सोमवार, 27 मई 2024

दमयंती सिंकू द्वारा प्रस्तुत 'ऐसा हुआ सृष्टि का सृजन' आदिवासी लोककथा


 

दमयंती सिंकू द्वारा प्रस्तुत 'ऐसा हुआ सृष्टि का सृजन' आदिवासी लोककथा


समूचे देश में पानी ही पानी भरा हुआ था। चारों तरफ पानी ही दिखाई पड़ता था। एक दिन की बात है, सित्रयोंगा (सृष्टिकती) सोचने लगे कि पानी कैसे घटाया जाए। पानी घट जाए तो यहाँ देश-दुनिया बसाई जा सकती है। धरती बनेगी तो संसार बसाएँगे। मगर कैसे? इस पानी का क्या किया जाए। इसी गहन सोच में सिश्त्वोंगा हुबे हुए थे। अचानक उन्होंने सोचा कि क्यों नाहीं एक कछुए का निर्माण किया जाए। सोचने के साथ ही कछुआ बना दिया और उसे पानी में छोड़ दिया। कछुआ पानी में जाते ही सीधे कीचड़ में घुस गया और अपना काम करने लगा। वह नीचे से मिट्टी लेकर ऊपर आता और मिट्टी ऊपर छोड़कर पुनः पानी में चला जाता। याही सिलसिला चल रहा था। सिङबोगा पूरी तन्मयता के साथ सारा घटनाक्रम देख रहे थे। कछुए के नीचे से ऊपर आने तक छोड़ी हुई मिट्टी पानी में तैरती और फैल जाती। सिङबोंगा सोचने लगे, ऐसे में तो काम नहीं चलेगा। ऐसे तो कभी भी मिट्टी का टीला नहीं बन सकेगा। ठीक उसी समय कछुआ मिट्टी लेकर ऊपर आया। सिङबोंगा कछुए से बात करने लगे।

"अच्छा ये बताओ कि ऐसा और कौन है, जो मिट्टी को नीचे से ऊपर ला सके ?"

"में भत्ता अकेला क्या करूं? एक हाथ एक मुँह वाला जीव हूँ में। हे सिङबोंगा। आप ऐसे जीव का निर्माण करें, जिसके अधिक हाथ हों ताकि अधिक मिट्टी निकाली जा सके।" कछुए ने आग्रह किया।

कछुए की बात सुनने के बाद सिङबोंगा सोच में पड़ गए। कुछ सोचने के बाद उन्होंने एक केकड़ा बनाया और पानी में छोड़ दिया। केकड़े के दोनों तरफ पाँच- पाँच हाथ थे। पानी में जाते ही उसने अपना काम शुरू कर दिया। दस हाथों से ज्यादा मिट्टी आने लगी। सिङयोंगा चुपचाप देख रहे थे। केकड़ा पूरी गति से मिट्टी निकालने का काम कर रहा था। मगर ये क्या! केकड़े द्वारा लाई गई मिट्टी भी पानी में टिक नहीं पा रही थी। मिट्टी पानी के ऊपर तैरती नज़र आ रही थी। सिङबोंगा को लगा कि यह तरीका भी सफल नहीं होगा। सारी मिट्टी तो तैर रही है। केकड़ा पूरी ताकत के साथ मिट्टी लाता, मगर मिट्टी टिकती नहीं थी।

'कौन होगा जो ऊपर मिट्टी ला सके और रख सके? पानी भी बहुत है।' सिङबोंगा चिंतन-मनन करने लगे। तव सिङबोंगा ने अपनी जाँघ की गंदगी रगड़कर निकाली और दो केंचुए बनाए। एक नर केंचुआ दूसरा मादा केंचुआ। फिर उन्हें पानी में छोड़ दिया। दोनों को पानी में छोड़ने के बाद सिङचोंगा उन दोनों के ऊपर आने का इंतज़ार करने लगे। मगर वे दोनों निकले ही नहीं। सिङबोंगा चिंतित हो गए। उन्हें लगा शायद दोनों केंचुए पानी में जाते ही मर गए हैं, इसीलिए ऊपर नहीं आ रहे हैं। किंतु सिङबोंगा को क्या मालूम कि केंचुओं के जोड़े ने अंदर ही अंदर अपना काम करना शुरू कर दिया है। केंचुआ जोड़ा पानी के अंदर ही अपने वंश की वृद्धि भी करने लगा था। इस सबसे सिङयोंगा अनजान थे। समस्त केंचुआ परिवार मिलकर युद्ध-स्तर पर काम कर रहा था। कुछ दिन बाद सिङबोंगा को पानी में मिट्टी का एक टीला दिखा। सिङबोंगा मुस्कुराने लगे। 'ओह! ये दोनों तो अंदर ही अंदर काम कर रहे थे।'

सिङबोंगा ने तो कुछ और ही सोचा था। केंचुआ मिट्टी खा-खाकर उसे पानी पर निकालता जा रहा था। मिट्टी कहीं ऊबड़खाबड़ सी दिखने लगी थी। पानी की अधिक गहराई में केंचुओं का जोड़ा गया ही नहीं था। इस तरह पृथ्वी का निर्माण होने लगा। पानी के स्तर से मिट्टी ऊपर आने लगी। इसीलिए केंचुए को पृथ्वी का निर्माणकर्ता कहा जाता है। पृथ्वी-निर्माण में कछुआ, केकड़ा सभी लगे रहे, मगर सफल न हो सके। इसीलिए आज तक वे पानी के किनारे ही निवास करते हैं। ये पृथ्वी पर आकर ही अंडा देते हैं। केंचुआ पानी के नीचे ही रहता है और मिट्टी खाकर ऊपर निकालता है। इस तरह पृथ्वी का निर्माण हुआ।

पृथ्वी का निर्माण होने के बाद सिङयोंगा सोचने लगे कि पृथ्वी तो बन गई मगर पृथ्वी खाली और सूनी-सूनी लग रही है। तीन तरफ तो पानी ही पानी है और एक हिस्से में जो ज़मीन बनी भी है वह भी खाली ही पड़ी है। क्यों न इस पर किसी को बसाया जाए? एक दिन सिङबोंगा ने कछुए, केकड़े और केंचुए बुलाए और सलाह-मशवरा करने लगे।

"धरती पर कहीं ऊँचा-नीचा है, तो कहीं पहाड़ है। कहीं जंगल बना है, तो कहीं नदी-नाले बने हैं। कहीं-कहीं समतल है, तो कहीं टीला बना है। हे सिङबोंगा ! अभी आप हाथ-पैर वाले जीय बनाइए जो ऊँची-नीची ज़मीन को समतल कर सकें और उसे खेती योग्य बनाएँ। हम लोग इस तरह का काम नहीं कर सकेंगे।" तीनों ने उन्हें सुझाव दिया।

गहन सोच के बाद सिङबोंगा ने नर-मादा का निर्माण किया और दोनों का नाम सुरमि-दुरमि रखा। उन दोनों को ज़मीन समतल करने का काम सौंप दिया गया। मगर एक दिन दोनों जने सिङबोंगा से गुहार करने लगे।

"हम दो प्राणियों से समस्त पृथ्वी का काम नहीं हो सकेगा, सिङयोंगा।" सुरमि-दुरमि ने सिङबोंगा से कहा।

"ठीक है। तुम दोनों की मदद के लिए मैंने संइल, सरम, भालू, शेर, हाथी और अन्य जीव-जंतु बना दिए हैं।" सिङयोंगा ने उन्हें आश्वस्त किया। सभी जीव-जंतु के सहयोग से ज़मीन समतल हुई और घास-फूस, जंगल का निर्माण हो सका ।

सुरमि-दुरमि दोनों बहुत शर्मीले थे। वे किसी के सामने नहीं आते थे। दोनों गत के अंधेरे में काम किया करते थे। दोनों ने मिलकर तालाबों का भी निर्माण कर डाला। तालाब बनाने में सुबह हो जाती थी। तालाब को आज भी सुरमि-दुरमि तालाब के नाम से जाना जाता है।

अब पृथ्वी पर पूरी तरह घास-फूस उगने लगी। जंगल, पहाड़ आदि भी पूरी तरह बन गए। एक दिन सिङबोंगा इन सभी चीज़ों को बैठकर निहार रहे थे।

'कितना सुंदर दिख रहा है। पहले तो चारों तरफ पानी ही पानी दिखता था। अभी सचमुच बहुत सुंदर दिख रहा है।' उन्होंने मन ही मन सोचा।

सिङयोंगा के मन में विचार आया कि क्यों न वे इन सब चीज़ों की देखभाल करने वालों का निर्माण करें।

"हे सिङबोंगा। कल को तुम्हारी सेवा-शुश्रूषा कौन करेगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? इसलिए हाथ-पैर वाले जीवों का भी निर्माण कर ही दीजिए।" ठीक उसी वक़्त सुरमि-दुरमि ने भी सिङबोंगा से आग्रह किया।

इतना सुनते ही सिङबोंगा ने एक मूर्ति का निर्माण किया। उन्होंने उस मूर्ति में फूंककर प्राण भी डाल दिए।

"पहले तो आपने सबके जोड़े बनाए हैं, फिर आपने इनका जोड़ा क्यों नहीं बनाया?" मूर्ति को देखकर सुरमि-दुरमि ने पूछा।

उनकी बात सुनकर सिड्योंगा ने अपनी बाई पसली की हड्डी निकाली और एक मादा का निर्माण कर दिया। उन्होंने नर का नाम 'लुक' और मादा का नाम 'लुकुमि' रखा। दोनों जन इधर-उधर घूम-फिरकर खुशी-खुशी जीवन-निर्वाह करने लगे। दोनों भोजनस्वरूप फल-फूल खाकर पेट भर लिया करते थे। वे इसी तरह जिंदगी जी रहे थे। एक दिन लुकु-लुकुमि इधर-उधर घूमते हुए काफी दूर निकल गए। जब वे दोनों इधर-उधर भटक रहे थे और फल-फूलों का 'सेंदरा' कर रहे थे, तो उन्हें इमली दिखाई दी। इसे मेरे लिए तोड़ दो, मैं इसे खाऊँगी। दिखने में ही यह इतनी सुंदर दिख रही है, खाने में कितनी स्वाद लगेगी?" लुकुमि ने लुकु से कहा।

दोनों ललचाई निगाहों से उसे निहारने लगे। दोनों ने इमली तोड़ी और खा ली। इमली खाने के बाद उन्हें खुशी के साथ-साथ शरीर में गुदगुदी का अहसास भी हुआ। दोनों को यह ज्ञान हो गया कि वे दोनों नंगे हैं। अपने नंगेपन का अहसास होने पर उन्होंने पत्तों से तत्काल अपनी देह ढक ली। वे पत्तों के झुरमुट में छिपने लगे। ठीक उसी समय सिङबोंगा ने दोनों को आवाज़ दी। दोनों शर्म से सिकुड़कर छिपने लगे। अंत में छिपते-छिपाते बाहर निकले और सिडबोंगा के समक्ष आए।

"तुम दोनों को मना किया था न इमली खाने से? फिर भी तुम दोनों ने इमली खाई। इमली खाने के बाद जो हरकत तुम दोनों के शरीर में हुई, उससे तुम्हें लाज-शर्म का अहसास होने लगा है। आज मैं तुम दोनों को मेरी बात न मानने के अपराध में श्राप देता हूँ। तुम दोनों आजीवन जाड़ा, गर्मी, बरसात में काम में लगे रहोगे। तुम लोगों को काम के बदले ही खाने-पीने को कुछ नसीब होगा।"

सिङबोंगा ने उन दोनों को दूसरे क्षेत्र में भेज दिया। फलतः लुकु और लुकुमि ज़मीन से जुड़े खेतीबारी के तमाम काम करने लगे। जीव-जंतु बढ़ने लगे।

मगर मानव की सृष्टि नहीं हो रही थी। लुकु-लुकुमि रात को सोते वक़्त बीच में मूसल रखकर सोते थे। वे दोनों एक-दूसरे से सटते नहीं थे। दोनों की इस हरकत से सिङबोंगा नाखुश थे। वे जानते थे कि यदि दोनों ऐसा ही करेंगे, तो मानव की सृष्टि कभी नहीं होगी। मनुष्य कभी नहीं बढ़ेंगे। इसलिए उन्होंने सोचा कि उन्हें ऐसा करने से रोकना होगा। एक दिन सिङवोंगा एक बूढ़े आदमी का रूप धारण करके उन दोनों के पास आए। उन्होंने दोनों को सलाह दी कि वे दोनों सगह (जंगल-थास) से हॅड़िया बनाकर पिएँ।

उस सिङबोंगारूपी बूढ़े ने उन्हें हँड़िया बनाने की विधि भी बताई। दोनों ने वैसा ही किया, जैसा कहा गया था। हँड़िया पीकर उन पर नशा छाने लगा। दोनों रात में सोते वक़्त बीच में मूसल रखना भूल गए और रात में दोनों एक हो गए। उनमें पति-पत्नी का रिश्ता कायम हो गया। कुछ सप्ताह के बाद लुकुमि गर्भवती हो गई। दिन-महीने गुज़र गए। बच्चे का जन्म हुआ।

"आपने मुझे पाप करने के लिए मजबूर किया। देखिए। ये दोनों मेरी हंड़िया पीकर एक हो गए हैं। चलिए, कोई बात नहीं।" सगह ने सिडबोंगा से कहा। एक दिन बच्चा बीमार होने लगा। लुकु-लुकुमि परेशान होने लगे। दोनों सिङबोंगा को 'ततंग' (दादा जी) बुलाते थे। लुकु ततंग के पास चला गया और बच्चे की बीमारी के बारे में बताने लगा। "क्या करूं?

बच्चा बहुत बीमार है।" उसने ततंग से विनती की।
ततंग कहने लगे, "तुम दोनों अरवा चावल और सफेद मुर्गा जुगाड़ कर उसकी पूजा करो। बच्चा ठीक हो जाएगा।" ततंग ने सुझाव दिया।

"ततंग! आप ही मेरे बच्चे के लिए पूजा कर दें। पूजा में चढ़ाए गए मुर्गे कया आप ही सेवन करें।" लुकु ने अनुरोध किया।

"न में मुर्गा खाता हूँ और न ही पूजा करूंगा। तुम दोनों ये पूजा स्वयं ही करना।" ततंग ने कहा।

लुकु ने ततंग के कहे अनुसार पूजा की। पूजा से वापस घर लौटा, तो देखा कि मुर्गा काटने वाली बैठी वहीं छूट गई थी। वह उसे लाने के लिए वापस गया, तो देखा कि ततंग बूढ़े वेश में पूजा में अर्पित किया गया खून और चावल चाट रहा था।

"आप तो कह रहे थे कि आप मांस का सेवन नहीं करते, तो मुर्गे का टपका हुआ खून क्यों चाट रहे हैं?" लुकु ने ततंग से प्रश्न किया।

सिङबोंगा सोचने लगे, "ये दोनों तो मुझे जब-तब ऐसे ही देखते रहेंगे। क्यों न इन दोनों की आँखें ही गंदी कर दें कि वे दोनों मुझे देख ही न सकें।"

इसके बाद ततंग के रूप में सिङबोंगा कभी दिखाई नहीं दिए। इसीलिए आज तक हम लोग सिङबोंगा के नाम की पूजा करते हैं। उन्हें मुर्गा, अरवा चावल इत्यादि अर्पित करते हैं, मगर वे हमें दिखाई नहीं देते। हम लोग सुख-दुःख में सिङबोंगा को याद करते हैं, मगर फिर भी वे दिखाई नहीं देते। उन्होंने हमारे लिए देश-दुनिया बनाई, पृथ्वी बनाई, मानव का सृजन किया, मगर सिङबोंगा आज तक अदृश्य हैं। अदृश्य महान् शक्ति की आज भी लोग सेवा-शुश्रूषा एवं पूजा-उपासना करते हैं।

टिप्पणी : यह पूरी सृष्टि के निर्माण और विकास की लोककया है, जिसमें धरती, प्रकृति, जीव-जंतु और मनुष्य के सूजन की प्रक्रिया शामिल है। इस कथा में भी आदिवासियों पर ईसाइयों के प्रभाव का पता चलता है। आदम की पसली से हौवा को बनाने की घटना का यहाँ सीधा प्रभाव दिखता है। हीवा द्वारा वर्जित फल खाना एवं यहाँ लुकुमि द्वारा इमली तोड़कर खाना एक-सी घटनाएँ हैं। यहाँ शैतान नहीं स्वयं सिङयोंगा ही स्त्री-पुरुष में प्रेम जगाने का उपाय करता है ताकि शांति हो और सृष्टि का विकास हो। (संपादक)

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संदर्भ:
रमणिका गुप्ता-आदिवासी सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएं



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