बस्तर के आदिवासी समुदाय
छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर जिले में बहुत से आदिवासी समुदाय जीवनयापन करते हैं। इसमें गोंड, दंडामी माडिया, अबूझमाड़िया, मुरिया, धुरवा, भतरा, दोरला, हलबा जैसे आदिवासी समुदाय प्रमुख रूप में मिलते हैं। इनकी विशिष्ट भाषा, जीवन शैली, संस्कृति, परंपरागत व्यवसाय, त्यौहार है।
गोंड:
बस्तर की आदिवासी समुदायों में भी गोंडों की संख्या सर्वाधिक है। इनकी उपजातियों को माडिया, मुरिया, भतरा, धुरवा तथा दोरला नाम से सबोधित किया जाता है। गोंड प्रजाति के लोगों का रंग काला, नाक कुछ चपटी, ओंठ कुछ मोटे तथा शरीर गठीला एवं ये साधारण कद काठी के होते हैं। इनकी बोली ‘गोंडी’ है वैसे ये छतीसगढ़ी भाषा भी बोलते हैं। गोंडो के अपने देवी-देवता एवं पर्व-त्यौहार हैं। गोंड शवों को दफनाते नहीं बल्कि जलाते हैं। मृतको के स्मृति स्तंभ बनाये जाते हैं, जिनपर रंगों के माध्यम से उसके संपूर्ण जीवन का वर्णन किया जाता है। जैसे उसके पास कितने जानवर थे, वह क्या खना-पीना पसंद करता था उसकी आर्थिक स्थिति का पता भी इन स्मृति स्तंभों से चलता हैं। इस अंचल के गोंड कृषि के अतिरिक्त वनोपज एकत्रित करने का काम भी करते हैं। विवाह वयस्क होने पर ही होता है। विधवा विवाह तथा तलाक की प्रथा भी हैं।
दंडामी माडिया:
यह गोंड आदिवासी समुदाय की एक उपजाति है इन्हें कई मानव वैज्ञानिकों ने ‘बायसन हार्न माडिया’ कहा है। क्योंकि नृत्य के समय ये गौर (जंगली भैंसा) के सींगों का उपयोग करते हैं। इनका रंगकाला, साधारण कद, पुष्ट देह तथा अच्छी शारीरिक क्षमता इनकी विशेषता हैं। ये इन्द्रावती नदी के दक्षिणी प्रदेश में दंतेवाडा, कोंटा, जगदलपुर तथा बीजापुर तहसीलों में फैले हुए हैं। ‘किलेपाल’ के माडिया आदिवासी समुदाय क्रोधी प्रवृति के माने जाते हैं। संभवतः दंडामी माड़िया गोदावरी की घाटी से चलकर इन्द्रावती की घाटी में बसे होगें।
अबूझ माड़िया:
अबूझ माड़िया अपने को केवल ‘माड़िया’ कहते हैं। अबूझ माड़िया भी गोंड़ो की उपजाति है। ये ‘अबूझमाड़’ क्षेत्र में रहते हैं। इसी वजह से उनका नाम अबूझ माडिया पड़ा है। अबूझ का अर्थ हुआ ‘जो न जाना जा सके’ अथवा ‘अज्ञात’। माड़ का अर्थ होता है ‘जंगल-युक्त ऊंची भूमि’। अर्थात् ये अज्ञात जंगली ऊंची भूमि के निवासी हैं। अबूझमाड़ का क्षेत्र नारायणपुर, बीजापुर तथा दन्तेवाड़ा जिलों में फैला हुआ । पूरा अबूझमाड़ पहाड़ तथा घने जंगलों से आच्छादित है। वन्य प्राणियों की भी यहां कमी नहीं है। यह दुर्गम क्षेत्र है यहां सड़के भी न के बराबर मिलती हैं। यानि की यहाँ पर विकास की बहुत कमी दिखती है। इनके गांव दूर-दूर तक बसे हुए हैं। बस्तर में अबूझ माडियों की अपनी अलग पहचान है। अपने एकाकीपन के कारण ये अपनी परम्परागत संस्कृति, धार्मिक मान्यताओं तथा सामाजिक संरचना को सुरक्षित बनाये हुए हैं। ये अभी भी आदिमयुग का जीवन जी रहे हैं। अबूझमाड़िया पहाड़ियों पर ‘झूम कृषि’ करते हैं। इसे यहाँ ‘पेंदा’ कृषि भी कहा जाता है। जब कृषि के लिये ढलान प्राप्त नहीं होता तो उस स्थान को छोड दिया जाता है। और कोई नई जगह चुन ली जाती है। इसके साथ ही ग्राम नये स्थान पर बस जाता है। कहीं-कहीं गाँव के पास स्थाई खेती भी ये कर लेते हैं। जहाँ धान की कुछ पैदावर हो जाती है। धान, कोसरा, मंडिया इनका मुख्य भोजन है। कन्दमूल एवं फल वन से प्राप्त कर लेते हैं। वन्य पशु का शिकार करना तथा मछली पकड़ना इन्हें प्रिय है। कहीं-कहीं पशुपालन भी किया जाता है। इनके गांव छोटे एवं आबादी कम होती है। ये अपने मकान, पहाड़ की ढाल में बनाते हैं। मकान लकड़ी तथा बांस, घासफूस की छप्पर वाले होते हैं। ये मुर्गी पालन करते हैं, सलफी के पेड़ से सलफी प्राप्त करते हैं जो कि एक नशीला पेय पदार्थ है। वह "बस्तर बियर' के नाम से प्रसिद्ध है। सल्फी के वृक्ष पर चढ़ने के लिये बांस की सीढी बनाने के तरीके कलात्मक होते हैं। ये बड़े ईमानदार होते हैं। चोरी की इन्हें आदत नहीं। घरों में ये ताले नहीं लगाते। इनका सामाजिक जीवन अत्यन्त संगठित होता है। अलंकरण का इन्हें काफी शौक होता है। महिलायें, माला, मनके, गुरिया, कंघी आदि से अपने को खूब सजाती है। पुरुष भी इनसे पीछे नहीं। नृत्य गीत इनके जीवन के अभिन्न अंग हैं। स्त्रिी-पुरूष मिलजुलकर रात-रात भर नाचते हैं। मेलों में नृत्य के भव्य, विशाल आयोजन होते हैं, जहां ये जीवन साथी चुनते हैं। ये समूहों में लम्बी-लम्बी पंक्तियों में नाचते हैं। इनमें बाल विवाह का प्रचलन नहीं है। वयस्क होने पर अक्सर अपनी अपनी पसंद से ये विवाह करते हैं। लड़की को भगाकर ले जाने की प्रथा प्रचलित है। इनमें कई गोत्र होते हैं। जिन्हें ‘टोटमवाद’ के नाम से जाना जाता है। इनमें सामाजिक संगठन बड़ा मजबूत होता है। पूरा क्षेत्र परगनों में बंटा होता है तथा परगनों के प्रमुख होते है। जिन्हें परगनिया ‘माझी’ कहा जाता है।
मुरिया:
बस्तर की यह आकर्षक जनजाति गोडों की ही एक उपजाति है। इन्हें तीन उपविभागों में बांटा जा सकता है। यथा-राजा मुरिया, झोरिया मुरिया तथा घोटुल मुरिया राजा। मुरिया प्रजाति जगदलपुर के आस-पास के ग्रामों में पाई जाती है। सभ्य समाज के निरन्तर सम्पर्क में आते रहते के कारण अन्य मुरियों से कुछ अधिक उन्नत है। अतः इस प्रजाति को अन्य मुरियों से कुछ श्रेष्ठ भी माना जाता है। झोरिया मुरिया वास्तव में माड़िया हैं। जो पहाड़ों से उतर कर मैदानी इलाकों में बस गये तथा अन्य मुरिया लोगों में घुल मिल गये हैं। ये कोण्डागांव तहसील में पाये जाते हैं। घोटुल मुरिया अपनी सुप्रसिद्ध सामाजिक संस्था, युवागृह, घोटुल के कारण ही इस नाम से संबोधित किये जाते हैं। ये नारायणपुर तथा कोण्डागांव में बसे हुए है। मुरिया लोग अच्छे कृषक माने जाते हैं तथापि शिकार एवं वनोपज एकत्रित करना भी इनका शौक एवं व्यवसाय है। मुरिया अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न तथा विकसित है। इनके ग्राम जंगलों तथा पहाड़ियों के बीच बहुधा नदियों के किनारे बसे होते हैं। इनके घर पास-पास रहते हैं। गाय, बैल, बकरी, मुर्गे-मुर्गी पालना इनका शौक हैं। ये सब्जी भी ये उगाते हैं। मुरिया मुख्यतः हलबी और कही-कही, कोण्डागांव, नारायण्पुर के अंचल में छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं। घोटुल मुरिया लोगों की अत्यन्त आकर्षक सामाजिक संस्था है घोटुल मुरिया लोगों का जीवन इसके इर्द-गिर्द घूमता है। समाज के युवा लड़के-लड़किया अनिवार्यतः इसके सदस्य होते हैं। लड़के-लड़कियों को यहां अलग अलग नाम दिया जाता है। ये अत्याधिक अनुशासनबद्ध होते हैं। घोटुल के व्यवस्क सदस्य अपना दायित्व निभाते हुए अपने से कम उम्र के सदस्यों को ललित कला, नृत्य, गीत, संगीत, विविध आर्थिक तथा सामाजिक गतिविधियों यौन शिक्षा, आखेट, वनोपंज एकत्रित करना आदि का प्रशिक्षण देते है। घोटुल के संदर्भ में अन्य विस्तृत जानकारी इसी किताब में आगे उल्लेखित है।
धुरवा:
यह प्रजाति जिसे बस्तर में ‘परजा’ भी कहा जाता है। जगदलपुर तहसील के उत्तरी अंचल में दरभा के आसपास बसी हुई है। धुरवा हष्ट पुष्ठ, स्वाभिमानी तथा परम्परावादी होते हैं। बस्तर में सुधारवाद तथा शोषण एवं अंग्रेजी दखलंदाजी के विरूद्ध 1910 में जब क्रांति हुई थी तो नेतानार के ‘गुण्डाधूर’ तथा उसके सहयोगी ‘डेबरी धूर’ ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ये दोनों धुरवा थे तथा क्रांतिकारियों के नेता थे। धुरवा लोगों का नृत्य ‘परजा’ नाच अत्यन्त आकर्षक होता है। लहंगे तथा लम्बी पगड़ी युक्त इनकी नृत्य पोशाक बडी आकर्षक होती है।
भतरा:
गोंडों की उपजाति भतरा मुख्यतः जगदलपुर तथा कोण्डागांव एवं सुकमा में भी अच्छी संख्या में बसे है। पन्द्रहवी सदी के पूर्वाध में बस्तर के चालुक्य वंशी राजा पुरुषोतम देव के साथ कुछ भतरा लोग जगन्नाथ पुरी की तीर्थ यात्रा में गये। वहां उनकी सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर वहाँ के राजा ने वापस जाने पर इन्हें जनेऊ पहनने की अनुमति दी। भतरा रंग के काले, छरहरे बदन के सामान्य कद काठी के होते हैं। कृषि इनका प्रिय व्यवसाय है। भतरा अधि कांशतः हिन्दू देवी-देवताओं को मानते हैं। अनेक हिन्दू तीज त्यौहार, पर्व भी ये मनाते हैं। इनके अपने भी कुछ देवी-देवता हैं जैसे माता, भीमादेव आदि। उड़ीसा से संपर्क के कारण ये हल्बी के साथ उड़िया भाषा भी बोल लेते हैं। उड़ीसा की सभ्यता संस्कृति का प्रभाव इस प्रजाति पर परिलक्षित होता है। ये व्यस्क होने पर विवाह करते है। बाल विवाह का प्रचलन कम है। विधवा विवाह मान्य है तथा तलाक को सामाजिक मान्यता प्राप्त है।
दोरला:
तेलगु में ‘दोरा’ का अर्थ होता है ‘मालिक’ अथवा ‘प्रभू’। गोदावरी नदी के निचले भाग में निवास रत लोग अपने को दोरला कहते हैं। ये कोन्टा, कुटरु की भूतपूर्व जमींदारी तथा बीजापुर क्षेत्र में आबाद है। भोपालपटनम में भी इनकी अच्छी संख्या निवास करती है। दोरला, गोंड जनजाति की एक उपजाति है। इनकी बोली ‘दोरली’ है जो कि द्रविड़ परिवार की भाषा है। दोरली तेलगु की विभाषा है। वह सारा क्षेत्र जहां दोरली बोली जाती है, आंध्र प्रदेश के तेलगु भाषी क्षेत्र से संलग्न है।
हलबा:
हलबा लोग बस्तर के प्रमुख ग्रामों में ही पाये जाते हैं। मुख्य रूप से ये बीजापुर, बारसूर, दन्तेवाड़ा, गीदम, जगदलपुर, बडांजी, सुकमा, गगालूर, छिदंगढ नारायणपुर, अन्तागढ, भानुप्रतापपुर, कोण्डागांव, केशकाल, छोटेडोंगर तथा बडे डोंगर में पाये जाते हैं। इनकी बोली का नाम ‘हल्बी’ है। इसमें छत्तीसगढ़ी मराठी, उड़िया तथा हिन्दी का अनूठा मेल हैं। इसे हिन्दी के अधिक निकट माना जाता है। हलबी बस्तर की सम्पर्क भाषा मानी जाती है। गोंड़ी के बाद इसे ही अधिक लोग बोलते तथा समझते हैं। हलबी का लोक साहित्य समृद्ध है। हलबा बडे सफाई पसंद होते हैं। इनके घर साफ सुथरे होते हैं। अक्सर बड़े गांव में ये आबाद रहते हैं। अतः संभ्रान्त व गैर आदिवासियों से इनका अच्छा सम्पर्क रहता है। कांकेर के राज परिवार में तो महल के अन्दर विश्वस्त कर्मचारी के रुप में हलबा लोगों का रखा जाता था। कांकेर राजा का राजतिलक हलबा द्वारा होता था। बस्तर दशहरे के अवसर पर सैनिक वेशभूषा में कतारबद्ध हलबा तलवार, लिये राजा के रथ के सामने सामने चलते थे। उत्तर बस्तर में बड़े डोंगर केशकाल आदि के आसपास के अठारह गढ़ों के किले दार पहले हलबा लोग ही थे। हलबा अच्छे कृषक होते हैं। साथ ही इन्हें जड़ी-बूटियों का भी ज्ञान होता है। हलबा लोग बहुधा व्यवस्कता प्राप्त करने पर शादी करते है, बाल विवाह कम होते है। विधवा विवाह प्रचलित है। तथा तलाक को भी सामाजिंक मान्यता प्राप्त है। हलबा सामान्य ऊँचाई के सांवले, हष्ट पुष्ट, चौडा सिर तथा साधारणतः अच्छे नाक नक्श के होते हैं। ये हिन्दू देवी देवताओं की भी पूजा अर्चना करते है। ये अपने सारे संस्कार, जन्म से लेकर मृत्यु तक हिन्दुओं के समान ही करते है। हलबा लोगों में शिक्षा का प्रतिशत अन्य जनजातियों की अपेक्षा अधिक है।
गदबा:
जगदलपुर के दक्षिण पूर्व में अत्यंत कम संख्या में पाये जाते हैं। इनकी बोली ‘गदबी’ अन्य जनजातियां न तो बोल पाती और न समझ सकती है। गदबा अत्यन्त पिछड़ी हुई जनजाति है। शिकार करना, कंदमूल इकट्ठा करना इनका प्रमुख कार्य है। थोड़ी बहुत खेती ये कर लेते हैं। कृषि एवं वन मजदूरी से कुछ लोग अपनी आजीविका चलाते है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार से बस्तर में अनेक आदिवासी समूह निवास करते हैं। उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान विशेष रूप से मिलती है। कुछ परम्परागत पर्व त्यौहार भी महत्वपूर्ण है। इनसे उनका रहन-सहन मिल जाता है।
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जानकारी स्त्रोत: डिस्कवरी ऑफ़ बस्तर एक खोज पुस्तक से....
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