसनैन, नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृ. 11   

[6] हसनैन, नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृ. 11   

[7] पाण्डेय, गया. (2007). भारतीय जनजातीय संस्कृति. नई दिल्ली : कंसैप्ट पब्लिशिंग कंपनी. पृ. 2

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