महाराष्ट्र के आदिवासी समुदाय का सामाजिक एवं सांस्कृतिक संबंध
-Dr.Dilip Girhe
- प्रस्तावना:
महाराष्ट्र में लगभग 46 आदिवासी समुदाय मिलते हैं। इन प्रत्येक समुदाय की अपनी सामाजिक एवं सांस्कृतिक परंपरा हमें आज भी मिलती है। इन्हीं परम्पराओं के कारण ‘आदिवासियत’ के सिद्धांत आज भी हमें प्राप्त होते हैं। तो चलिए हम इस लेख के माध्यम से महाराष्ट्र के आदिवासी समुदाय के सामाजिक सांस्कृतिक विशेषताओं को खोजने का प्रयास करते हैं।
- कुल एवं टोटम:
संपूर्ण विश्व के प्रत्येक आदिवासी समुदायों के अपने-अपने 'कुलप्रतिक' एवं 'टोटम' पाए जाते हैं। जिन्हें ‘उपनाम या सरनेम’ भी कहते हैं। इस उपनाम का परिवार और कुल में शामिल सभी सदस्यों का एक दूसरे से रक्त संबंध का रिश्ता का होता है। जिसे या खून का रिश्ता भी माना जाता है। यह रक्त संबंध एकतरफा या द्विपक्षीय सिद्धांतों पर स्थापित होता है। द्विपक्षीय मामलों में परिवार के सभी सदस्य शामिल होते हैं, जबकि एकतरफा मामलों में सिर्फ कबीला ही शामिल होता है। कई मानववैज्ञानिकों ने कुल के लिए 'कबीले' शब्द का प्रयोग किया है। कबीला एक गुट का या एक समूह होता है। टोटम के दृष्टिकोण से वे सभी एक ही जाति समूह के होते हैं। साथ ही ‘कुल’ में पितृवंशीय रिश्तेदार शामिल होते हैं।
- वंश परंपरा:
"एक कबीला पुरुषों और महिलाओं का एक समूह है जो वंश की एक ही रेखा द्वारा परिभाषित होता है। वंश की यह रेखा वास्तविक या काल्पनिक हो सकती है। लेकिन साथ ही वंश की एक रेखा के प्रत्येक सदस्य में एक के प्रति जिम्मेदारी की एक निश्चित भावना होती है।" एकपक्षीय सिद्धांत पर आधारित रिश्तेदारी को वंश कहा जाता है। "एक कबीला मुख्य रूप से वंशजों का एक समूह होता है। यह कबीला किसी काल्पनिक पूर्वज से उत्पन्न होता है। यह पूर्वज एक इंसान या मानवरूपी जानवर एक पौधा या एक निर्जीव वस्तु हो भी हो सकता है।"
- एकपक्षीय सिद्धांत:
कबीला एकतरफा वंश के आधार पर संगठित पुरुषों और महिलाओं का एक समूह होता है। कुल में केवल माता या पिता से ज्ञात रिश्तेदार शामिल होते हैं। अतः किसी भी जनजाति में पितृवंशीय या मातृवंशीय गोत्र की व्यवस्था देखी जाती है। पितृवंशीय वंश में मूल पुरुष पूर्वज से उत्पन्न वंश शामिल है जबकि मातृवंशीय वंश में महिला पूर्वज उसके बेटे और बेटियाँ पोते, परपोते शामिल हैं।
- मूल पूर्वज के वंश:
कबीले के प्रत्येक सदस्य का मजबूत विश्वास होता है जो कबीले की उत्पत्ति किसी विशेष पुरुष या महिला पूर्वज से हुई होती है। यह पूर्वज कौन था? कब था? यह कबीले के सदस्यों को आवश्यक नहीं है कि उन्हें इस बात की जानकारी हो। यह पूर्वज या गोत्र मनुष्य, मानवरूपी जानवर, पौधा या कोई भी प्राकृतिक अचेतन वस्तु भी हो सकती है। परंतु प्रत्येक कुल के सदस्य की यह मान्यता होती है कि वंश की उत्पत्ति इसी पूर्वज से हुई है।
- जन्म आधार का सिद्धांत:
आदिवासी समुदाय में जो व्यक्ति जिस कुल में जन्म लेता है वह उसी कुल का हो जाता है। यानि उसका उपनाम उन्हीं गोत्र का होता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी कुल की सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार किसी व्यक्ति को प्राप्त कुल की सदस्यता को बदला भी नहीं जा सकता है। व्यक्ति को अपने पिता या माता द्वारा निर्धारित कुल की सदस्यता को स्वीकार करना ही पड़ता है। सामान्यतः जन्म ही कुल सदस्यता का आधार है। कोई अन्य विकल्प नहीं है। साथ ही एक बार कबीले की सदस्यता को प्राप्त करने के बाद उसे छोड़ा नहीं जाता है।
- प्रत्येक कुल या गोत्र का अलग-अलग नाम होता है:
प्रत्येक कबीले की संरचना आम तौर पर एक जैसी होती है किन्तु प्रत्येक कबीले के रिश्ते या वंश अलग-अलग होते हैं। प्रत्येक कबीला एक विशिष्ट समूह का होता है। इसीलिए इस भेद को दर्शाने के लिए प्रत्येक कुल का एक अलग नाम होता है। गोत्र के नामकरण की विधि भी हर गोत्र की एक जैसी नहीं होती। कबीले के नाम मूल पूर्वज, मूल पूर्वज की विशेषताओं, कबीले के प्रमुख व्यक्तियों के द्वारा प्राप्त उपाधियों, कबीले के पारंपरिक व्यवसायों, कबीले के देवताओं की पूजा, कबीले के निवास स्थान आदि के आधार पर दिए जाते हैं।
- बहिर्विवाह की प्रथा:
ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक कुल की उत्पत्ति एक अलग पूर्वज से हुई है। एक ही कुल के सभी सदस्य एक ही पूर्वज के उत्तराधिकारी होते हैं। अतः वे एक-दूसरे के सगे-संबंधी भी माने जाते हैं। इसलिए भले ही लोग अलग-अलग परिवारों के हों परन्तु वे एक ही कुल के होते हैं। वे एक-दूसरे को भाई-बहन मानते हैं। एक ही गोत्र में पैदा हुए पुरुषों और महिलाओं को एक-दूसरे से शादी करने की परंपरा नहीं होती है। तो जाहिर है कि प्रत्येक गोत्र एक बहिर्विवाही समूह है, एक ही गोत्र के पुरुष और महिलाएं शादी नहीं कर सकते हैं।
- कुल प्रतिक की विशेषता:
प्रत्येक कुल की उत्पत्ति किसी वास्तविक या काल्पनिक पूर्वज से होती है। उसकी एक खास विशेषता होती है। जिस प्रकार पूर्वज वास्तविक या काल्पनिक हो सकता है, उसी प्रकार यह पूर्वज प्रकृति से जुड़े हर एक सजीव-निर्जीव वस्तु भी हो सकती है। इस चेतन या निर्जीव वस्तु को ‘कुलप्रतीक’, ‘देवक’, ‘गोत्र’ या ‘टोटम’ कहा जाता है। अतः प्रत्येक कुल का अपना ‘कुलप्रतीक’ या ‘देवक’ होता है। ये प्रतीक आमतौर पर प्रकृति के सानिध्य के घटक जैसे कि पेड़, पौधें, जानवर, पहाड़, या प्रकृति का कोई भी हिस्सा होता है। कुल चिन्ह के प्रति उस कुल के लोगों का रवैया बहुत सम्मानजनक होता है। आदिवासी समुदाय में उस टोटम को आदर का स्थान दिया जाता है। उस कुल के सभी सदस्य ‘कुलचिन्ह’ की पूजा करना, गोत्र चिन्ह का अनादर न करना आदि बातों का विशेषकर ध्यान रखते हैं। कबीले के सदस्यों का मानना है कि कबीले का जो कुलचिन्ह होता है वह प्राकृतिक संकटों से उनकी रक्षा करता है। उन समूह का मानना होता हैं कि पूर्वजों की आत्मा कबीले के ‘कुलचिन्ह’ में निवास करती है। इसे ‘आदिम ‘कुलचिन्ह’ भी माना जाता है। क्योंकि आदिम वंश परंपरा में कुलचिन्ह को विशेष स्थान या सामाजिक महत्व होता है।
- समान निवास स्थान:
समान वंश और रक्त संबंध वाले कुलों के सदस्य एक ही निवास स्थान में रहते हुए देखे जाते हैं। ‘कुल’ को परिभाषित करते समय उस परिवेश की नदियाँ ‘कुल’ के निवास का उल्लेख करती हैं। कबीला व्यक्तियों का एक बहिर्विवाही समूह होता है जो एक ही देवक, एक ही क्षेत्र, एक ही पूर्वज में विश्वास के कारण एक-दूसरे से बंधे होते हैं। यही बुनावट प्राचीन विशेषता को रेखांकित करती है। क्योंकि वे सभी लोग जो रक्त संबंधों द्वारा एक-दूसरे से अटूट रूप से जुड़े हुए हैं, एक ही स्थान पर रहते हैं। चूँकि उनके बीच सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों की प्रकृति भी सामाजिक होती है, इसलिए उन गतिविधियों के लिए उनका एक साथ रहना अपरिहार्य माना जाता है। लेकिन समय बीतने के साथ, जैसे-जैसे कबीले के सदस्यों की संख्या बढ़ती गई और संचार के साधन उपलब्ध होते गए, कबीले के सदस्य अपने जीवन के लिए अपना सामान्य निवास स्थान छोड़कर बिखर गए, जिसे वर्तमान में हम विस्थापन का प्रश्न कह सकते हैं। संक्षेप में कहा जाये तो कबीला एकतरफ़ा वंश के आधार पर गठित पुरुषों और महिलाओं का एक समूह होता है। यह बहिर्विवाही समूह होता है। समान पूर्वज में विश्वास, समान रक्त संबंध, जन्म से सदस्यता, देवक प्रथा, सामान्य निवास स्थान आदि कबीले को किसी भी अन्य सामाजिक संगठन से अलग संगठन माना जाता हैं।
- कुल वंश के कार्य:
कुल और परिवार रिश्तेदारी पर आधारित महत्वपूर्ण सामाजिक समूह होते हैं। समाज में दोनों समूहों की स्थिति अद्वितीय है। इसका कारण यह है कि कुल एवं परिवार के उद्देश्य मूल एवं समान होते हैं। कुल एक परिवार की तरह एक संस्था है, इसलिए कुल को कुछ कार्य स्वतंत्र रूप से करने होते हैं। कबीले का महत्व उसके कार्य में निहित है।
- बिरादरी या बंधुत्व:
बंधुत्व के लिए एक वैकल्पिक ग्रीक शब्द 'फ्राटर' है। इसका मतलब होता है 'भाई'। इससे ‘भाईचारे’ का अर्थ स्पष्ट है। एक ही आदिवासी समुदाय में कई कुलों के बीच सद्भाव और अपनेपन के रिश्ते बने होते हैं। ये सभी कबीले सामूहिक रूप से कुछ अनुष्ठान और गतिविधियाँ करते रहते हैं। ऐसा सब कुलों के समूह को 'भ्रातृसमूह' या 'भाईसमूह' कहा जाता है।
- प्रत्येक समूह के कुलदेवता की विशेषता:
प्रत्येक कबीला इस विश्वास पर बनाया जाता है कि एक कबीले के सभी सदस्य एक ही पूर्वज के वंशज हैं। इसीलिए एक ही कुल के सदस्यों को रक्त संबंधी माना जाता है। जिस पूर्वज से वंश की उत्पत्ति होती है, जरूरी नहीं कि वह मनुष्य का वास्तविक या काल्पनिक पूर्वज हो। लेकिन देखा गया है कि पूर्वजों की अवधारणा में पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या प्रकृति में समाहित कोई भी घटक शामिल होते हैं। तब उस कुल के सदस्यों का यह दृढ़ विश्वास होता है कि उस कुल की उत्पत्ति सजीव या काल्पनिक सजीव या निर्जीव वस्तु से हुई है। उस सजीव या निर्जीव वस्तु को ‘कुलदेवता’, ‘कुलचिह्न’, ‘गोत्र’, ‘उपनाम’, ‘सरनेम’ या टोटेम कहा जाता है। सामान्यतः देखा जाता है कि ‘कुलदेवता’ में निर्जीव वस्तुओं और कुल की उत्पत्ति के बीच संबंध स्थापित होता है। इसलिए पशु-पक्षी, वृक्ष, जीव-जन्तु आदि को ‘कुलदेवता’ माना गया है। जिस सजीव या निर्जीव वस्तु से किसी कुल की उत्पत्ति मानी जाती है, उसके प्रति उस के कुल के सदस्य एक निश्चित तरीके से व्यवहार करते हैं।
- निष्कर्ष:
अतः कहा जाता है विश्व के संपूर्ण आदिवासी समूह में विशिष्ट सामजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था देखने को मिलती। यही व्यवस्था ‘टोटम’ के नाम से जाने जाती है। उस प्रत्येक व्यवस्था का संबंध उनके सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों से होता है।
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संदर्भ:
डॉ.गोविंद गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती
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