मंगलवार, 14 मई 2024

खाज्या नाईक के पिता गुमान सिंह का स्वाधीनता आंदोलन-Khajya Naik Ke Pita Guman Singh Ka Swadhinata Ka Aandolan


 खाज्या नाईक के पिता गुमान सिंह का स्वाधीनता आंदोलन 
-Dr.Dilip Girhe

महाराष्ट्र के खानदेश भू-प्रदेश में अनेक आदिवासियों ने स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है। इसमें खाज्या नाईक के पिता गुमान सिंह नाईक योगदान भी काफी महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन इसके इतिहास में न के बराबर संदर्भ प्राप्त होते हैं। हम इस लेख के माध्यम से खाज्या नाईक के पिता गुमान सिंह ने स्वाधीनता के लिए जो संघर्ष किया है। उसके प्राप्त अनेक संदर्भों को विश्लेषित करने का प्रयास किया है। तो चलिए हम इस छोटे से लेख के माध्यम से गुमान सिंह नाईक का स्वाधीनता आंदोलन के योगदान को जानने-समझने की कोशिश करते हैं। 
गुमान सिंह का नाम खानदेश के आदिवासी जनानानाकों में लिया जाता है। वे नाईक खाज्या नाईक या काजी सिंह नाईक के पिता थे, उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम अपना बलिदान दिया है।  गुमान सिंह नाईक उन नायकों में से एक थे जिन्होंने 1818 के दौरान खानदेश के सेंधवा, पलासनेर, थालनेर में सेवा की थी। इस प्रदेश के वे लोकप्रिय नायक थे। वे होलकर द्वारा नियुक्त सैंधवा घाट के पारंपरिक संरक्षक थे और उनका दावा था कि अहिल्याबाई के समय से ही सैंधवा घाट की सुरक्षा का काम उनके पास आ गया था। उसके वर्चस्व में चार सौ हथियारबंद भील घुड़सवार थे। उस दौरान उस क्षेत्र के सभी भील सरदारों पर उनका नियंत्रण था। अंग्रेजों ने इसे सतपुड़ा का एक ‘दुर्जेय जानवर’ बताया था । 
पेशवाई पतन के बाद महिदरपुर की लड़ाई के बाद खानदेश को होलकरों से अंग्रेजों को हस्तांतरित कर दिया गया और कैप्टन जॉन ब्रिग्स को खानदेश के पहले कलेक्टर व राजनीतिक एजेंट के रूप में नियुक्त किया गया। उस समय ‘कुकुरमुंडा’ के ठाणे पर भीलों का भारी दबाव था। इसलिए सबसे पहले जॉन ब्रिग्स को ‘कुकुरमुंडा’ में नियुक्त किया गया। उन्होंने वहां की परिस्थितियों को देखकर भीलों की स्थिति का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया और शुरू से ही भीलों के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण बनाए रखा। खानदेश के इन भील नायकों से सामना करना उन्हें बहुत कष्टदायी था। इसलिए बॉम्बे प्रेसीडेंसी के तत्कालीन गवर्नर माउंट स्टुअर्ट एल्फिस्टन के परामर्श से उन्होंने खानदेश के भीलों को नियंत्रण में लाने और उनका पुनर्वास करने का प्रयास किया। 
कैप्टन जॉन ब्रिग्स 1818 से 1823 तक खानदेश के कलेक्टर और राजनीतिक एजेंट थे। उन्होंने यह महसूस किया था कि भील नायकों को किसी भी प्रकार से वश में नहीं किया जा सकता था। सबसे पहले उन्होंने उनको अपने विश्वास में लिया। उनके साथ कई समझौते किए, उन्हें गाँवों से पुरस्कृत कर उनको वार्षिक वेतन निर्धारित किया। और बदले में उन्हें अपने लोगों के साथ काम करने की जिम्मेवारी का काम सौंपा। उन्हें घनें वन घाटों के माध्यम से माल यातायात और यात्री यातायात की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। कैप्टन जोस ब्रिग्स ने सबसे पहले गुमान सिंह को कुकुरमुंडा के पास डोंगरी में बुलाया और घोषण की कि उनकी सहायता के लिए 40 लोगों की एक सेना नियुक्त की गई। इन सबका और सैंधवा घाट से आने वाले सामान का 4000 रुपये सालाना यातायात सुरक्षा के लिए जिम्मेदार गुमान सिंह रहेंगे।
भील सरदार लंबे समय से जंगल में घाटों और दरियों की रखवाली करने और अपने काम के बदले मामूली शुल्क लेने का काम करते रहे हैं, इस काम की वजह से उन्हें ‘काबसेकर’ कहा जाता था। इस पारंपरिक कराधान प्रणाली में थोड़ा संशोधन करते हुए, अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि भीलों को घाट सड़कों की सुरक्षा के लिए काम करना चाहिए, लेकिन उन्हें स्वयं कर इकट्ठा करने की अनुमति देने के बजाय, उनके श्रम का भुगतान सरकारी खजाने से किया जाने लगा। सैधवा घाट उस समय खानदेश से उत्तर की ओर जाने वाले आगरा मार्ग पर एक अत्यंत सामरिक एवं खतरनाक स्थान था। गुमान सिंह नाईक को यहां से गुजरने वाले सामान और यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। यह काम करते समय गुमान सिंह को यात्रियों या माल परिवहन करने वालों से स्वयं कर वसूलने की इच्छा होती थी। एक बार अमृता राव ने पेशवा के आदमियों से भी कर वसूला। परंतु उनके द्वारा किए जा रहे कार्य के महत्व को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें अधिक कष्ट नहीं दिया और उन्होंने अंग्रेजों के साथ हुए समझौते के प्रति निष्ठापूर्वक अपना कार्य भी किया।
खानदेश की विजय के बाद शुरू में ब्रिटिश अधिकारियों ने स्थानीय किलों और वतनदारों के साथ बहुत कठोरता से व्यवहार किया। उन्होंने कई लोगों को मार डाला। कुछ को गोली मार दी गई। गुमान सिंह ने यह अपनी आँखों से देखा था। अंग्रेजों ने  समय की चाल को समझते हुए 1818 से 1823 तक गुमान सिंह द्वारा सौंपे गए कार्य को ज्ञान को ध्यान में रखते हुए कहा कि अंग्रेजों के हाथों फांसी पर चढ़ने या झुकने की बजाय झुकने और अंग्रेजों की मदद करने में कोई बुराई नहीं है। गुमानसिंह ने सोचा कि अंग्रेज उपद्रवी भील नायकों और उनके साथियों को लूट-पाट से हतोत्साहित करके उनके पुनर्वास का अच्छा काम कर रहे हैं और हमें अपने भाइयों की भलाई के लिए उनकी मदद करनी चाहिए। जॉन ब्रिग्स के बाद आने वाले ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गुमान सिंह के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया। सन् 1831 में गुमान सिंह कूटनीति से अंग्रेजों में मार दिया। उसके बाद उनके ही पुत्र काजी सिंह उर्फ खाज्या नायक को सेंधवा घाट की सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया।
इस प्रकार से आदिवासी जननायकों में खानदेश के वीर गुमान सिंह के आंदोलन को उपरोक्त कुछ महत्वपूर्ण तथ्थों के जरिये हम समझ सकते हैं।

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संदर्भ:
प्रा.गौतम निकम-क्रांतिकारी आदिवासी जननायक  

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