बुधवार, 15 मई 2024

दिगम्बर हांसदा द्वारा प्रस्तुत: पृथ्वी की उत्पत्ति की आदिवासी लोककथा-Digamber Hansada Dvara Prastut : Prithvi Utpatti Ki Aadiwasi lokKatha


 

दिगम्बर हांसदा द्वारा प्रस्तुत: पृथ्वी की उत्पत्ति की आदिवासी लोककथा

भारतीय साहित्य में लोककथाओं का प्रचलन काफ़ी रहा है। यह कथा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। अपने परिवार में सबसे बुजुर्ग व्यक्तियों द्वारा इन कथाओं बताया जाता है। आदिवासी लोककथाएं भी काफी लंबे समय से एक दूसरे को बताई जाती रही। पहले इन कथाओं का मौखिक रूप में ज्यादा प्रचलन था। किंतु आज आदिवासी साहित्य का स्वरूप लिखित रूप में सामने आ रहा है। इसी वजह से आज आदिवासी लोककथाएं भी लिखित रूप में मौजूद है। इसी लोककथाओं में से एक पृथ्वी सृजन की लोककथा आप सभी के सामने प्रस्तुत है।

"आदिकाल में पृथ्वी नहीं थी। बाद में पृथ्वी को बनाया गया। पृथ्वी की उत्पत्ति या बनाने के बारे में वाचिक परंपरा के तहत तरह-तरह की कथाएँ प्रचलित हैं। लोग इसके बारे में यह चर्चा भी करते हैं कि इस पृथ्वी की निर्मिति किसी ने न आँखों से देखी है और न किसी की पहुँच के भीतर है। इस बात को लोग कानोकान सुनते हुए, आज तक अपनी स्मृति में रखते हुए आए हैं कि पहले तो यहाँ पानी ही पानी था, जिसे लोग समुद्र कहा करते थे। यहाँ अंधकार ही अंधकार था। ठाकुर जी अंधकार में ही रहा करते थे। वे समुद्र के पानी में चलते-फिरते भी थे। किसी जगह नहाने का एक निश्चित स्थान भी था, जहाँ ऊपर से एक काव्य-कालिक आए। वे तोड़े सुताम' के धागे से ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आया-जाया करते थे।
'एक दिन की घटना है कि वे अपने कपड़े स्नान करने की जगह पर उतारकर नहाने चले गए और अपनी छाती से मैल रगड़-रगड़कर निकालने लगे। न जाने क्या सोचकर उन्होंने उस शरीर के मैल से दो पक्षियों का निर्माण कर दिया और उन दोनों को अपने कपड़ों के पास रख दिया। उन्होंने स्नान के बाद अपने कपड़ों पर पानी छिड़का। वह पानी कपड़ों के साथ-साथ दोनों पक्षियों के ऊपर भी पड़ा। पानी की बूँदें पड़ने से वे दोनों पक्षी जी उठे और आकाश में उड़ने लगे। ठाकुर जी ने उन दोनों का नाम रखा हंस और हंसिनी।
दोनों हंस और हंसिनी आकाश में ही उड़ते रहे। कहीं पर विश्राम लेने का स्थल नहीं मिलने से वे पानी में उतर गए और पानी में ही चरने लगे। एक दिन उन दोनों ने पानी में चरते-चरते, माराङ बुरू को पानी पर विश्राम करते हुए देखा। वे दोनों हंस और हंसिनी जाकर माराङ बुरू की देह पर बैठ गए। वे दोनों प्रतिदिन उनके शरीर पर आकर विश्राम करने लगे। इससे माराङ बुरू परेशान हो गए।
वे सोचने लगे कि 'ठाकुर जी ने दोनों पक्षियों को तो बनाया, लेकिन उन्हें रखने का कोई स्थान क्यों नहीं बनाया? दोनों को वे कहाँ रखेंगे।'
माराङ बुरू ने ठाकुर जी से हाथ जोड़कर पूछा, "आपने इन दो हंस और हंसिनी को तो बना दिया किंतु हम उन दोनों को कहाँ रखें?" ठाकुर जी ने उस समय कोई उत्तर नहीं दिया।
कुछ दिनों बाद ठाकुर जी ने माराङ बुरू से कहा, "हम सभी देवताओं की एक बैठक बुलाएँगे। उस बैठक में निर्णय होने तक आप इन्हें अपने शरीर पर बैठने की इजाज़त दीजिए।"
सभी देवताओं की बैठक हुई। देवताओं ने ठाकुर जी से आकस्मिक बैठक बुलाने का कारण पूछा।
"मैंने दो पक्षियों को बनाया है, उन दोनों को हम कहाँ रखेंगे, उनके रहने के लिए जगह कहाँ बनाई जाएगी, इसी के लिए यह आवश्यक बैठक बुलाई गई है।" ठाकुर जी ने उत्तर दिया।
लंबे विचार-विमर्श के बाद सर्व सम्मति से निर्णय लिया गया कि इन दोनों प्राणियों के लिए पृथ्वी का निर्माण किया जाए। तब प्रश्न उठा कि पृथ्वी के लिए समुद्र से मिट्टी कौन निकालेगा? तय पाया गया कि इस समुद्र के पानी के प्रधान या मालिक को खोजकर उनसे संपर्क किया जाए। सभी की राय थी कि राघोब बोआड़ मछली ही पानी की मालिक है। माराङ बुरू ने राघोब बोआड़ मछली को बुलाया ।
"क्या आप पानी की मालिक हैं?" माराङ बुरू ने पूछा।
"हाँ, मैं ही पानी की मालिक हूँ।" बोआड़ मछली ने उत्तर दिया।
"क्या आप पानी के नीचे से मिट्टी ला सकती हैं?"
"आप लोग आदेश देंगे तो मैं कोशिश करूँगी।" बोआड़ ने कहा।
बोआड़ मछली पूँछ हिलाते हुए पानी के भीतर चली गई। कौन जानता है
कितने पानी के भीतर मिट्टी मिली। मिट्टी लाते समय ही सारी मिट्टी पानी में बह गई।
वह केवल शैवाल और कमल के फूल का डंठल ही अपनी पीठ पर ला सकी।
"आप धरती के लिए मिट्टी नहीं ला सकीं?" माराङ बुरू ने पूछा। राघोब बोआड़ ने इसे स्वीकार किया। मिट्टी उठाने के क्रम में ही देह रगड़ने के कारण राघोब बोआड़ मछली का शरीर चिकना हो गया था। आज भी उसी तरह का है। राघोब बोआड़ मछली से पूछा गया कि तुम्हारे बाद पानी का मालिक कौन है?
"मेरे बाद बड़ी चिंगड़ी मछली है।" बोआड़ मछली ने उत्तर दिया।
बड़ा गोल्दा चिंगड़ी मछली को मिट्टी उठाने के लिए कहा गया। गोल्दा चिंगड़ी ने मिट्टी उठाने के लिए सहमति प्रकट की। मिट्टी उठाने के वक़्त उससे कहा गया कि वह अपनी मुंडी वहीं छोड़कर जाए। उसे आश्वस्त किया गया कि मिट्टी उठाने के बाद उसे उसकी मुंडी वापस मिल जाएगी। बड़ा गोल्दा चिंगड़ी धरती के लिए मिट्टी उठाने पानी के भीतर चली गई। न जाने कितनी दूर जाकर उसे मिट्टी मिली। खैर, मिट्टी मिल गई। वह मिट्टी को पीठ पर रखकर अपने दोनों चिमटों से ला रही थी कि सारी मिट्टी पानी में ही वह गई। दोनों चिमटों से एक प्रकार का 'सिराम' नामक पौधा और दूसरे से 'धुव घास' (दुबली घास) ही चिपकी रह गई थी, वह वही ला सकी थी। पृथ्वी के लिए मिट्टी लाने में असफल रहने के कारण आज भी चिंगड़ी मछली का सिर नहीं होता। चिंगड़ी मछली से भी पूछा गया कि तुम्हारे बाद उस दरिया का मालिक कौन है? उसने बताया कि मेरे बाद पानी का मालिक 'काटकोम-कुवार' अर्थात् केकड़ा है।
केकड़े को बुलाया गया। उससे पूछा गया कि क्या वह उस दरिया के पानी का मालिक है? उसने स्वीकार किया कि वह उसका मालिक है। उसे पृथ्वी के लिए दरिया के भीतर से मिट्टी लाने को कहा गया। उसे भी अपना सिर देवताओं के पास छोड़ देने को कहा गया। वह भी दरिया के भीतर से पृथ्वी बनाने के लिए मिट्टी लाने चला गया। मिट्टी तो उसे मिली किंतु पानी के ऊपर तक लाते-लाते, सब मिट्टी बह गई। उसके एक चिमटे से 'इचा' नामक पौधे की जड़ एवं दूसरे से 'सिराम' नामक पौधे की जड़ ही बचकर ऊपर आ पाई। देवताओं ने उसे रख लिया किंतु उसका सिर उसे नहीं लौटाया। इसीलिए आज भी केकड़े के शरीर पर सिर नहीं होता।
फिर उससे भी पूछा गया कि तुम्हारे बाद इस दरिया के पानी का मालिक कौन है? उसने कहा मेरे बाद इस दरिया के पानी का मालिक 'काछिम कुतार' अर्थात् कछुआ है।
इसके बाद काछिम को भी बुलाया गया और उससे पूछा गया कि क्या वह इस दरिया के पानी का मालिक है? उसने भी स्वीकार किया कि केकड़े के बाद वही मालिक है। उसे भी दरिया से मिट्टी उठाने के लिए कहा गया। उसने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया और कहा कि वह मिट्टी नहीं उठा सकता। अगर कोई दरिया के नीचे से मिट्टी ऊपर ले आए, तो वह मिट्टी को अपने ऊपर रख सकता है। काछिम कछुए से उन सभी देवताओं ने पूछा कि उसके बाद इस दरिया के पानी का मालिक कौन है? तो कछुए ने कहा कि मेरे बाद इसका मालिक झिझोली अर्थात् केंचुआ है।
फिर केंचुए को बुलाया गया। उससे भी वही पूछा गया कि क्या वह इस दरिया के पानी के भीतर से धरती के लिए मिट्टी ला सकता है?
"मैं मिट्टी तो ला सकता हूँ किंतु मुझे तो मछली ही खा जाएगी।" उसने कहा। उन लोगों ने कहा कि उसकी सुरक्षा के लिए पहले ही व्यवस्था कर ली गई है। उसे किसी तरह का डर या भय नहीं होना चाहिए। उन लोगों ने उसे कमल के फूल के डाटा के भीतर घुसने को कहा। फिर कमल के डाटा को वह तब तक जोड़ते चलेगा जब तक पानी के नीचे मिट्टी नहीं मिल जाती।
उसके बाद कछुए को पानी के ऊपर तैरते हुए रखा गया। झिझोली अर्थात् केंचुवा मिट्टी को मुँह से खाता रहा और पीछे से मिट्टी निकालकर कछुए की पीठ पर हगता रहा। कछुआ मिट्टी के भार से डगमगाने लगा। इससे सारी मिट्टी पानी में गिरकर बह गई।
इस पर सभी अफसोस करने लगे और कहने लगे कि धरती तो बन गई थी, कछुए के हिलने से सारी मिट्टी पानी में बह गई। फिर बैठक हुई। उसमें यह विचार किया गया कि कछुए के चारों पैरों को चार लोहे के खूँटों में जंजीर से बाँध दिया जाए, तो उसके हिलने का भय नहीं रहेगा और धरती बनकर तैयार हो जाएगी। किंतु कछुए ने कहा कि उसका एक पैर खुला रखा जाए ताकि कभी-कभार हिलने का अवसर मिल सके। जब कछुआ हिलता है, तो लोग समझते हैं कि इसी कछुए के हिलने के कारण ही यह भूकंप आया है।
तब सोच-विचार के बाद कछुए की पीठ पर जमा की गई मिट्टी को समतल किया गया। समतल करने के समय जहाँ-जहाँ पत्थर-मिट्टी का ढेर हो गया था वहाँ पहाड़-पर्वत बन गए और जहाँ-जहाँ गड्ढे हो गए थे वहाँ नदी-नाले बन गए।
इस प्रकार इस पृथ्वी का जन्म हुआ।"

निष्कर्ष
इस कथा में केवल पृथ्वी-सृजन की ही प्रक्रिया व विकास-क्रम की कल्पना नहीं की गई है, बल्कि पानी के अन्य जीवों व प्राणियों की शारीरिक संरचना को भी व्याख्यायित किया गया है। फिर भी इन कथाओं पर गैरआदिवासी भारतीय संस्कृति की मूल कथाओं का प्रभाव हिंदू पौराणिक कथाओं पर भी पड़ा होगा। कमल या उसके डंठल का प्रयोग हिंदू संस्कृति में भी हुआ है।
संकलन-Dr. Dilip Girhe

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संदर्भ:
रमणिका गुप्ता-आदिवासी सृजन मिथक एवं अन्य लोककथाएं पृष्ठ-19-22

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