आदिवासी
विस्थापन
-Dr.Dilip Girhe
जब विस्थापन के विभिन्न
बिंदुओं पर बात होगी तो मुख्य रूप से विस्थापन क्या है, देखना भी जरूरी है।
विस्थापन को ‘अनाधिकारी या बहिष्कृत’ भी कहा जाता है। एस. के. महापात्र ने
विस्थापन की अवधारणा पर अपनी बात इस प्रकार रखी “वे लोग जिन्हें अपना घर, वासभूमि,
खेती की जमीनें या आय की अन्य परिसंपत्तियाँ खोनी पड़ी है।”[1] ये बिंदु बहुत ही महत्वपूर्ण
हैं, जिसके माध्यम से हम विस्थापन की पूरी प्रक्रिया समझ सकते हैं। आदिवासियों का
भी विस्थापन इस परिभाषा के बिल्कुल सटीक रूप में हुआ है जिसमें आदिवासियों को अपना
घर, अपनी झोपड़ी, अपनी वासभूमि यानि की जल-जंगल और ज़मीन खोनी पड़ी। 21 वीं सदी में
आदिवासी अपने विकास का रास्ता ढूंढ रहा है, दूसरी तरफ सरकार की उदासीन नीतियों के
कारण उनकी स्थिति में कुछ भी परिवर्तन नहीं हो रहा है।
प्रत्येक राष्ट्र की विकास
की नीति यही कहती है कि उस देश के नागरिकों को विकास का समान अधिकार मिले, परंतु
हमारे देश की क्या स्थिति है? जाहिर है कि इसी नीति से बहुत सारे लोगों का विकास
आदिवासी लोगों की कीमत पर हुआ। इसी नीति को अपनाकर सभी आदिवासी समुदायों को उनके
लिए बन रही विविध योजनाओं के माध्यम से उनकी प्रगति करनी थी लेकिन सूत्र कुछ उलटा
ही हो गया। अमीरी-गरीबी, उच्च-नीच, वरिष्ठ-कनिष्ठ का भेदभाव समाप्त होने के बजाय
और बढ़ता ही गया। राष्ट्र विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीनें बेशुमार अधिग्रहित
करके उनका जीवन उजाड़ा गया। प्रभाकर तिर्की झारखंड राज्य में आदिवासियों का विकास
के बदले विनाश पर अपना सुझाव देते हुए कहते हैं कि “झारखंड क्षेत्र पिछली कई
सदियों से विनाश की त्रासदी झेलता रहा है। इसके कई ऐतिहासिक कारण हैं। यद्यपि शासक
वर्गों ने झारखंड के विकास के पक्ष में बड़ी-बड़ी दलीलें देकर आम जनता को भ्रमित
करने का प्रयास किया है। परंतु विकास और विनाश की प्रक्रियाओं तथा उसके तुलनात्मक
विश्लेषण से विनाश की कहानी ही प्रमाणित होती है।”[2] सन् 1998 में जब भूमि-अधिग्रहण
संशोधन विधेयक पारित हुआ तब से पुनर्वास बिल फारेस्ट बिल और बायो डायवर्सिटी जैसे
बिलों ने विस्थापन की प्रक्रिया को और भी तेज़ी से निर्मित की और बहुराष्ट्रीय
कंपनियों ने अपने मनमाने ढंग से जमीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। ये दौर
विज्ञान का या भूमंडलीकरण का प्रारंभिक दौर था। संविधान में ऐसे कई कानून बनाए गए,
जिनके तहत आदिवासियों की ज़मीन कोई भी मनमाने तरीके से नहीं खरीद सकता है। लेकिन सत्ताधारियों
ने इन कानूनों में भी अपने फायदे के लिए बदलाव करना शुरू कर दिए हैं, जिसके कारण
आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ रहा है।
दूसरी ओर सरकारी संस्थाओं का
निजीकरण करके आदिवासियों, किसानों, मजदूरों की भारी मात्रा में छंटनी करना शुरू किया
गया है। झारखंड के कोयला खदानों का उदाहरण देखा जाए तो आदिवासी क्षेत्रों में ये
खदानें अधिक मात्रा में हैं। उनकी जमीनें जबरदस्ती खरीदकर उनकी जमीनों से अधिकार हटाया
जा रहा है। कई बार उन पर ही कोयला चुराने का आरोप लगाकर उन्हें जेलों में बंद करके
उन पर अन्याय-अत्याचार किया जा रहा है। इसके कारण आज झारखंड जैसे कई राज्यों में
आदिवासियों को उनकी ही जमीनों पर कुली-मजदूरी का काम करना पड़ रहा है। इन जैसे राज्यों
की दशा एवं दिशा को बदलने के बारे में प्रभाकर तिर्की झारखंड राज्य का उदाहरण देकर
बताते हैं कि “झारखंड राज्य के निर्माण में विचारधारा का सवाल एक अहम् सवाल है।
विचारधारा और झारखंड का सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिरूप उभरकर सामने आता है।
विचारधारा और झारखंडी जीवन दर्शन झारखंड नवनिर्माण के अति महत्वपूर्ण पहलू हैं। आज
झारखंड के विकास की गति यदि बाधित हो रही है तो उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ विचारों
का अंतर्द्वंद्व है जो झारखंड की दशा को दिशा के साथ संचालित नहीं होने देता।”[3] भारत देश विविध विचारधाराओं का
देश है। विचारधारा चाहे कोई भी क्यों न हो उस विचारधारा से उस व्यक्ति या मनुष्य
की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान होती है। कहा जाता है कि विचारधाराओं में वैचारिक
मतभेद हो जाते हैं, परंतु वैचारिक मनभेद नहीं होने चाहिए। इस वैचारिक मनभेद के
कारण ही विविध समाजों में विकास की गति को हरी झंडी मिल गई है। जिसका जीता-जागता
उदाहरण आदिवासी समुदाय है। “किसी भी समाज को बेहतर ढंग से जानने व समझने के लिए जरूरी
होता है कि उसके सामाजिक जीवन के यथार्थ को जानें, जो उसके जीवन की कड़ियाँ होती
हैं। आदिवासी समाज की भी अपनी एक सामाजिक पहचान है जो उनके अपने एक पृथक समाज होने
का बोध कराती है।”[4]
[1]
हसनैन,
नदीम. (2016). जनजातीय भारत. नई दिल्ली : जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स. पृष्ठ
संख्या. 207
[2]
तिर्की,
प्रभाकर. (2015). झारखंड आदिवासी विकास का सच. नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन. पृष्ठ
संख्या. 41
[3]
तिर्की,
प्रभाकर. (2015). झारखंड आदिवासी विकास का सच. नई दिल्ली : प्रभात प्रकाशन. पृष्ठ
संख्या. 72
[4]
वर्मा, डॉ. गीता. गौंड, रविकुमार. (सं.). (2012). वर्तमान
समय में आदिवासी. अलीगढ़ : वाङ्मय बुक्स प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 110
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें