सोमवार, 6 मई 2024

महाराष्ट्र के माडिया गोंड आदिवासी समुदाय के बस्तियों की बुनावट-Maharashtra ke Madiya Gond Aadiwasi Samuday ke Bastiyon ki Bunawat

महाराष्ट्र के माडिया गोंड आदिवासी समुदाय के बस्तियों की बुनावट

Dr.Dilip Girhe 

प्रस्तावना:

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के वैनगंगा और प्राणहिता नदियों किनारों पर निवास करने वाल माडिया गोंड आदिवासी समुदाय है। विशेषकर सुरजागढ़ और भामरागढ़ पर माडिया गोंडों की बस्तियाँ ज्यादातर मिलती है। इस जिले की सीमाओं के पार कई छोटी और बड़ी नदियाँ बहती हैं। इन नदियों की विशेषता यह है कि इन नदियों में बारहों महीने भरपूर पानी रहता है। माडिया क्षेत्र के भामरागढ़ से होकर उत्तर-दक्षिण की ओर बहने वाली ओजी प्राणहिता नदी की उपनदियाँ वैनगंगा, गोदावरी और इंद्रावती जिले की सीमा से बहने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। वैनगंगा और प्राणहिता नदी जिले की पश्चिमी सीमा पर बहती हैं, गोदावरी एवं इंद्रावती नदियाँ जिले की दक्षिणपूर्वी सीमा से बहती है। इन सभी नदियों के क्षेत्रों या किनारों पर माडिया गोंड आदिवासी की बस्तियां मिलती है। इन बस्तियों की अपनी खास विशेषता है। इन विशेषताओं को ही प्रस्तुत लेख में रेखांकित करने की कोशिश की है।

बस्तियों का क्षेत्र एवं परिवेश:

भामरागढ़, मारकड़ा मंदिर और पांच नदियों के संगम का माडिया क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य से बसा हुआ है। जिलों के सभी हिस्सों में कमोबेश सागौन, बांस, ताड़ और महुआ के पेड़ों के जंगल मिलते हैं। माडिया गोंड आदिवासियों का क्षेत्र घने जंगल और उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए 'लहेरी' से 'कुवाकुडी' तक लगभग 20 किलोमीटर चलने के बाद दिखाई देता है। माड़िया क्षेत्र में ग्रीष्म, वर्षा एवं शीत तीनों ऋतुचक्र देखे जाते हैं। इस क्षेत्र में गर्मियों में अत्यधिक गर्मी, मानसून में अत्यधिक वर्षा और सर्दियों में अत्यधिक ठंड के मौसमी चक्र का अनुभव महसूस किया जाता है। यहां खुली हवाएं चावल जैसी फसलों के लिए अत्यंत उपयुक्त है। इसके साथ ही इस जलवायु से पेड़ों की वृद्धि ज्यादा होती है। यहां के जंगल में सागौन, शिसम, बांस, आम, इमली आदि बहुमूल्य पौधे पाए जाते हैं। बावजूद इसके वेली के जंगलों में तेंदू, ताड़, धावड़ा, गोरगा, खैर, गरदी, करम, बेहड़ा, सलाही, मोह, तेनभरू, पिंपल और विभिन्न प्रकार की घास और लताएं बहुसंख्यक मात्रा में पाई जाती हैं। बल्लारपुर पेपर मिलों के लिए गढ़चिरौली, सिरोंचा तालुके से बड़ी मात्रा में बांस की आपूर्ति की जाती है। साथ यहाँ के उत्पादित तेंदुपतों से बीड़ियाँ बनाई जाती है। भामरागढ़ क्षेत्र में पाई जाने वाली घास से सर्वोत्तम प्रकार की झाडू बनाई जाती है। जंगल में बाघ, चीता, लोमड़ी, भालू, जंगली सूअर, बंदर, हिरण आदि जैसे चौपाए वाले जानवर, धामन, सांप, छिपकली, अजगर, घोना, घोरपड़ जैसे सरीसृप और कई प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। इन जिलों में प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ खनिज संसाधनों का भी प्रचुर मात्रा में भंडार मौजूद है। गढ़चिरौली, सिरोंचा के पूर्वी भाग में लोहा, अभ्रक, कोयला आदि खनिज भंडार पाए जाते हैं। माड़िया गोंड आदिवासियों के बस्तियों के आसपास का क्षेत्र अच्छी हवा, जंगल, वन, प्रचुर मात्रा में है। यह क्षेत्र जलीय नदियों, ठंडे और मीठे पानी के शुद्ध झरनों और सीधे-सादे भोले-भाले लोगों से भरा पड़ा है। यहाँ मनुष्य ने प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया है। यहाँ पर मनुष्य और जानवर प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रह रहे हैं।

माडिया आदिवासी बस्ती एवं समूह:

माड़िया गोंड ‘गोंड’ जनजाति की एक उपजाति है। यह अन्य जनजातियों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई है। 'मड़िया गोंड' की बस्ती भारतवर्ष में मुख्यतः महाराष्ट्र के ‘गढ़चिरौली’ जिले और मध्य प्रदेश के ‘बस्तर’ जिले के ‘अबूझमाड़’ संभाग में पाई जाती है। माडिया गोंड जनजाति गढ़चिरौली जिले के एटापल्ली तालुका में भामरागढ़ के पूर्व में घने जंगलों में बिखरी हुई है। यह जनजाति प्राचीन जंगली जनजातियों में आती है। ये लोग पहाड़ी और सुदूर वन क्षेत्रों में रहते हैं। वे अभी भी अपनी प्राचीन परंपराओं, रीति-रिवाजों को बरकरार रखे हैं। 

माड़िया गोंड जनजाति के बस्तियों में दो प्रमुख समूह देखे जा सकते हैं। इनमें जो लोग ऊंची पहाड़ियों पर रहते हैं उन्हें 'बड़ा माड़िया' कहा जाता है, जबकि जो लोग निचले इलाकों या पहाड़ी की तलहटी में रहते हैं उन्हें 'छोटा माड़िया' कहा जाता है। 'बड़ा माड़िया' मुख्य रूप से भामरागढ़ के पूर्व में ‘कुवाकुडी’ के पहाड़ी इलाकों में पाया जाता है। यहां उनकी आजीविका का मुख्य साधन शिकार, फल, कंदमूल और कुछ खेती है। पहाड़ों में रहने वाले माड़िया गोंडों को 'हिल माड़िया' या 'डोंगरी माड़िया' भी कहा जाता है। माड़िया गोंड जो मैदानी इलाकों में रहते हैं और अपने नृत्यों में जानवरों के सींगों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें 'व्हिसनहॉर्न माड़िया' के नाम से जाना जाता है।

माडिया बस्ती एवं क्षेत्र निर्मिती:

'माड़िया' शब्द का निर्माण ‘माड’ क्षेत्र में रहने वाले लोगों के अर्थ में किया गया है। ‘माड’ वृक्ष इन लोगों का पसंदीदा पेड़ है। इस क्षेत्र में हिरण भी बड़ी संख्या में हैं। इसीलिए उनके लिए माडा वृक्ष के क्षेत्र में रहने के कारण 'माड़िया' नाम प्रचलित हुआ है। बस्तर का एक भाग भामरागढ़ क्षेत्र से सटा हुआ है। 'मूरवृक्ष' बस्तर के मैदानों में सर्वत्र पाए जाते हैं। इस ‘मूरवृक्ष’ के पास रहने वाले गोंडों को 'मुरिया गोंड' के नाम से जाना जाता है। माड़िया लोग अपने धर्म को 'कोयाधर्म' कहते हैं। इस धर्म के कारण इन्हें 'कोयतुर' भी कहा जाता है। गोंडी भाषा में कोयतुर शब्द दो शब्दों 'कोय' और 'तूर' से मिलकर बना है। इसमें 'कोया' शब्द का अर्थ 'टुकड़ा' और 'तूर' शब्द का अर्थ 'काटना' है। ‘काटना’ इस बात का प्रतीक है कि माडिया उसी तरह शिकार करता है जैसे हंसिया फल काटता है।

अबूझमाड़ क्षेत्र एवं माडिया बस्ती:

माड़िया गोंड जंगलों में दूर छोटी-छोटी झोपड़ियों में बिखरा हुआ है। किसी स्थान पर एक छोटा सा जंगल काट दिया जाता है, उस स्थान को साफ़ कर दिया जाता है और उस स्थान पर बस्ती बना दी जाती है। बस्ती के आसपास के क्षेत्र का एक हिस्सा जंगल काटकर साफ कर दिया जाता है। इसका उपयोग मुख्य रूप से कृषि के लिए किया जाता है। गाँवों का निर्माण मुख्यतः दो बातों को ध्यान में रखकर किया जाता है: जल आपूर्ति और लोगों की सुरक्षा। भामरागढ़, कुवाकुडी क्षेत्र के 'माड़िया गोंड' हर 2-4 साल में अपना निवास स्थान बदलते हैं। इसलिए हम वो गांव नहीं देख पाएंगे जो हमने पहले देखा है। छत्तीसगढ़ के 'अबुजमाड़' और महाराष्ट्र के 'कुवाकुडी' में अभी भी 30-32 ऐसी ही बस्तियाँ हैं। इस बस्ती तक अब तक सड़क नहीं पहुंची है। बिजली नहीं है। पानी का कुआँ, औषधालय, अनाज और किराने की दुकान जैसी कोई नागरिक सुविधाएँ नहीं हैं। यहां के लोगों को यह भी नहीं लगता कि ये सुविधाएं आनी चाहिए या इसकी आशंका भी नहीं है। वे इसके लिए प्रयास भी नहीं कर रहे हैं। स्थानीय मादी 21वीं सदी में प्रवेश करते हुए इन गांवों में कोई सुधार नहीं चाहते हैं। कुछ माड़िया आदिवासी बस्तियाँ जंगल में हैं लेकिन प्रकृति में स्थायी हैं। बढ़ई, लोहार, नाई आदि कोई कारीगर वर्ग नहीं है। ये सभी कार्य 'माड़िया गोंड' द्वारा ही किये जाते हैं। इसीलिए ये लोग कभी बढ़ई, कभी लोहार, कभी-कभी उन्हें नाई का काम करते हुए भी देखा जाता है।

माडिया गोंड आदिवासियों के बस्ती का आकार:

माड़िया गोंडा की बस्तियाँ बहुत छोटी हैं जिनमें लगभग 15 से 20 घर होते हैं। घरों को इस तरह डिजाइन किया जाता है कि घरों के दरवाजे एक-दूसरे के सामने होते हैं। गाँवों में प्रवेश करने से पहले गाँव के बाहर 'उर्सकल' (कब्रिस्तान) का पहला भाग होता है। इस क्षेत्र में ऊंचे-ऊंचे पत्थरों पर नक्काशी की गई है। ये चीरे मृतकों की याद में बनाये जाते हैं। एक बार जब 'उर्सकल' (कब्रिस्तान) ख़त्म हो जाता है, तो गाँव को तैयार किया जाता है। गांव के बगल में एक बड़ा पार (ओटा) है। पेड़ के आधार के पास पत्थरों को जमाकर बराबर बनाया जाता है। गांव के लोग इसी पैरा पर बैठकर आराम करते हैं। इस मंच पर बैठकर लोग गांव की घटनाओं पर चर्चा करते हैं।

माडिया के बस्तियों में स्थानीय सामग्री:

माड़िया लोग अपने घरों के लिए स्थानीय सामग्री जैसे लकड़ी, पत्ते, बांस, मिट्टी, गोबर आदि का उपयोग करते हैं। घर बनाना शुरू करने से पहले लोग देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्रसाद चढ़ाते हैं। बारिश या बाढ़ का पानी घर में घुसने से रोकने के लिए सबसे पहले एक ऊंचा चौराहा बनाते हैं और उस चौराहे पर वे अपना घर बनाते हैं। घरों की दीवारें खड़ी और क्षैतिज बांस की पट्टियों से बनी होती हैं। दीवार में जगह-जगह खूंटियाँ लगी हुई हैं। इन खूंटियों से टंगे हुए शिकार के जाल लटके हुए होते हैं। घर की छत के नीचे पेड़ों की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है। जो गर्मियों के दिनों में काफी राहत सेता है। छत को सहारा देने के लिए लकड़ी के मोटे खंभों का उपयोग किया जाता है। माडिया गोंड आदिवासियों के आसपास बांस और सागौन का जंगल होने के कारण वे अपने घरों में इसका उपयोग खुलकर करते हैं। घर के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ी बढ़ईगीरी नहीं है। घर का आकार चौकोर होता है। उनकी छत के बाईं ओर और दाहिना भाग ज़मीन पर टिका हुआ है। लेकिन सामने का हिस्सा बड़ा और खुला है। इसका उपयोग दरवाजे के रूप में किया जाता है। घर में कोई चौखट या दरवाजा नहीं होता है। वह भाग सदैव खुला रहता है। पीछे के भाग को पत्तियों एवं शाखाओं की सहायता से या कुड़े से बंद कर दिया जाता है। इस खास डिजाइन की वजह से घर को त्रिकोणीय आकार मिला होता है। प्रत्येक घर में प्रवेश और निकास के लिए दरवाजे के आकार में एक छोटी खुली जगह होती है। इन घरों की खासियत यह है कि इसमें कोई दरवाजा नहीं है। दरवाज़ा तो है लेकिन उसमें कब्ज़ा नहीं है। वहां दरवाज़ा बंद करते समय ताला लगाने का रिवाज़ नहीं है। कई लोगों को तो ताले के बारे में पता ही नहीं होता।

माडिया के बस्तियों के कमरे की बुनावट:

माड़िया आदिवासियों के घरों में एक या दो कमरे होते हैं। औज़ार, हथियार रखने या सोने के लिए कोई अलग जगह नहीं है। घर के एक हिस्से में मिट्टी का गड्ढा तैयार किया जाता है। उस पर लकड़ी का तख्ता रखकर दूसरा ओटा तैयार किया जाता है। इसे 'डुड्डी' कहा जाता है। घर में कोई खिड़कियाँ नहीं होती हैं। लेकिन एक और चेतावनी देखी जाती है। उनके घर में हमेशा अंधेरा रहता है। घर में चूल्हे पत्थर या मिट्टी के बने होते हैं। घर के एक कोने में बांस की पतली पट्टियों से बनी विशेष आकार की टोकरियों का उपयोग अनाज भंडारण के लिए किया जाता है। इसे 'वाया' कहा जाता है। इसका आकार मुख की ओर चौकोर तथा गोल होता है। अनाज भंडारण के लिए मोटी रस्सी की टोकरियों का उपयोग किया जाता है। इसे 'गुंबद' कहा जाता है। पानी जमा करने के लिए मिट्टी के बर्तन या लौकी से बने बर्तनों का उपयोग किया जाता है। लौकी से बने बर्तन को 'पारस' कहा जाता है। माड़िया घर में पानी पीने के लिए लौकी के बर्तनों का उपयोग करते हैं। माडिया गोंड के घर में देवी-देवताओं की मूर्तियां नहीं मिलतीं। घर में चूल्हे के पास एक बर्तन रखा जाता है। इसमें गृह देवताओं को रखा जाता है। इसलिए उस बर्तन का विशेष महत्व है। इस घड़े की पूजा की जाती है। वे इसे 'हातोरपन' कहते हैं। माड़िया गोंडों में मृत व्यक्ति के नाम पर 'हातोरपन' नाम रखने की प्रथा प्रचलित है।

माडिया गोंडों के घर में चारपाई या बिस्तर होता है। इन्हें रस्सी या बांस की पट्टियों से बुना जाता है। इसका उपयोग बुजुर्ग लोगों के बैठने या सोने के लिए किया जाता है। माडिया के घर में शिकार किए गए जानवरों के सींग, मुखौटे लटके हुए हैं। घर को गोबर से साफ किया जाता है। घर की दीवारों को समय-समय पर मिट्टी से लीप कर अच्छी तरह से बनाए रखा जाता है। हर घर के सामने एक मंडप होता है। इस मंडप का उपयोग लोग विश्राम के लिए करते हैं। प्रत्येक घर के सामने या किनारे पर बांस की एक बड़ी बाड़ होती है। इसे 'वाडी' कहा जाता है। वाडी के पास मकई, भिंडी, ककड़ी, कद्दू, मिल्कवीड लगाए जाते हैं। ग्राम प्रधान का घर अन्य लोगों के घरों से बड़ा होता है। गोटूल की इमारत भी अपेक्षाकृत बड़ी होती है। परिवार के घर में शाम को युवक-युवतियाँ एकत्र होते हैं। यह उनका सार्वजनिक घर है। माडिया गोंड आदिवासी भूत-शिकार में विश्वास करते हैं। ये लोग गांव में भूत-प्रेत और मुसीबतों से बचने का हमेशा ध्यान रखते हैं। कब्रिस्तान को पार करने के बाद गाँव में एक बांस का मेहराबदार प्रवेश द्वार होता है। इस प्रवेश द्वार को 'घोटपडी' कहा जाता है। उनका मानना है कि यह मेहराब भूतों को गांवों में प्रवेश करने से रोकता है और उनसे गांवों की रक्षा करता है। 

इस प्रकार से महाराष्ट्र के माडिया गोंड आदिवासियों के बस्तियों की बुनावट के विविध रूपों को हम इस लेख के माध्यम से समझ सकते हैं।

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संदर्भ-

डॉ.गोविंद गारे-महाराष्ट्रातील आदिवासी जमाती 


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