आदिवासी जननायक भागोजी नाईक
(1804-1859)
Dr.Dilip Girhe
भागोजी नाईक के साथ 30 जनवरी 1818 को भील, महादेवकोली, रोहिल्ला और अरबों की भीड़ नंदगाँव के पास मांडवद में एकत्र हुई। उन्होंने बहादुरी से मेजर ‘मोटमोथेरी’ का सामना किया। आसपास के जंगलों में भील और महादेवकोली बड़ी संख्या में रहते थे। इस युद्ध में इनका बहुत अच्छा प्रयोग हुआ। लड़ाई में मेजरसाहेब घायल हो गए। किन्तु 'लोटेनचर' नामक सेनापति ने युद्ध जारी रखा। 10 ब्रिटिश लोग मारे गये और 50 घायल हो गये। इस हार से अंग्रेज़ बुरी तरह बौखला गये। 3 अप्रैल 1818 को नासिक जिले के कीलों पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया। उन्होंने उस समय जुन्नर क्षेत्र के महादेवकोली लोगों के अधिकार भी छीन लिये। इससे भील, महादेवकोली आदिवासियों का असंतोष और बढ़ गया। लूटपाट, खजानों की लूट, अंग्रेजी अधिकारियों की हत्या के साथ विद्रोह का दौर शुरू हुआ।
नासिक और नगर जिलों में भील और महादेवकोली आदिवासियों के विद्रोह का नेतृत्व सबसे पहले महादेवकोली और अकोले तालुक के भील नेताओं ने किया था। चालीसगांव, धुले जिले के भीलों ने उनका समर्थन करने के लिए शिविर स्थापित किए थे। अंग्रेजों को लगातार एक साथ आने और संगठित तरीके से कार्य करने के लिए प्रेरित किया गया। उन्होंने भागोजी एवं उनके साथियों को विद्रोह पकड़ने के लिए ईनाम की घोषणा की थी। भागोजी नाईक का जन्म 1804 में भील परिवार में हुआ था। उनके पिता नंदूर शिंगोटे, सिन्नर, जिला नासिक में एक कोतवाल थे। उनकी माता का नाम गिरजाबाई था, उनकी बचपन में पढ़ाई छूट गई थी और वे गाँव में गाय-बैल चराने का काम करती थीं। इन जानवरों के पीछे घूमते हुए उन्होंने खुद ही निशानेबाजी सीखी। उन्होंने पहिया चलाने, छड़ी घुमाने और गुलेल चलाने की कला में महारत हासिल कर ली। एक बार जंगल में एक बाघ को गाय के बछड़े पर हमला करते देख उन्होंने हाथ में कुल्हाड़ी लेकर बाघ पर जवाबी हमला कर दिया। इस युद्ध में उन्होंने बाघ को मार डाला। वह भागोजी नाईक की वीरता का पहला शिकार थी। उनकी वीरता और बहादुरी को देखकर ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें शहर की पुलिस में ले लिया।
सन् 1855 में उन पर भीलों और महादेवकोलों के विद्रोह को भड़काने का आरोप लगाया गया। इसलिए उनकी नौकरी चली गयी। उन्हें जेल की सज़ा सुनाई गई और जेल से छूटने के बाद उनसे एक साल का लॉयल्टी बांड भरने को कहा गया। हालांकि उन्होंने जमानत देने से साफ इनकार कर दिया। जेल की सज़ा का गुस्सा उनके दिमाग में हमेशा बना रहा। इसके चलते उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को इस देश से खदेड़ने का निर्णय लिया और उन्होंने भील सैनिकों का एक समूह बनाया और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ आ गये। नासिक पुणे मार्ग पर उन्होंने जो घाट बनवाया उसे आज भी 'भागोजी नाईक का घाट' कहा जाता है।
अक्टूबर 1857 में शहर के पुलिस अधीक्षक जेडब्ल्यू हेंड्री की नजर भागोजी नाईक पर पड़ी। इससे पहले संगमनेर के मावेलदार के माध्यम से भागोजी को आत्मसमर्पण करने का संदेश भेजा गया। लेकिन भागोजी नाईक ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया। उन्होंने केस ऑफिसर को संदेश भेजकर दो साल की सैलरी और खर्च की मांग की। इस कारण जे. डब्ल्यू हेंड्री क्रोधित था और उसे लगा कि उसका अपमान किया गया है। उसने भागोजी नाईक पर कदम उठाने का फैसला किया। भागोजी नाईक के स्थान की जासूसी करने के बाद, उन्होंने सैनिकों के साथ भागोजी पर चढ़ाई की। भागोजी ने बन्दूक का जवाब बन्दूक से दिया। नांदुर शिंगोटे के पास पहाड़ के पास भारी धुआं था। उन्होंने अपनी बंदूक से जेडब्ल्यू हेंड्री और उनके अंगरक्षक पर सटीक प्रहार किया। हेंड्री भागोजी नाईक को मारने आया था, किन्तु वह भागोजी के हाथ की गोली से मारा गया। भागोजी के प्रबल प्रतिरोध को देखकर बाकी पुलिस अधिकारी पीछे हट गये। वह उनके द्वारा मारा गया पहला ब्रिटिश अधिकारी था। भागोजी की हेंड्री की हार की खबर सुनकर भील और महादेवकोली विद्रोही उत्साहित हो गए और राहुरी क्षेत्र में पुरथाजी नाईक के नेतृत्व में एक दूसरी टुकड़ी का गठन किया गया। लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें मेजर से हारना पड़ा।
18 अक्टूबर, 1857 को रामशेरपुर (नगर) में भागोजी और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। इसमें 26वीं नेटिव प्लाटून के कर्नल कैमन, लेफ्टिनेंट ग्राहम, मेजर चैपमैन आदि पुलिस अधिकारी घायल हो गये। लगभग इसी समय में अकोले तालुका में नेरा के भील और महादेवकोली आदिवासियों के क्रांतिकारी मदद के लिए सुरगाने के पवारों के पास जा रहे थे। न्यूटॉल ने 160 पैदल सेना व 50 घुड़सवार सेना के साथ विद्रोहियों पर चढ़ाई की। यह कदम उठाने से पहले आदिवासी विद्रोहियों ने पिछली रात त्र्यंबकेश्वर का खजाना लूट लिया था और वहां से चले गए थे। इस प्रकार के आक्रोश के कारण पहाड़ी इलाकों में महादेवकोली आदिवासियों के कई लोगों को पकड़कर फाँसी पर लटका दिया गया।
12 नवंबर 1857 की शाम को सरकार को खबर मिली कि महादेवकोली आदिवासियों ने पेठ महल में विद्रोह कर हरसुल का खजाना और सरकारी कार्यालय लूट लिया है। 14 नवंबर 1857 को न्यूटॉल तुरंत पलट गया। तब तक क्रांतिकारी धरमपुर क्षेत्र में भाग गये थे। चौथी रेजीमेंट के 30 लोगों को लेने के तुरंत बाद सी.ए. ग्लासपूल आ गया। उसने लोगों को सतर्क कर दिया। ये खबर हवा जैसी है। हर जगह फैल गया। तो महादेवकोली और कोंकण के आदिवासी उनकी मदद के लिए दौड़ पड़े। कुछ ही समय बाद 60-70 लोगों ने भागोजी के नेतृत्व में सुरगणा जाने का निश्चय किया। कैप्टन नुताल भी उन्हें मारने के लिए तैयार था। 5 दिसंबर को पेठ पहुंचे और फिर कैप्टन ग्लासपूल के साथ शहर लौट आया। राजकोष की सारी संपत्ति अंग्रेज़ों के हाथों चली गयी। उस समय महादेवकोली, भील, कोकणा और रामोशी आदिवासी क्रांतिकारियों की संख्या 2000 तक पहुँच गयी थी। कैप्टन नुताल के हमले के कारण कई आदिवासी वीर शहीद हो गये और जेल में डाल दिये गये। 19 दिसंबर 1857 को कैप्टन वॉकर कैप्टन बोसवेल के अधिकारियों की टुकड़ी 10वीं रेजीमेंट के साथ सूरत आई। 'विद्रोह का माहौल बनाया और विद्रोहियों की मदद की।' यह आरोप लगाकर पेठ के राजा भगवंतराव भौराजे को अंग्रेजों ने फाँसी दे दी।
20 दिसंबर 1857 को कैप्टन नुताल दक्षिण की ओर मुड़ गया। उस समय उन्हें महादेवकोली और भील जनजाति के 500 योद्धाओं से युद्ध करना पड़ा था। भागोजी के भाई महीपति ने प्रतिज्ञा की वे कैप्टन नुताल के साथ आमने-सामने की लड़ाई करेंगे। कैप्टन नुताल का एकमात्र घोड़ा मारा गया। इस झड़प में भागोजी के भाई महीपति भी मारा गया। लेकिन हार न मानते हुए एक और फाइटर कैप्टन नुताल के साथ युद्ध जारी रहा। लेकिन दुर्भाग्य से वह सफल नहीं हो सके।
18 फरवरी 1958 को भागोजी नाईक के एक समूह पर कैप्टन नुताल ने येवला के किले में घात लगाकर हमला किया। इस बीच भागोजी ने बड़े साहस से अंग्रेजों के चालीस सैनिकों को मारकर अपनी रक्षा की। इसके बाद भागोजी नाईक ने अपने आंदोलन को बढ़ाने का काम किया। सभी जगह से भील युवकों को इकट्ठा करके एक आदिवासी पलटन का गठन किया गया। ब्रिटिश छावनियों पर आक्रमण करने का कार्य सौंपा गया। इसके अलावा उन्होंने अपने बेटे यशवन्त नाईक को भी अपनी पलटन में शामिल कर लिया।
5 जुलाई 1859 को संगमनेर के निकट 'अभोरदरा' में अंग्रेजों द्वारा भागोजी का सेना से बड़ा युद्ध हुआ। इस बार उनके पुत्र यशवन्त की हत्या कर दी गयी। अपने पुत्र की मृत्यु से भागोजी अंग्रेजों के प्रति और अधिक आक्रामक हो गये और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए तैयार हुए। उन्होंने इस अत्याचारी ब्रिटिश शक्ति के विनाश के लिए अधिक तत्पर रवैया अपनाया। उनको इसी युद्ध में अपने बेटे को खोने का दुख था और अंग्रेजों द्वारा पुंथाजी नाईक को पकड़ने का भी दुख था, लेकिन उन्होंने अपना साहस नहीं छोड़ा। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह जारी रहा। इस अपमान का बदला लेने के लिए 26 अक्टूबर 1859 को भागोजी नाईक ने अहमदनगर जिले के कोपरगांव तालुका के ‘कोऱ्हाळे’ गांव को लूटकर अंग्रेजों से बदला लिया। जब कैप्टन नुताल ने यह खबर सुनी तो वह क्रोधित हो गये और भागोजी नाईक को पकड़ने के लिए उनका पीछा किया, लेकिन असफल रहे। भागोजी नाईक को पकड़ने में बार-बार असफल होने के बाद, ब्रिटिश सरकार ने भागोजी नाईक को पकड़ने या सूचना देने वाले के लिए धन और भूमि के बड़े इनाम की घोषणा की।
सन् 1859 में नासिक से भागोजी नाईक को पकड़ने के लिए मेजर फ्रैक्साचेर को विशेष रूप से बुलाया गया था। भागोजी भी अब बूढ़े हो चले थे, लेकिन संकल्प वही था। भागोजी नाईक को दैनिक भागदौड़ और विद्रोहों के लिए एक विश्वसनीय स्थान ढूंढना आवश्यक लगा। उन्होंने खांडेराव काले नाम के एक व्यक्ति के साथ रहना पसंद किया। जो सिन्नर में एक द्वीप पर रहते थे। लेकिन मिठसागरे का एक आर्य ब्राह्मण भागोजी पर नज़र रख रहा था। वह भागोजी पर रखे गए पुरस्कारों की आशा कर रहा था। उन्हें खबर मिली कि भागोजी नाईक, खंडेराव काले हमेशा आते रहते थे। जैसे ही उन्होंने देखा कि भागोजी नाईक 10 नवंबर 1859 की रात को खंडेराव के क्षेत्र में आए, उन्होंने रातोंरात पुलिस को खबर दी। जैसे ही खबर की पुष्टि हुई, भागोजी नाईक की खोज में निकले मेजर फ्रैक्साचेर ने रातों-रात उस क्षेत्र को घेर लिया। सुबह होते ही उस क्षेत्र से जाने वाले पर ब्रिटिश पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी, लेकिन भागोजी ने बहादुरी से इस विकट स्थिति का सामना किया। नौका पर तोपों की दोनों ओर से आग बरसने लगी। मेजर फ्रैक्साचेर भागोजी नाईक को आत्मसमर्पण करने के लिए कह रहे थे, लेकिन भागोजी नाईक ने आत्मसमर्पण स्वीकार नहीं किया। इस वजह से उन्होंने फ्रैक्साचेर की चुनौती को खारिज करते हुए लड़ना जारी रखा। इस युद्ध में भागोजी का एक वीर गिर रहा था। जब भागोजी यह कृत्य अपनी नंगी आँखों से देख रहे थे, तभी एक गोली ने उनकी भी मृत्यु कर दी। यदि भागोजी की हत्या उस समय नहीं की गई होती तो भागोजी के मृत्यु के बाद उनके परिवार का कत्लेआम हुआ होता, तो लड़ाई एक अलग मोड़ ले लेती। क्योंकि निज़ाम की सेना भागोजी की सहायता के लिए आ रही थी। यह सुनकर कि भागोजी मारा गया, सेना को निराश होकर लौटना पड़ा।
इस प्रकार आदिवासी महादेवकोली और भील आदिवासियों का सशस्त्र विद्रोह समाप्त हो गया। जो विदेशी सत्ता के खिलाफ जी जान से लड़ रहे थे। जैसे ही भागोजी जमीन पर गिरे, उनके कबीले की रसोइया आदिवासी महिला ने उनके शरीर को एक गीले गड्ढे में लुढ़का दिया। जैसे ही धुआं कम हुआ और यह निश्चित हो गया कि भागोजी नाईक मर गए हैं, मेजर फ्रैक्साचेर अपनी सेना के साथ विजयी होकर चले गए। इसके बाद भागोजी नाईक का शव मिठसागरे लाया गया। वह दिन 11 नवंबर 1859 था। इसलिए एक मील दूर नंदूर शिंगोटे में भागोजी नायक का विजय स्मारक है।
इस प्रकार से आदिवासी जननायक भागोजी नाईक ब्रिटिश सत्ता के साथ हुआ विद्रोह के विविध संदभों को हम जान-समझ सकते हैं।
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आंध जनजाति के संत मुंगसाजी माऊली
संदर्भ :-
1) आदिवासी आंदोलन का स्वरूप एवं दिशा-दीपक गायकवाड, सुगावा प्रकाशन, पुणे।
2) सतपुड़ा के भील-डॉ. गोविंद गारे, कॉन्टिनेंटल प्रकाशन पुणे।
3) क्रांतिकारी आदिवासी जननायक-प्रा गौतम निकम-विमलकीर्ति प्रकाशन, चालीसगाँव।
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