आदिवासी कविताओं में आदिवासी संस्कृति एवं अस्मिता का चित्रण
-Dr.Dilip Girhe
आदिवासी
कविताएँ अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों के माध्यम से आदिवासियत के विविध
बिंदुओं को व्यक्त करती हैं। आदिवासी कविताओं की अभिव्यक्ति के बारे में कहा जाता
है कि “अपनी तीव्र भावनाओं को और संवेदनाओं को आदिवासी नृत्य की लय से लोकगीतों
में साकार करते हैं। अपने पर्यावरण के जड़-चेतन तत्वों से उनके रंगों का प्रयोग मेल
खाता है। उनका वास्तविक जीवन प्रतिकूलताओं से भरा दुःख और यातनापूर्ण होने पर भी
वे अपनी अन्न शक्ति के स्त्रोतों से संभल पाते हैं। तथा गीत, संगीत और नृत्य में
अपने सुख की अभिव्यक्ति करते हैं।”[1] आदिवासी कविताओं में
आदिवासियों की भावनाओं के साथ-साथ गीत, संगीत एवं नृत्य का परिचय भी दिखाई देता है।
महाराष्ट्र की आंध जनजाति के कवि डॉ. भगवान गव्हाड़े ‘आदिवासी संस्कृति’ कविता में
आदिवासी अस्मिता एवं संस्कृति का इस प्रकार परिचय देते हैं-
“हमारा घर जंगल-ज़मीन
हमारा संसार खेत-खलिहान
हमारी संतान पशु-पक्षी धन
हमारा आँगन हरे-भरे धान
हमारा मान-सम्मान बच्चों की मुस्कान।”[2]
आदिवासियों
का हज़ारों सालों से जल-जंगल-ज़मीन से रिश्ता रहा है। उनके रहने का स्थान ही वहीं है।
पर्यावरण के हर जीव-जंतु, पशु-पक्षी, प्राणी, पेड़-पौधे उनके मित्र हैं। साहित्य
अकादमी पुरस्कृत संताली लेखक आदित्य कुमार मांडी ‘पहचान’ कविता में कहते हैं कि आदिवासी
की पहचान उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि से ही होती है। जब आपकी पहचान पर सवाल किया
जाता है तो आप बेहिचक जवाब दें कि आप किस मिट्टी से हैं, किस क्षेत्र से हैं और
किस भूमि से हैं ताकि आपकी पहचान बनी रहे। उनकी ‘पहचान’ कविता की कुछ पक्तियां इस
प्रकार हैं-
“जवाब
आपको देना है
जन्मभूमि
कर्मभूमि और खुद का भी
तो
आप क्या हो
यह
सवाल करो स्वयं से
और
फिर जवाब दो
बेहिचक
बताओ उस मिट्टी के बारे में
जिससे
गढ़े गए हो तुम
जिस
दिन साफ कर दी तुमने यह मिट्टी
सोचना
क्या पहचान रह जाएगी तुम्हारी?”[3]
कवि
महादेव टोप्पो ‘पहचान का प्रश्न’ कविता से समझाते हैं कि इस पर्यावरण की हर चीज़ अपनी
एक विशिष्ट पहचान दर्शाती है। हिमालय, गंगा नदी, यमुना नदी, कोयल, शाल वृक्ष,
महुआ, बरगद का पेड़ सभी की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। लेकिन मेरी खुद की पहचान
मिटाने का जब प्रश्न खड़ा होता है तो मेरे आत्मसम्मान को चोट पहुँचती है। इसका
उदाहरण वे अपनी कविता के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
“मैंने हिमालय को हिमालय कहा
गंगा
को गंगा
यमुना
को यमुना
कोयल
को कोयल
शाल
वृक्ष को शाल वृक्ष
महुआ
को महुआ
बरगद
को बरगद
गांधी
को गांधी
किसी
ने नहीं की आपत्ति
लेकिन
जब चुना अपना ही नाम
उन्होंने
कहा-
तुम
कैसे कर सकते हो यह?
चुप
करो
पहुँचती
है इससे हमारे आत्म सम्मान को चोट।”[4]
आदिवासी
संस्कृति में ‘जोहार’ कहने की परंपरा बहुत ही पुरानी है। जब आदिवासी भाई-बहन,
बुजुर्ग, अतिथि एक-दूसरे से मिलते हैं तो वे उनका स्वागत ‘जोहार’ कहकर बहुत ही
आनंद से करते हैं। यही आदिवासी संस्कृति की सच्ची पहचान है। झारखंड के आदिवासी कवि
ओली मिंज उनकी ‘जोहार’ कविता में आदिवासी संस्कृति की ‘जोहार’ परंपरा की महत्ता को
स्पष्ट करते हैं-
“जोहार कहकर
खुले
दिल से हमने
अतिथियों
की अगवानी की थी
आज
वहीं ‘जोहार’
अपनी
पहचान की
है
मोहताज।”[5]
निर्मला
पुतुल आदिवासी स्त्री और समाज के सवर्णधारा की स्त्री की अस्मिता को रेखांकित करती
हुई कहती हैं कि एक स्त्री पहाड़ पर रो रही है तो दूसरी स्त्री बड़ी-बड़ी इमारतों की
खिड़की से देखकर मुस्कुरा रही है। एक स्त्री रो रही है तो दूसरी स्त्री गाना गा रही
है और तीसरी स्त्री इन दोनों को देखकर कुछ सोच रही है। एक आदिवासी स्त्री अपने
बच्चों को पीठ से बांधकर धान रोप रही और दूसरी स्त्री सरकार गिराने की बात कर रही है।
जरा सुनो संगोष्ठियों में कविता का पाठ पढ़ने वाले कवियो और लेखको, देखो भारतीय
आदिवासी स्त्री की दशा व दिशा क्या है! इस बात को उद्धृत करने वाली निर्मला पुतुल
की कविता ‘वह जो अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है’ द्रष्टव्य है-
“एक स्त्री पहाड़ पर रो रही है
और
दूसरी स्त्री
महल
की तिमंजिली इमारत की खिड़की से बाहर
झाँककर
मुस्कुरा रही है
ओ,
कविगोष्ठी में स्त्रियों पर
कविता
पढ़ रहे कवियो
देखो,
कुछ हो रहा है
इन
दो स्त्रियों के बीच छूटी हुई जगहों में,
इस
कहीं कुछ हो रहे को दर्ज करो
कि
वह जो अक्सर तुम्हारी पकड़ से छूट जाता है।”[6]
वहीं दूसरी ओर कवयित्री वंदना टेटे ‘आदिवासी जीवन और जंगलों का रिश्ता’ में इस बात को स्पष्ट करना चाहती हैं कि आदिवासियों की जीवन पद्धति में जंगलों में उत्पन्न होने वाले पेड़-पौधों का बहुत महत्व है। इनमें महुआ, पलाश, कुसुम, बेर, जामुन, केउंद, आम, कटहल जैसे कई वनस्पतियों को आदिवासी जानते हैं। उनकी संस्कृति इन सभी वनस्पतियों से जुड़ी हुई हैं। वे ये भी जानते हैं कि कौन से पेड़-पौधे किस मिट्टी में, किस पहाड़ पर किस नदियों के किनारे उगते हैं। परंतु कवियों, दार्शनिकों, राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों के पलाश की कोई गारंटी नहीं है, वह कहीं भी कभी भी उग सकते हैं। वे ‘पलाश नहीं हैं जंगल’ कविता के माध्यम से जगलों की वनसंपदा की महत्ता को समझाती हैं कि-
“कवियों को
दार्शनिकों को
राजनीतिज्ञों को
सभ्यताओं
को
सबको पलाश चाहिए
जंगल उजाड़कर भी चाहिए
लेकिन सबको पलाश चाहिए
पलाश
जरूरी है
वास्तविक
दुनिया में
एक
काल्पनिक क्रांति के लिए।”[7]
आदिवासी
समुदाय की भाषा ही उनकी संस्कृति और अस्मिता की पहचान है। आज जनजातीय साहित्य कई
आदिवासी भाषाओं में लिखा जा रहा है। परंतु आज कई आदिवासी समूहों की भाषाएँ विलुप्त
होने के कगार पर हैं। इसी कारण आदित्य कुमार मांडी ‘भाषा’ कविता के माध्यम से
आदिवासी भाषा का महत्व बताते हैं कि प्रकृति के इर्द-गिर्द रहने वाले सभी
जीव-जंतुओं, मनुष्य प्राणियों, पेड़-पौधे, सूरज-चाँद सभी अपनी-अपनी सांकेतिक भाषा
बोलते हैं। सदियों से आदिवासी अपनी भाषाई अस्मिता को बचाने के लिए संवैधानिक रूप
से संघर्ष कर रहे हैं। भाषा माँ से सीखी जाती है और माँ ही भाषा को विलुप्त होने
से बचा सकती है। मांडी ‘भाषा’ कविता में कहते हैं कि-
“सूझबूझ
है भाषा में जितनी
उतना
ही अबूझपन भी है उसमें
जब
भूगोल बदल देती है
भाषा
की भंगिमाएं
लिपि
तब साथ देती है
वह
जोड़ती है एक भाषा के
बिखरे
हुए परिवार को
कोई
एक भाषा अपनी लिपि में ही
सुशोभित
होती है
एक
लिपि से लिखी जा सकती है अनेक भाषाएँ
मगर
एक भाषा की अस्मिता को
अनेक
लिपियों में नहीं व्यक्त किया जा सकता
ओलचिकि
संताली भाषा की लिपि है
हमारी
भाषा संस्कृति
अस्मिता
और पहचान है ओलचिकि।”[8]
आदिवासियों
में बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं। इन त्योहारों में उनकी संस्कृति एवं अस्मिता झलकती
हुई दिखाई देती है। इन त्योहारों में ‘सरहुल’ और ‘करमा’ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। सरहुल
त्योहार झारखंड, उड़ीसा, बंगाल और मध्य भारत के कई आदिवासी बहुल क्षेत्रों में
मनाया जाता है। इस त्योहार की शुरुआत चैत्र महीना शुरू होने के तीसरे दिन से हो
जाती है। इसमें आदिवासी ‘साल वृक्ष’ की पूजा करते हैं। इसीलिए आदिवासी समाज इस
त्योहार को सरहुल त्योहार के नाम से मनाते हैं। ‘करमा’ उत्सव मुख्य रूप से झारखंड
के आदिवासी समुदाय मनाते हैं। इस मौके पर वे ढोल और मांदर की लय पर नाच-गाना करते
हैं। प्रकृति की पूजा करके प्रकृति से कामना करते हैं कि ‘हमारी फ़सल अच्छी से
अच्छी आए’। इस उत्सव या त्योहार को नागपुरिया भाषा की कवयित्री सरिता सिंह बड़ाईक
‘धरती का प्रेम’ और ‘प्रेम का उत्सव’ नाम देती हैं। उनकी ‘उत्सव गीत’ कविता की कुछ
पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
“धरती का प्रेम, प्रेम का उत्सव
चलो
मनाएं संगी-साथी संग
सरहुल
करमा का पर्व”[9]
सरहुल
का त्योहार आते ही प्रकृति का रूप, रंग और आकार किस तरह से बदल जाता है, इसको ओली
मिंज ‘सरहुल आ गया’ इस कविता में बसंत महीने का चित्रण इस प्रकार से चित्रित करते
हैं-
“बसंत के आते ही
प्यार
हुआ
देखते
ही देखते
घोंसला
बनकर”
तैयार
हुआ।”[10]
इस प्रकार से उपरोक्त सभी हिंदी की
आदिवासी कविताओं में आदिवासी संस्कृति और अस्मिता के विविध चित्र दिखाई देते हैं।
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[1]
कुरे,
डॉ. रमेश संभाजी. शिंदे, डॉ. मालती धोंडोपंत. शिंदे, प्रवीन अनंतराव. (सं.). (2013).
आदिवासी साहित्य विविध आयाम. कानपुर : विकास प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 44
[2]
गव्हाड़े,
डॉ. भगवान. (2015). आदिवासी मोर्चा, नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 12
[3]
मांडी,
आदित्य कुमार. (2015). जंगल महल की पुकार. राँची : प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन.
पृष्ठ संख्या. 74
[4]
गुप्ता,
रमणिका.
(सं.). (2015). कलम को तीर होने दो (झारखंड के
आदीवासी हिंदी कवि). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 149
[5]
मिंज,
ओली. (2011). सरई. डोरंडा, झारखंड : सारिका प्रेस एण्ड प्रोसेस. पृष्ठ संख्या. 5
[6]
पुतुल, निर्मला. (2014).
बेघर सपने. पंचकूला, हरियाणा : आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड. पृष्ठ संख्या. 18
[7]
टेटे, वंदना. (2015).
कोनजोगा. राँची, झारखंड : प्यारा केरकेट्टा
फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 60-61
[8]
मांडी, आदित्य कुमार.
(2015). पहाड़ पर हूल फूल. राँची, झारखंड :
प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 89
[9] बड़ाईक, सरिता.
(2013).
नन्हें सपनों का सुख. नई दिल्ली : रमणिका
फाउंडेशन. पृष्ठ संख्या. 24
[10]
गुप्ता, रमणिका. (सं.).
(2015). कलम को तीर होने दो (झारखंड के हिंदी
आदिवासी कवि). नई दिल्ली : वाणी प्रकाशन. पृष्ठ संख्या. 155
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